तो क्या उत्तर प्रदेश के गुमनामी बाबा ही थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस?

(PC: Patrika)

आज अगर हम कक्षा 8 के एक विद्यार्थी से नताजी सुभाष चन्द्र बोसे के बारे में पूछेंगे तो शायद हमें कोई जवाब मिल भी जाएगा। लेकिन अगर हम उनसे नेताजी के मृत्यु के बारे में पूछेंगे तो जवाब मिलने की उम्मीद न के बराबर है। क्योंकि कक्षा 8 की एनसीईआरटी की पुस्तक में 123 वें पन्ने के दायीं ओर एक कोने बस एक लेख है जिसमे उनकी मृत्यु के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है।

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आम जन चेतना में नेताजी के मृत्यु से जुड़े तीन परिकलन है, लेकिन इनमें से सत्य क्या है, इसपर किसी के पास पुख्ता सबूत नहीं है। पहला यह माना जाता है कि नेताजी की मौत प्लेन दुर्घटना में हुई थी। और यही सबसे ज्यादा विख्यात है। दूसरा यह माना जाता है कि उनकी मृत्यु रूस के जेल में हुयी थी, लेकिन इसका कोई ठोस सबूत ना होने के कारण इस परिकलन को भी नकार दिया जाता है। तीसरा परिकलन भारत के प्रमुख रहस्यों में से एक माना जाता है। इसके अनुसार अयोध्या में रहने वाले एक गुमनामी बाबा ही ‘नेताजी’ थे। बीते सालों मे सरकार की बेरुखी के वजह से यह मामला लोगों में चर्चा का विषय बन गया है। 

आम लोग आपको यही बताएंगे कि नेताजी की मृत्यु 1945 में हुई थी। हालांकि, गुमनामी बाबा के अनुयायी यह कहते है कि उनकी मृत्यु 1985 में हुई थी। ‘गुमनामी बाबा’ शब्द उस समय के मीडिया ने मशहूर किया था। जब उसी मीडिया ने इस बाबा के अनुयायियों से पूछताछ की, तो वे इस बात को स्वीकार करने में हिचकिचाते थे कि वह नेताजी सुभाष बोस थे। और यह भी पता चलता है कि बाबा देशहित में यह नहीं चाहते थे कि वो राष्ट्रीय परिदृश्ये में आए।

कुछ लोग यह भी दावा करते हैं कि गुमनामी बाबा दरअसल कप्तान बाबा के नाम से मशहूर एक अपराधी था जिसका असली नाम नाम केडी उपाध्याय था। यह अपराधी 10 अक्टूबर, 1958 को गायत्री भवन में एक बैठक में पंडित ब्रह्मदेव की हत्या करने के बाद गायब हो गया था। इसके बाद वह नेपाल भाग गया, जिसके बाद वह बस्ती में रहने लगा। बस्ती से, कप्तान बाबा अयोध्या चले गए, और फिर अपने बाकी दिनों को बिताने के लिए फैजाबाद चले गए। स्क्रॉल के एक लेख में दावा किया गया कि कप्तान बाबा और गुमनामी बाबा एक ही व्यक्ति थे क्योंकि उन दोनों के मित्र एक ही थे।

हालांकि, यह सिद्धांत संतोषजनक नहीं था। इसके कारण यह है कि गुमनामी बाबा के पास से मिले सामान एक बिल्कुल अलग ही कहानी बताते हैं। के डी उपाध्याय जैसे हत्यारे के पास ऐसी सामग्री क्यों और कहां से आयी होगी जो नेताजी बोस के साथ एक स्पष्ट संबंध का संकेत देती है? गुमनामी बाबा से प्राप्त विभिन्न प्रकार के सामान उनके बारे बताते है कि वो वास्तव में नेताजी थे। सिगरेट,  सिगार,  शराब, चश्मा,  किताबें,  दूरबीन , एक टाइपराइटर और  विभिन्न विषयों पर नोट्स जैसी चीजें गुमनामी बाबा के पास कहां से आई, और हैरान करने वाली बात तो यह है कि नेताजी भी ठीक इन्ही चीजों का इस्तेमाल किया करते थे। इसके अलावा, नेताजी और गुमनामी बाबा के चेहरे में भी एक स्पष्ट समानता देखने को मिलती है। लोग यह भी दावा करते हैं कि बाबा अंग्रेजी के साथ-साथ जर्मन में भी पारंगत थे!

बाबा की मृत्यु के बाद से ही उनके नेताजी होने की अफवाहें फैलने लगी थीं। यह मामला तब तेज हो गया जब 1985 में नेताजी की भतीजी ललिता बोस फैजाबाद पहुंचीं। उन्होंने व्यक्तिगत जाँच की और आश्वस्त किया कि वह उनके चाचा थे। ललिता ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को उचित जांच का आदेश देने के लिए मनाने की कोशिश कीथी। लेकिन कहा जाता है कि मुख्यमंत्री ने उनसे कहा था कि मामला उनके वश से बाहर है, और वो इस मामले में कुछ नहीं कर सकते हैं। ललिता ने तब प्रख्यात वकील रॉबिन मित्रा की मदद से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया। इसके जवाब में, राज्य सरकार ने पूरे 13 साल बाद जवाबी हलफनामा दायर किया।

अखिलेश यादव ने 2013 में न्यायमूर्ति विष्णु सहाय का एक-सदस्यीय आयोग गठित किया, जिसकी रिपोर्ट अनिर्णायक पाई गई। हालांकि, यह भी माना जाता है कि इस बाबा के मामले में भी कई सिद्धांत हैं,  जिनमें से सबसे प्रमुख सिद्धांत भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दिया गया हैं, जो मानते हैं कि यह बाबा इंटेलिजेंस ब्यूरो और केंद्र सरकार द्वारा एक प्रत्यारोपित कठपुतली थे, क्योंकि उस समय की सरकार नेताजी की मौत के वास्तविक कारण से ध्यान हटाना चाहती थी। एक अन्य सिद्धांत बताता है कि बाबा एक ‘सीआईए’ एजेंट थे।

इस साल मार्च में हैरान करने वाली घटना सामने आई जब नेताजी के परिवार ने अनुज धर और चंद्रचूर घोष की एक किताब  के विमोचन को रोकने के लिए पीएम मोदी को पत्र लिखा था। इस किताब का शीर्षक था “Conundrum: Subhas Bose’ life after death”। परिवार ने दावा किया कि यह पुस्तक काल्पनिक है और इसका इस्तेमाल नेताजी के खिलाफ दुष्प्रचार के लिए किया जा रहा था।

नेताजी की मौत की जांच के लिए 1999 में बनाई गयी मुखर्जी आयोग ने नेताजी को एक विमान दुर्घटना में मरने की संभावनाओं को नकार दिया था। आपको याद होगा कि वर्ष 2006 में कांग्रेस सरकार ने इस रिपोर्ट को अनिर्णयक होने का हवाला देकर देश की संसद में अपनी स्वीकृति नहीं दी थी। वर्ष 2010 में, मुखर्जी आयोग का नेतृत्व करने वाले जस्टिस मुखर्जी ने भी गुमनामी बाबा के नेताजी होने के दावों का माना था। उन्होंने यह भी दावा किया था कि कांग्रेस सरकार ने आयोग के काम को प्रभावित और बाधित करने का प्रयास किया। एक स्वतंत्र आयोग की जांच में सरकार के हस्तक्षेप का क्या मतलब?

और यह भी नहीं समझ आया कि अखिलेश यादव द्वारा गठित आयोग ने कभी न्यायमूर्ति एमके मुखर्जी से संपर्क करने की कोशिश क्यों नहीं की। क्योंकि वही एकमात्र व्यक्ति ऐसे व्यक्ति हो सकते थे जो इस मामले के बारे में सबसे अधिक जानकारी रखते हो।

इस बात पर भी सवाल उठाने की जरूरत है कि गुमनामी बाबा की लिखावट पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया। अमेरिका के एक हैंडराइटिंग एक्‍सपर्ट ने सुभाषचंद्र बोस और गुमनामी बाबा की हैंडराइटिंग की जांच की और पाया कि ये एक ही शख्‍स की हैंडराइटिंग है। विशेषज्ञों में से एक ने कहा कि नेताजी और बाबा के हैंडराइटिंग में बहुत समानता थी। भले ही यह एक अल्पसंख्यक राय थी, लेकिन अधिकारियों को नेताजी की मृत्यु के आसपास की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए और इस बाबा के नेताजी होने के दावों को ध्यान में रखते हुए, इस पहलू पर गहराई से ध्यान देना चाहिए था। इसके अलावा, यह कहा जाता है कि आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर गुमनामी बाबा को बहुत सम्मान दिया करते थे। इसके अलावा, पांचवें सरसंघचालक ने भी यह दावा किया था कि गुमानी बाबा वास्तव में नेताजी थे।

इन सभी तथ्यों और सिद्धांतों को ध्यान में रख कर सरकार को एक उच्च जांच दल बना इस मामले को जल्द से जल्द हल करने की दिशा में अहम कदम उठाने चाहिए। हमें नेता जी की मृत्यु से जुड़े सभी रहस्यों की सच्चाई जानने का अधिकार है।

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