वोरा नए नहीं हैं, वृद्ध चापलूसों को अध्यक्ष बनाने का पुराना इतिहास रहा है कांग्रेस पार्टी का

कांग्रेस अध्यक्ष

PC: jansatta

कांग्रेस के अंदर से खबर आ रही है कि मोतीलाल वोरा को राहुल गांधी के बाद पार्टी का अध्यक्ष बनाया जा सकता है। मोती लाल वोरा का जन्म  वर्ष 1928 में हुआ था मतलब वो 90 वर्ष के हैं और कांग्रेस की यही परंपरा रही है कि जब भी कोई गैर-गांधी नेता पार्टी अध्यक्ष बनता है तो वो या तो उम्र में काफी बड़ा होता है या गांधी परिवार का बेहद करीबी माना जाता है। यहां करीबी कहने का मतलब चाटुकारिता से है। 

प्रधानमंत्री बनने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस की अध्यक्षता फिर से अपने हाथों में ले ली। वर्ष 1951 से 1954 तक वह अध्यक्ष बने रहे। उनके बाद यूएन धेबर को अध्यक्ष बनाया गया जो गांधी और जवाहरलाल नेहरू के बेहद करीबी माने जाते थे। फिर आया इंदिरा का दौर और इस परिवार का पार्टी पर वर्चस्व बढ़ता गया। इंदिरा ने प्रधानमंत्री बनते ही सबकुछ अपने हाथों में ले लिया और के.कामराज को दरकिनार करते हुए एक अलग पार्टी बनाई।

कमराज के विद्रोह से इंदिरा को यह सीख मिल गयी थी कि अब उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना है जो उनका और उनके परिवार का चापलूस हो और जिसमें कोई भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा ना बची हो। ऐसे ही उन्होनें जगजीवन राम को एस निजलिंगप्पा के बाद कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया। वो पिछड़ों, दलितो, वंचितों के लोकप्रिय नेता थे और गांधी परिवार के उतने ही करीबी थे। कांग्रेस के विभाजन के बाद जब 1971 में इंदिरा गांधी ने चुनाव जीता था तब इसका श्रेय बाबू जगजीवन राम को देते हुए कहा – “बाबू जगजीवन राम भारत के प्रमुख निर्माताओं में से एक है | देश के करोड़ों हरिजन, आदिवासी, पिछड़े व अल्पसंख्यक लोग उन्हें अपना मुक्तिदाता मानते हैं।”  

1972 से 74 तक शंकर दयाल शर्मा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। वो अपनी वफादारी से भारत के नौवें राष्ट्रपति भी बने। आपातकाल के दौरान 1975 से लेकर 1977 तक देवकांत बरुआ कांग्रेस अध्यक्ष रहे। बरुआ ने ही “इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया” का नारा दिया था। इससे सिद्ध होता है कि बरुआ कितने बड़े चापलूस थे। 1977-78 में कासु ब्रह्मानंद रेड्डी कांग्रेस अध्यक्ष बने वह पहले भी इंदिरा के बेहद करीबी माने जाते था और इंदिरा के सरकार में देश के गृह मंत्री भी बने थे। यह सब उनके चाटुकारिता का ही फल था। इंदिरा अपने अनुसार पार्टी को चलाने लगीं।   

नेहरु के बाद इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद और अध्यक्ष पद दोनों ही अपने अपने पास रखने की चलन की शुरुआत की थी ताकि गांधी परिवार का कांग्रेस पार्टी पर वर्चस्व बना रहे है। धीरे-धीरे कांग्रेस पार्टी के नेताओं में ऐसी भावना घर कर गई कि आज पार्टी के नेताओं को लगता है कि गांधी परिवार के बिना उनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। गांधी परिवार की ‘हां में हां’ मिलाना इस पार्टी के नेताओं की परंपरा बनती गई।  इंदिरा के बाद 1985  में राजीव गांधी अध्यक्ष बने।

मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के वफादार नेताओं ने राजीव की पत्नी सोनिया गांधी को यह पद संभालने के लिए कहा लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। अब वफ़ादारों को एक ऐसा व्यक्ति चुनना था जो गांधी परिवार का वर्चस्व बनाए रखे और साथ ही उस परिवार का चाटुकार भी हो। शरद पवार जैसे बड़े नेता महत्वकांक्षी थे और इस पद पर बैठना चाहते थे। तब सोनिया ने इंदिरा का फॉर्मूला अपनाया और अपने राजनीतिक करियर के अंतिम पड़ाव पर खड़े पीवी नरसिम्हा राव को चुना।

नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाने के साथ पार्टी का अध्यक्ष भी बनाया गया। आगे चलकर यही सोनिया गांधी की यही सबसे बड़ी भूल साबित हुई। नरसिम्हा राव वर्ष 1991 से लेकर 1996 तक पार्टी के अध्यक्ष थे। दरअसल, जब 1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद आम चुनाव हुए थे तब राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर में पार्टी को बड़ी जीत मिली थी और जीत के बाद नरसिम्हा देश के प्रधानमंत्री बने। जब वो देश के प्रधानमंत्री बने तो कांग्रेस पार्टी को उम्मीद भी नहीं थी कि वो पार्टी लाइन से हटकर फैसले लेंगे लेकिन उन्होनें देश हित में कई बड़े फैसले लिए। उन्होंने नेहरू और इंदिरा के राज में लागू किए गए लाइसेंस परमिट राज और सोशलिस्ट अर्थव्यवस्था को ही खत्म कर दिया। नरसिम्हा राव को उनके आर्थिक उदारीकरण जैसे बेहद महत्वपूर्ण फैसलों के लिए जाना जाता था।

बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने आर्थिक सुधारों का दरवाजा खोला और इससे उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। उनके फैसले गांधी परिवार के वर्चस्व के लिए तो खतरा बनते जा रहे थे। पीवी नरसिम्हा राव ने वर्ष 1996 के चुनाव में हार के बाद कांग्रेस की अध्यक्षता गांधी परिवार के किसी सदस्य को न देकर वयोवृद्ध सीताराम केसरी को दे दी। ये फैसला गांधी परिवार को बिलकुल रास नहीं आया। 80 वर्ष की आयु में केसरी अध्यक्ष बने और प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते रहे। इस बीच 1998 के चुनाव से पहले सोनिया गांधी ने राजनीति में आने का ऐलान कर दिया और फिर से गांधी परिवार के चाटुकार सक्रिय हो गए।

कहा जाता है कि सीताराम केसरी कुछ दिन और अध्यक्ष रहना चाहते थे लेकिन सोनिया के आने से उनकी मंशा पर पानी फिर गया। जब सोनिया गांधी की ताजपोशी होने वाली थी तो कांग्रेस और गांधी परिवार के तलवे चाटने वालों ने 82 वर्षीय वयोवृद्ध सीताराम को बाथरूम में बंद कर दिया था ताकि वह बैठक में सोनिया का विरोध न कर पाए और गांधी परिवार ही कांग्रेस का केंद्र बना रहे। कई नेता कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष बने लेकिन जो भी बने या तो वो गांधी परिवार के करीबी होते थे या फिर  चापलूस और वफादार होने के साथ साथ बूढ़े भी होते थे।  

स्पष्ट है कि कांग्रेस के वफादार सदैव गांधी परिवार का कांग्रेस पार्टी पर वर्चस्व बनाए रखना चाहते थे। इसके लिए पार्टी ने एक से बढ़कर एक चापलूस और वफादारों को अपने करीब रखा है और समय-समय पर उन्हें पुरस्कार भी देती है।  

अब राहुल गांधी जब पद से इस्तीफा दे चुके हैं तो फिर से पार्टी का नया अध्यक्ष कौन होगा इसको लेकर खोज शुरू हो चुकी है। अब मोतीलाल वोरा का नाम सामने आ रहा था लेकिन इसपर भी स्थिति कुछ स्पष्ट नहीं है। अब पार्टी अध्यक्ष वो बनेंगे या कोई बड़ा मजबूत नेता ये तो आने वाले वक्त में पता चल ही जायेगा लेकिन सवाल तो ये है कि अगर पार्टी सचिन पायलट, शशि थरूर या सिंधिया जैसे नेताओं में से किसी एक को पार्टी का अध्यक्ष बनाती है तो इससे गांधी परिवार का पार्टी पर कमान कमजोर पड़ जायेगा क्योंकि एक मजबूत नेता चापलूसी से ज्यादा अपने कर्तव्यों पर ध्यान देता है। ऐसे में पार्टी पर से गांधी परिवार का वर्चस्व बना रह पाना मुश्किल है। और ये खतरा गांधी परिवार कभी उठाना नहीं चाहेगा। यही वजह है कि हर बार किसी कमजोर, गांधी परिवार के पार्टी वफादार या चाटुकारिता करने वाले नेता को ही कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया जाता है और इस बार भी हमें कुछ ऐसा ही देखने को मिल सकता है।

Exit mobile version