सुप्रीम कोर्ट ने राणा अय्यूब की पुस्तक की उड़ाई धज्जियां, कहा, इसका साक्ष्य के तौर पर कोई मूल्य नहीं है

पत्रकार राणा अय्यूब का विवादों के साथ गहरा नाता रहा है। चाहे वो पैलेट गन से संबंधित भ्रामक खबरें फैलानी हो, या फिर लोकसभा चुनावों के बाद देश के जनमानस के निर्णय का मज़ाक उड़ाना हो।  राणा अय्यूब अपने एजेंडे के प्रचार प्रसार में सदैव आगे रही हैं। हालांकि, उनके ये दांव पेंच सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तब बेतुके साबित हुएजब कोर्ट की पीठ ने उनकी पुस्तक ‘गुजरात फाइल्स’ को हरेन पांड्या हत्याकांड में साक्ष्य के तौर पर स्वीकारने से मना कर दिया।  

ज्ञात हो कि भाजपा नेता हरेन पांड्या गुजरात सरकार में गृह मंत्री हुआ करते थे। 26 मार्च 2003 को अहमदाबाद के लॉ गार्डन के पास कुछ अज्ञात बदमाशों ने उन्हें गोलियों से भून दिया था। उनकी हत्या के सिलसिले में लगभग 12 अभियुक्तों को 2007 में विशेष पोटा अदालत ने दोषी करार देते हुए  मुख्य आरोपी असगर अली की गवाही के आधार पर आरोपियों को बड़ी साजिश के अपराध में दोषी ठहराया था। विशेष पोटा अदालत ने अली के साथ ही मोहम्मद रऊफ, मोहम्मद परवेज अब्दुल कयूम शेख, परवेज खान पठान उर्फ अतहर परवेज, मोहम्मद फारूक उर्फ शाहनवाज गांधी, कलीम अहमद उर्फ कलीमुल्ला, रेहान पूठावाला, मोहम्मद रियाज सरेसवाला, अनीज माचिसवाला, मोहम्मद यूनुस सरेसवाला और मोहम्मद सैफुद्दीन को दोषी ठहराया था। हालांकि, इस निर्णय को गुजरात उच्च न्यायालय  ने 2011 में सीबीआई के लचर जांच पड़ताल का हवाला देते हुए पलट दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुये वर्ष  2007 में निचली अदालत के निर्णय को बहाल कर दिया है।  

अब सवाल ये है कि परंतु राणा अय्यूब का इस मामले से क्या संबंध? दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में एक एनजीओ ‘सेन्टर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस’ ने पीआईएल यानि जनहित याचिका दायर की थी जिसमें उन्होंने राणा अय्यूब की विवादित पुस्तक ‘गुजरात फाइल्स’ का हवाला देते हुए इस मामले में भाजपा की भागीदारी की जांच करने की गुहार लगाई थी। ये वही ‘गुजरात फाइल्स’ है, जिसका लेफ्ट लिबरल ब्रिगेड ने 2015 में खूब ज़ोर शोर से प्रचार किया था

इस पुस्तक में राणा अय्यूब ने नरेंद्र मोदी सरकार की गुजरात दंगों में संलिप्तता की ओर इशारा किया है और साथ ही साथ उन्हें हरेन पांड्या हत्याकांड और इशरत जहां और सोहराबुद्दीन शेख जैसे अपराधियों के ‘फर्जी एंकाउंटर’ के लिए भी जिम्मेदार ठहराने का प्रयास किया था। इसी पुस्तक का हवाला देते हुए प्रशांत भूषण जैसे अधिवक्ताओं ने गुजरात दंगों में निष्पक्ष जांच की मांग भी की थी।  

हालांकि, राणा अय्यूब के पुस्तक के सिद्धांतों को सुप्रीम कोर्ट ने साक्ष्य के तौर पर स्वीकारने से साफ मना कर दिया। कोर्ट की पीठ ने अपने निर्णय में कहा है, “राणा अय्यूब की पुस्तक का यहां कोई काम, नहीं है। यह केवल अनुमानों, अटकलों और कल्पना पर आधारित है, जिसका साक्ष्य के तौर पर कोई मूल्य नहीं है। राणा अय्यूब ने जो तर्क अपनी पुस्तक में दिए हैं ये उनके अपने विचार हैं, और किसी के विचार को साक्ष्य के दायरे में नहीं आते।“ सुप्रीम कोर्ट ने राणा अय्यूब की किताब की सटीक समीक्षा की है ऐसा कहना यहां गलत नहीं होगा।

इसके साथ साथ कोर्ट के फैसले में मामले को राजनीतिक रूप से प्रेरित होने की संभावना से भी इनकार  नहीं किया गया है। निर्णय के अनुसार, ‘जिस तरह गोधरा कांड के बाद घटनाएँ घटी हैं, ऐसे आरोप प्रत्यारोप कोई नई बात नहीं है, और निराधार होने के बाद भी इसे बार बार उठाया गया है।“

इतना ही नहीं, कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं पर 50,000 रुपयों का जुर्माना भी लगाया है। इससे सुप्रीम कोर्ट ने न केवल न्यायिक प्रक्रिया में जनता का विश्वास सशक्त करने का प्रयास किया, बल्कि राणा अय्यूब जैसे पत्रकारों को एक कड़ा संदेश भी भेजा है, कि उनके ऐसे प्रपंच हर जगह नहीं चलने वाले।

Exit mobile version