यूं तो कबीर सिंह किन किन को देखनी चाहिए ये अलग चर्चा का विषय बन सकता है, पर फिल्म देखने के बाद इतना तो तय है कि किन्हें ये फिल्म ‘नहीं देखनी चाहिए’। जिन्हें स्वरा भास्कर के अति नारीवाद में अटूट विश्वास है वो कृपा करके इस फिल्म को देखने का जोखिम न उठाएं, आखिर अच्छी सेहत भी तो कोई चीज़ होती है?
आज मैं देख कर आया हूं फिल्म ‘कबीर सिंह’, जो प्रसिद्ध तेलुगू फिल्म ‘अर्जुन रेड्डी’ का हिन्दी संस्करण है। संदीप रेड्डी वंगा द्वारा निर्देशित इस फिल्म में प्रमुख कलाकार है शाहिद कपूर, कियारा अडवानी, सोहम मजूमदार इत्यादि।
कहानी है डॉ. कबीर राजधीर सिंह के बारे में, जो अपने कॉलेज के सबसे होनहार विद्यार्थियों में से एक है और उस समय कॉलेज के फ़ाइनल इयर के विद्यार्थी हैं। परंतु उन्हें एंगर मैनेजमेंट की गंभीर समस्या है, यानि ये अपना गुस्सा बिलकुल भी नियंत्रित नहीं कर सकते। इसी समस्या के कारण ये कॉलेज छोड़कर जाने ही लगते हैं, कि तभी ये मिलते हैं प्रीति सिक्का से, जो उसी कॉलेज में फ़र्स्ट इयर की विद्यार्थी हैं। कबीर प्रीति के लिए अपना प्रेम सिर्फ उसी से नहीं, बल्कि पूरे कॉलेज के सामने प्रकट कर देता है।
शुरू शुरू में उसके स्वभाव से डरने वाली प्रीति जल्द ही कबीर से अपने संबंध बढ़ाने लगती है, और जल्द ही उनका प्रेम परवान चढ़ने लगता है। परंतु यह बात एक ऐसी ही मुलाक़ात में प्रीति के पिता को पता चल जाती है, जो एक रूढ़िवादी परिवार से ताल्लुक रखते हैं। कबीर के लाख प्रयासों के बावजूद प्रीति के घरवाले उसकी इच्छा के विरुद्ध अपनी पसंद के लड़के से विवाह करा देते हैं।
वियोग में सुध-बुध खो बैठा कबीर इससे न केवल आहत होता है, बल्कि अपने विचित्र स्वभाव के चलते अपने ही घर से निष्कासित भी कर दिया जाता है। इसके पश्चात कबीर सिंह के जीवन में जो भूचाल आता है, उसमें कैसे वो बिगड़ता ही चला जाता है, और कैसे इस दलदल से वो बाहर निकलता है, ये फिल्म इसी के बारे में है।
इससे पहले कि मैं अपना पूरा मत आपके समक्ष रखूं, मैं आपको पहले ही सूचित कर दूं कि ‘कबीर सिंह’ को देखना सबके बस की बात नहीं। ये बॉलीवुड की उन मूवीज़ की तरह बिलकुल नहीं, जो ज्ञान तो कुछ और देगी, और दिखाएगी कुछ और। यहां हमारा मुख्य कलाकार ढोंगी नहीं है, जो भी करता है डंके की चोट पर करता है, और कभी कभी तो सभी हदें पार भी कर देता है। इस स्वभाव से कई लोगों को दिक्कत भी हो सकती, और कई लोग तो इसीलिए निर्देशक को अभी से ही निशाने पर लेने लगे हैं, पर उनके बारे में बाद में बात करते हैं।
सबसे पहले बात करते हैं फिल्म के खूबियों के बारे में। बहुत दिनों बाद हिन्दी फिल्म उद्योग में कोई ऐसी मूवी आई है, जिसके सभी गीत एकदम मौलिक हो और काफी हद तक कर्णप्रिय भी। ‘अर्जुन रेड्डी’ की तरह ‘कबीर सिंह’ भी अपने संगीत और अपने पार्शव संगीत के लिए काफी प्रशंसा बटोर रहा है। इसके अलावा अभिनय में भी इस फिल्म का कोई जवाब नहीं।
निस्संदेह ‘कमीने’ और ‘उड़ता पंजाब’ के बाद ‘कबीर सिंह’ में शाहिद कपूर अपने उत्कृष्ट अभिनय के लिए अवश्य जाने जायेंगे। हमारे यहां एक पुराना श्लोक काफी प्रचलित है, ‘अति सर्वत्र वर्यजते’। अपने क्रोध और अड़ियल स्वभाव के कारण जिस तरह ये अपने जीवन और अपने करियर दोनों को खतरे में डालते हैं, उसे ‘अर्जुन रेड्डी’ की भूमिका निभाने वाले विजय साई देवेराकोंडा की तरह शाहिद ने बखूबी व्यक्त किया है। दिल्ली के कॉलेजों में किस प्रकार की रैगिंग होती है, और किस प्रकार की राजनीति से विद्यार्थियों को जूझना पड़ता है, इसे भी ‘कबीर सिंह’ में बखूबी दिखाया गया है।
यूं तो दोनों नायकों में तुलना होना स्वाभाविक है, परंतु ‘कबीर सिंह’ ने मूल फिल्म के नायक के साथ न्याय करने का सार्थक प्रयास किया है। इनके अलावा इनके परम मित्र शिवा की भूमिका में सोहम मजूमदार, कबीर के बड़े भाई के रूप में अर्जन बाजवा और कबीर के पिता की भूमिका में सुरेश ओबेरॉय ने भी अच्छा काम किया है। यहीं नहीं, इस फिल्म में वयोवृद्ध अभिनेत्री कामिनी कौशल का भी एक अहम रोल है, जो अपने सीमित समय में भी एक अमिट छाप छोड़ जाती है।
लेकिन इस फिल्म की कुछ खामियां भी हैं, जिनपर मिश्रित प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक है। इसी फिल्म में कबीर सिंह के गुस्सैल एवं हानिकारक स्वभाव में कई छद्म नारीवाद ..नारी विरोधी पेश करने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं। ये वही छद्म नारीवादी हैं, जो कुछ-कुछ होता है और जब वी मेट में घुमा फिरा कर महिला विरोधी दृश्यों पर चुप्पी साध लेते हैं, ये वही छद्म नारीवादी हैं जिन्हें इस फिल्म में नायिका के थप्पड़ तो नहीं दिखाई देते, पर नायक का एक थप्पड़ भी शूल की तरह चुभने लगेगा।
निस्संदेह कबीर सिंह का व्यक्तित्व किसी भी पुरुष के लिए आदर्श नहीं है, पर जिस तरह हमारी लेफ्ट लिबरल ब्रिगेड अकारण ही फिल्म के निर्देशक को आड़े हाथों ले रही हैं, उससे उनके दोहरे मानक साफ समझ आते हैं।
लेकिन कबीर सिंह में कुछ ऐसा दोष भी हैं, जिसकी किसी भी स्थिति में उपेक्षा नहीं की जा सकती। निस्संदेह कबीर सिंह का व्यक्तित्व मानव चरित्र के स्याह पहलू को सामने लाने में काफी सहायक है, लेकिन उसके समक्ष प्रीति सिक्का के रूप में कियारा अडवानी का चरित्र काफी दुर्बल और सहमा हुआ प्रतीत होता है। मूल फिल्म में शालिनी पाण्डेय ने प्रीति के चरित्र को जो सौम्य, पर प्रबल व्यक्तित्व दिया है, वो कियारा पूरी तरह से नहीं दे पाती। निकिता दत्ता का छोटा सा रोल भी इस फिल्म में कबीर के अक्खड़ स्वभाव की बलि चढ़ता प्रतीत होता है। इतना ही नहीं, फिल्म के मूल स्वरूप को जीवंत रखने के लिए फिल्म का समय भी कई लोगों के धैर्य की परीक्षा भी लेती दिखाई देती है।
अब एक विनम्र निवेदन सेंसर बोर्ड को भी : यदि फिल्म वयस्कों के लिए ही है, और वे इतने समझदार हैं कि उन्हें सही गलत में अंतर पता चला जाये, तो फिर गालियों को बीप करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी? और तो और, अंग्रेज़ी गालियों पर कोई रोक नहीं है, परंतु हिन्दी गालियों पर बीप कर दिया जाता है। आखिर यह विरोधाभास किसके लिए?
कुल मिलाकर कबीर सिंह एक ऐसी मूवी है जो मानव चरित्र के स्याह पहलू और प्रेम में असफल होने पर व्यक्ति के पतन को बिना किसी लाग लपेट के दिखाती है। जो लेफ्ट लिबरल के पूर्वाग्रह से ग्रसित है, वो ये फिल्म न देखे, पर यदि आप को डार्क ह्यूमर पसंद है, तो इस फिल्म को अवश्य देख सकते हैं। मेरी तरफ से कबीर सिंह को मिलने चाहिए 5 में से 3/3.5 स्टार।