लगता है लेफ्ट लिबरल्स को टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा में अपनी नयी पोस्टर गर्ल मिल चुकी है। भाजपा सरकार के कथित फासीवाद के विरुद्ध इनके कथित ‘ओजस्वी भाषण’ ने उन्हें लेफ्ट लिबरल द्वारा भारतीय लोकतंत्र की ‘ध्वजवाहका’ का दर्जा दे दिया है। महुआ मोइत्रा की इतनी प्रशंसा की गयी है कि यदि ये करण थापर के शो पर जाकर पुलवामा हमले के आत्मघाती हमलावर आदिल अहमद डार को बचाने भी लगीं , तो हमारे लेफ्ट लिबरल्स उनकी इस बात को दबाने में अपनी सारी ताकत झोंक रहे हैं, ताकि महुआ मोइत्रा ‘पीएम मोदी की फासीवादी सरकार’ के विरुद्ध लोकतंत्र के ‘मशाल’ के रूप में बनी रहे।
ऐसे में जब द वायर जैसी संस्था इनकी बढ़ाई करने लगे, तो इसपर किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। अपने लेख में द वायर के सह संस्थापक सिद्धार्थ भाटिया ने महुआ की तारीफ़ों के पुल बांध दिये। इनके लेख के एक अंश के अनुसार महुआ मोइत्रा कुछ ऐसी हैं –
यही नहीं, मार्कंडेय काटजू ने महुआ की चौतरफा आलोचना पर भी आपत्ति जताई, विशेषकर जिन बयानों में महुआ पर भाषण चोरी करने का आरोप लगाया गया था। यह उनके हठी जवाब से भी साफ झलकता है, जहां उन्होंने आगे कहा –
लेकिन एक व्यक्ति को इनकी महुआ मोइत्रा की अनावश्यक प्रशंसा रास नहीं आई। सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू, जो अपने बयानों की वजह से काफी चर्चा में रहे थे। उन्होंने दोनों [महुआ मोइत्रा और द वायर] को आड़े हाथों लिया। इसके साथ ही उन्होंने महुआ के भाषण को ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ की संज्ञा दी।
मार्कंडेय काटजू के प्रत्युत्तर के एक अंश के अनुसार, ‘2010 में महुआ ने तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता ली। क्या उन्होंने ममता बनर्जी के तानाशाही व्यवहार के विरुद्ध तब आवाज़ उठाई जब 2012 में जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को गिरफ्तार करवा लिया, क्योंकि उन्होंने ममता पर बने कार्टून को सोशल मीडिया पर शेयर किया था? या उन्होंने तब आवाज़ उठाई जब शिलादित्य चौधरी नाम के एक किसान को केवल इसलिए हिरासत में लिया गया, क्योंकि उसने खुलेआम ये कहा कि ममता ने अपने चुनावी वादे पूरे नहीं किए थे?’
क्या महुआ ने प्रोफेसर महापात्रा के टीएमसी गुंडों द्वारा पीटे जाने पर सार्वजनिक विरोध किया था? मैंने कभी नहीं सुना कि उन्होंने ऐसा कुछ किया था, इसके बावजूद भी वो तब टीएमसी की सदस्य थी। तो क्या वो अपने मुंह से झूठ नहीं बोलती जब इनके पार्टी की नेता खुद फासीवादी है? ये उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली बात नहीं हो गयी?”
इतना ही नहीं, मार्कन्डेय ने सिद्धार्थ भाटिया को भी महुआ की अनावश्यक बढ़ाई करने के लिए आड़े हाथों लिया। उनके अनुसार, ‘द वायर के लेख में सिद्धार्थ भाटिया ने महुआ मोइत्रा के संसद में पहले भाषण की तारीफ़ों के पुल बांधने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वे लिखते हैं कि उन्होंने देश के सबसे महत्वपूर्ण मंच पर वो बात बोली जो कोई बोलना नहीं चाहता था। यहां पर जिस बात पर सिद्धार्थ भाटिया ने गौर नहीं किया, वो यह कि कोई व्यक्ति उतना ही महत्व रखता है जितना वो बोलता है। अगर हिटलर, मुसोलिनी या जनरल टोजो में से कोई फासीवाद के विरुद्ध बोले, तो लोग हसेंगे नहीं क्या?’
मार्कंडेय काटजू यहीं पर नहीं रुके, बल्कि उन्होंने महुआ मोइत्रा के पाखंड को उजागर करते हुए उनके बारे में ये कहा –
हो सकता है कि कई लोग जस्टिस काटजू की बातों से सहमति न जताए, लेकिन जब भी उन्होंने कोई व्यावहारिक बात की, उन्होंने सभी को चुप होने पर विवश कर दिया है। महुआ मोइत्रा को आड़े हाथों लेकर मार्कंडेय काटजू ने उनके स्याह पहलू को सभी के समक्ष उजागर कर दिया है, और इस बात के लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाये, वो कम है।