जिनेवा से परमाणु परीक्षण तक: कहानी पीवी नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी के मित्रता की

और इस तरह देश परमाणु संपन्न बना

पीवी नरसिम्हा राव अटल बिहारी वाजपेयी

PC: news18.

बात मई 1996 की है, देश में चुनाव हो चुका था और 5 वर्षो के सफल कार्यकाल के बाद पीवी नरसिम्हा राव की सरकार चुनाव हार गयी थी। भाजपा उस समय सबसे बड़ी पार्टी थी और सरकार बनाने जा रही थी। अमेरिका यह नहीं चाहता था कि अटल जी सरकार बनाकर नेतृत्व करें क्योंकि वह अपने आक्रामक रक्षा नीति के लिए पहले ही चर्चित हो चुके थे। वाशिंगटन को अपनी रिपोर्ट में, तत्कालीन अमेरिकी राजदूत फ्रैंक विस्नर ने वाजपेयी के अगले भारतीय प्रधानमंत्री बनने पर चिंता जाहीर की थी। आखिर अमेरिका को अटल बिहारी वाजपाई कैसा डर था ?

इस बात का जवाब एस.एम. खान की किताब “The People’s President” में मिलता है जो उन्होंने राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम पर लिखी है। इस किताब में उन्होंने लिखा है कि प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के कार्यकाल में ही भारत परमाणु परीक्षण के लिए तैयार था लेकिन अमेरिकी दबाव में कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ सका था। 1996 के आम चुनावों में हार के बाद, पीवी नरसिम्हा राव ने डॉ. कलाम को अपने कार्यालय बुलाया जो उस समय प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार थे। कार्यालय में उस समय आम चुनाव जीतने वाले अटल बिहारी वाजपेयी भी उपस्थिति थे जो अगले प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे। इस किताब के अनुसार पीवी नरसिम्हा राव ने इस बैठक को भारत के परमाणु कार्यक्रम के बारे में जानकारी देने के लिए ने बुलाया था। यह बिल्कुल अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली के परमाणु कोड पारित करने जैसा था।“ इससे राजनेता की परिपक्वता का पता चलता है, जो मानते थे कि “राष्ट्र” राजनीति से बड़ा है। बेशक, परमाणु परीक्षण के लिए देश को दो साल तक इंतजार करना पड़ा। जब वाजपेयी जी फिर से 1998 में बहुमत से लौटे तभी परीक्षण सफल हुआ। इस अवधि के दौरान डॉ. कलाम ने इस राज को अपने पास सुरक्षित रखा।”

अमेरिका पीवी नरसिम्हा राव, वाजपेयी और कलाम की इसी जुगलबंदी और प्रखर परमाणु नीति से डरता था। और अटल जी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए भरपूर कोशिश की।

उस समय के नेता और नेता प्रतिपक्ष के बीच का यह “समन्वय” एक अविशवसनीय उदाहरण था। पीवी नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी, दोनों के लिए राष्ट्र और राष्ट्रीय सुरक्षा, सुपर पावर अमेरिका के दबाव के बावजूद सबसे ऊपर थी। दोनों नेताओं के बीच लाख वैचारिक मतभेद रहे पर राष्ट्र सबसे ऊपर था। यही खासियत है किसी भी मूर्धन्य विद्वान की जो आचरण की सार्थकता पर विश्वास करता है। यही दो प्रधानमंत्री थे जिन्होंने वास्तव में देश की देखभाल की और इसके विकास के लिए काम किया। पीवी नरसिम्हा राव, जिन्होंने विदेशी निवेश के लिए भारतीय बाजारों को उदार बनाया। उसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी वह थे जिन्होंने दूरसंचार क्रांति, राजमार्ग क्रांति और परमाणु कार्यक्रमों के साथ विकास में नए कीर्तिमान स्थापित किये। दोनों ही नेताओं को भारत भूमि से लगाव था और दोनों कई भाषाओ के ज्ञानी थे।

यह दोनों नेता दो अलग-अलग विचारधारा की पार्टियों के नेता थे फिर भी दोनों के बीच इस तरह के समन्वय के कई और उदाहरण भी हैं। यह सब तब शुरू हुआ जब 1991 के चुनाव में जीत के बाद कांग्रेस ने पीवी नरसिम्हा राव को देश के प्रधानमंत्री पद के लिए चुना, तब हमारा देश पहले से ही आर्थिक दिवालियापन की कगार पर था, और कश्मीर, पाकिस्तान और आतंकवादियों के चंगुल में फंसता जा रहा था। लेकिन इन दोनों ही मामलों पर राव ने दो फैसले लिए जिसने भारत का भविष्य बदल कर रख दिया था। पहला बाजार उदारीकरण की नीति जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था न केवल पुनर्जीवित हुई, बल्कि नई संभावनाओं के लिए भी अवसर खुले। और दूसरा उनके द्वारा प्रदर्शित वह चतुर कूटनीति थी, जिसने भारत को कश्मीर मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में अपनी पहली राजनयिक जीत दिलाई। उस समय नई दिल्ली को महसूस हो गया था कि भारत सरकार को कश्मीर से अलग करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान और इस्लामिक संगठन ओआईसी की गुटबाजी हो चुकी है। चौतरफ़ा चुनौतियों का सामना करते हुए, तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने इस मामले को अपने हाथों में ले लिया।

उन्होंने खुद जिनेवा में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिनिधियों की एक टीम बनाई जिसमें उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को चुना, याद रहे वाजपेयी उस समय सदन में विपक्ष पार्टी के नेता थे। यह पहली बार हो रहा था जब एक विपक्ष का नेता हिंदुस्तान का पक्ष रखने अंतर्राष्ट्रीय स्तर यानी संयुक्त राष्ट्र संघ में जा रहा था। यदि वहां पाकिस्तान सफल हो जाता तो भारत पर UNSC के आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए जाते और देश की आन बान और शान पर प्रश्नचिन्ह लग जाता। वहां बेनजीर भुट्टो की व्यक्तिगत उपस्थिति का मुकाबला करने के लिए, पीवी नरसिम्हा राव ने अपने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को भेजा जो संयुक्त राष्ट्र में एक जाने माने अर्थशास्त्री थे। इस तरह के मोड़ पर, यह महत्वपूर्ण था कि कोई भी कदम गलत न हो। वो ऐसा समय था जब देश की रक्षा के लिए पार्टी की परवाह न करते हुए,पक्ष और विपक्ष के नेता एक साथ आए थे। राजनेताओं में आज भी ऐसी स्थिति और भावना कम ही देखी जाती है।

दोनों ही नेताओं के मन में एक दूसरे के लिए अगाध प्रेम था। जब 1996 में कांग्रेस की हार के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री नियुक्त किया और उन्हें सदन के पटल पर बहुमत साबित करने को कहा। पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव राष्ट्रपति के फैसले से निश्चित रूप से प्रसन्न थे। शपथ समारोह के दौरान वह चुपचाप वाजपेयी के पास गए,  और कहा था कि “अब मेरे अधूरे काम को पूरा करने का समय है”। इस बात को विनय सत्पथी ने अपनी पुस्तक ‘Half Lion’ में लिखा है। बता दें कि नरसिम्हा राव को हाफ lion भी कहा जाता था। इस बात को अटलजी ने भी स्वीकार किया था। 2004 में नरसिम्हा राव के शरीर का अंतिम संस्कार करने के दो दिन बाद, अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने पुराने दोस्त को एक श्रद्धांजलि दी। उन्होंने कहा कि नरसिम्हा राव ही भारत के परमाणु कार्यक्रम के ‘true father’ थे। वाजपेयी ने आगे कहा कि प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिनों बाद मई 1996 में, ‘राव ने मुझे बताया था कि बम तैयार है। मैंने बस इसे आगे बढ़ाते हुए इसका विस्फोट किया।‘

यह कथन एक स्टेटमेन के परिभाषा को परिपूर्ण करता है। आज के दौर में यह अकल्पनीय है एक दूसरे के ऊपर इतना भरोसा कि वह विदेश में हिंदुस्तान का सर नहीं झुकने देगा और दूसरे का पहले को परमाणु परीक्षण का श्रेय देना दिखाता है कि देश दल-गत राजनीति से ऊपर है। आज का विपक्ष तो वर्तमान प्रधानमंत्री को श्रेय देने के स्थान पर उनकी तुलना गंदी नाली से करता है। आज का विपक्ष तिनके भर भी उस 1991-96 के सकारात्मक विपक्ष की तरह नहीं है कि उस पर भरोसा किया जा सके और उसे अटलजी की तरह विश्व में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा जा सके। आज का विपक्ष टुकड़े-टुकड़े गुट का समर्थन करता नजर आता है जो इस मातृभूमि के टुकड़े करने का नारा लगाता है और संसद पर हमला करने वाले आतंकवादियों की जय-जय-कार करते है। आज का विपक्ष आतंकवादियों को ‘जी‘ कहकर संबोधित करता है। और तो और अपने ही सेना के शौर्य पर संदेह कर उससे सबूत की मांग करता है।

आज के नेताओं को अपने पुराने निष्ठावान नेताओं से राजनीति में किस तरह का आचरण करना चाहिए वो सीखना चाहिए। इन दोनों नेताओं ने देश के लिए अपनी पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर काम किया और भारत को विश्व पटल पर एक महाशक्ति बनाने के लिए भरसक प्रयास किया।

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