पिछले महीने ही नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने ये प्रकट किया कि मोदी सरकार अपने आगामी 100 दिनों में कई ‘बिग बैंग’ सुधारों को एक नई दिशा देंगे। इन्हीं सुधारों में प्रमुख है मोदी सरकार द्वारा हाल ही में लांच किया गया निजीकरण कार्यक्रम, जिसका क्रियान्वयन युद्धस्तर पर होगा।
राजीव कुमार के अनुसार केंद्र सरकार जल्द ही 42 से ज़्यादा सरकारी उद्यमों को निजी उद्यमों में परिवर्तित करने अथवा उसे बंद करने की प्रक्रिया में तेज़ी लाएगी। इतना ही नहीं, सरकार राष्ट्रीय एयरलाइन, एयर इंडिया पर एफ़डीआई कैप हटाने का विचार कर रही है, जिससे घाटे में चल रही इस इकाई का निजीकरण और सुगम हो सके।
राजीव कुमार के अनुसार, सरकार एक होल्डिंग कंपनी का भी गठन करेगी, जो किसी भी मंत्री के अनुचित हस्तक्षेप से न केवल मुक्त रहेगी, अपितु उक्त सरकारी उद्यमों की निगरानी भी करेगी। यही नहीं, सरकार इन उद्यमों के स्वामित्व में खाली पड़ी भूमि को विदेशी निवेशकों को भी सौंपेगी, जिससे विशिस्त उपक्रमों के समूह को एवं इंडस्ट्रियल कॉरिडॉर को भी बढ़ावा मिलेगा। इससे न केवल विदेशी निवेशकों के लिए जोख़िम का खतरा कम रहेगा, बल्कि उन्हें कानून पचड़ों और प्रोजेक्ट साइट से संबन्धित स्वामित्व की समस्याओं से भी मुक्ति मिलेगी।
पर आखिर इन सरकारी कंपनियों से सरकारों को ऐसी क्या समस्या है, कि इनके निजीकरण से ही सरकार की समस्याओं का समाधान होगा? इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? आइये एक दृष्टि डालते हैं इस योजना के प्रमुख करण एवं इसके दूरगामी परिणामों पर –
पिछले कई वर्षों से अकर्मण्यता एवं खराब प्रबंधन के कारण अधिकतर सरकारी कंपनी को करोड़ों का नुकसान झेलना पड़ रहा है। केंद्र सरकार घाटे में चल रही सरकारी उद्यमों को संभाले पड़ी है, बावजूद इसके की इनका राष्ट्रीय विकास के कार्यक्रम में कोई विशेष योगदान नहीं रहा है। प्रतिवर्ष केंद्र सरकार को इन सरकारी उद्यमों के कारण 1 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का नुकसान उठाना पड़ा है।
हालांकि, हमें ये भी ध्यान में रखना चाहिए की यही पीएसयू अथवा सरकारी कंपनी इस देश में सबसे ज़्यादा रोजगार उपलब्ध कराते हैं। पब्लिक सैक्टर एंटरप्राइज़ सर्वे 2016-17 के अनुसार विभिन्न सरकारी उद्यमों में काम करने वाले स्थायी कर्मचारियों की कुल संख्या 11,30,840 है। ऐसे में यहां पर ये बताना आवश्यक है की इन उद्यमों द्वारा संचालित भर्ती की प्रक्रिया में जातिगत आरक्षण लागू रहती है। सरकारी विभाग भी जातिगत आरक्षण को अनुमति देते हैं, पर सरकारी उद्यमों में जातिगत आरक्षण का होना न केवल बेतुका है, बल्कि उद्यमों की उत्पादकता के लिए घातक भी। हमें ये ध्यान में रखना चाहिए कि ये सरकारी कंपनी सरकारी विभाग नहीं है, बल्कि वो व्यवसायिक इकाई हैं, जिनका स्वामित्व केंद्र सरकार के पास है।
ऐसी इकाइयों के लिए योग्यता जरुरी हो जाती है, और इनकी नौकरियों में किसी भी प्रकार का आरक्षण काफी घातक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि वे योग्यता के साथ सम्झौता करती है। हालांकि, सरकारी विभागों में आरक्षण का ऐसा असर इसलिए नहीं पड़ता, क्योंकि वे व्यवासायिक से ज़्यादा प्रशासनिक स्वभाव है। वर्तमान समय में व्यावसायिक इकाइयों को काफी कठिन प्रतियोगिता का सामना करना पड़ता है, और ऐसे में योग्यता से कोई सम्झौता नहीं किया जा सकता।
ऐसे में उक्त सरकारी उद्यमों के निजीकरण के सर्वप्रथम परिणामों में से एक होगा नौकरियों में जातिगत आधारित आरक्षण का प्रभाव कम होना। चूंकि निजी क्षेत्र में जातिगत आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए ऐसे पीएसयू के निजीकरण से ये नौकरियां केवल योग्यता आधारित हो जाएगी। इससे कर्मचारियों की भर्ती के दौरान केवल योग्य एवं बेहतर कर्मयोगी चुने जाएंगे, जो इन घाटे में लिप्त इकाइयों को खराब प्रबंधन एवं अकर्मण्यता से भी मुक्ति दिलाएगी।
सरकार ने इसी दिशा में पहले ही अपने कदम बढ़ाए हैं, जब उन्हें जातिगत आरक्षण के प्रभाव को कम करने के लिए लैटरल एंट्री स्कीम सामने लायी, जिसे मोदी सरकार के कार्यकाल में विस्तृत किया जाएगा। इस व्यापक बदलाव से अनुमान लगाया जा रहा है कि लगभग 40 प्रतिशत संयुक्त सचिव आईएएस समूह से नहीं आएंगे।
जब एक बार सरकार ऐसे संयुक्त सचिवों की प्रशासनिक सेवा के बाहर से भर्ती करेंगे, तो नौकरशाही के शीर्ष पर जातिगत आरक्षण का प्रभाव अपने आप कम होने लगा। ये मोदी सरकार द्वारा लिया गया एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसका सकारात्मक असर काफी बाद में समझ में आएगा, जब इन ‘बिग बैंग’ सुधारों का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन कराया जाएगा।