अरुण जेटली : भाजपा के सबसे संयमित व सबसे गलत समझे गए नेता अब हमारे बीच नहीं रहे

अरुण जेटली

PC: indianexpress

पूर्व वित्त मंत्री और भाजपा के दिग्गज नेताओं में से एक अरुण जेटली का कल यानी शनिवार की दोपहर निधन हो गया। वे 66 वर्ष के थे, और पिछले 2 वर्षों से अस्वस्थ चल रहे थे। जिन राजनेताओं को सबसे निष्ठावान भाजपा समर्थकों से भी आलोचना झेलनी पड़ती थी, अरुण जेटली उन्ही में से एक थे। वर्तमान सरकार के सबसे बड़े संकटमोचकों में से एक और भारत के सबसे अहम व्यक्तियों में से एक होने के बावजूद अरुण जेटली की सत्ता के गलियारों में बिताए गए दिनों के कारण उन्हे एक चालाक अवसरवादी समझा जाने लगा। वे पीएम मोदी के प्रशासनिक बदलावों में कितना काम आए, और भारत के पुनरुत्थान में में इनकी कितनी अहम भूमिका रही, इसके बारे में जब तक भाजपा समर्थकों को समझ में आया, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

सितंबर 2017 में जब कैबिनेट मंत्रियों की अदला बदली हुई, तब अरुण जेटली की योग्यता खुलकर सामने आई। मनोहर पर्रिकर को गोवा विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री के तौर पर पुनर्नियुक्त किए जाने के बाद से अरुण जेटली वित्त मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय का दोहरा पदभार खुद ही संभाल रहे थे। इसी समय कैबिनेट की अदलाबदली के दौरान कई कनिष्ठ मंत्रियों की पदोन्नति हुई, जिनमें ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल रेल मंत्री बने, पेट्रोलियम संसाधन मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को कैबिनेट रैंक दी गयी और कौशल विकास मंत्रालय का अतिरिक्त पदभार दिया गया और वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण को स्वतंत्र भारत की पहली पूर्णकालिक महिला रक्षा मंत्री के तौर पर नियुक्त किया गया। हालांकि बहुत कम लोगों को इस बात का ज्ञान होगा कि इन सभी मंत्रियों को अरुण जेटली 2014 से ही सरकार के विभिन्न गतिविधियों और तौर से तरीकों के बारे में प्रशिक्षण देते रहे थे।

कनिष्ठ मंत्रियों को कुशल मंत्रियों में परिवर्तित करने के अलावा अरुण जेटली ने स्वयं को भी एक कुशल मंत्री के तौर पर सिद्ध किया। मोदी सरकार के प्रथम कार्यकाल से ही उन्होंने वित्त मंत्रालय को कुशलतापूर्वक संभाला और कई प्रशासनिक एवं संस्थागत सुधारों के क्रियान्वयन में एक अहम भूमिका निभाई, जिसके कारण 2014 से एक नियमित स्तर पर देश की आर्थिक वृद्धि संभव हो पायी। वित्त मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले विभिन्न एजेंसियों को हर प्रकार की ठगी और वित्तीय घोटालों से निपटने का दायित्व सौंपा गया। अरुण जेटली के लिए सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी बहुप्रतीक्षित जीएसटी से देश का परिचय, जिससे समूचे देश के लिए एकमुश्त कर प्रणाली संभव हो सके।

जीएसटी एक ऐसा विचार था जो बहुत वर्षों से चर्चा में था, पर जिसके क्रियान्वयन के लिए एक वित्तीय अथवा तकनीकी बुद्धि से ज़्यादा एक राजनीतिक बुद्धि की सख्त आवश्यकता थी, जिसकी कमी अरुण जेटली ने पूरी की। लगभग हर राज्य सरकार और हर राजनीतिक पार्टी को वे मंच पर लाये और उनकी सभी मांगों को समझते हुये उन्होंने इस अहम सुधार के क्रियान्वयन के लिए उन्हें राज़ी किया। इसके अलावा उनके कार्यकाल में RERA और IBC  जैसे अन्य संस्थागत सुधारों को भी पारित कराया गया।

अरुण जेटली ने वित्त मंत्रालय के साथ दो बार रक्षा मंत्रालय का भी पदभार संभाला था, जिसमें उन्होंने कई रक्षा संबंधी अधिग्रहण पर अपनी मुहर लगाई, जो यूपीए सरकार में मानो थम सी गयी थी। दूसरे कार्यकाल में बतौर रक्षा मंत्री उनकी छवि में और इजाफा हुआ, क्योंकि इनके कार्यकाल में कश्मीर मुद्दे पर सरकार के रुख में व्यापक बदलाव देखे गए। पहले कश्मीर में घटनाओं से निपटते वक्त सेना के हाथ बंधे हुये रहते थे। परंतुराजनीतिक शिष्टाचारकी बेड़ियों से सेना को मुक्त कराने में अरुण जेटली ने भी एक अहम भूमिका निभाई। सेना को घाटी में अलगाववाद पर घातक प्रहार करने के लिए एक निश्चित समय सीमा दी गयी, और इस समय सीमा में सेना ने इस तरह से आतंकियों को दुम दबाकर भागने पर विवश किया, जिसे पहले कभी देखा गया, सोचा गया था।

जेटली जी के कार्यकाल में ही भारतीय सेना ने डोकलाम में चीनी सेना की गुंडई के सामने भी अडिग खड़ी रही। जब चीन ने भूटान और चीन के बीच इस विवादास्पद क्षेत्र में सड़क के निर्माण का निर्णय लिया, तो इसके विरोध में भारतीय सेना आगे आई और लगभग दो महीनों तक दोनों सेनाओं में से कोई भी टस से मस नहीं हुआ। चीन को लगा कि उसके गीदड़ भभकियों से एक बार फिर सभी डरकर पीछे हट जाएंगे, लेकिन भारत ने डरना तो दूर की बात, उल्टे चीन के नापाक इरादों को सबके सामने उजागर करके रख दिया। जिस तरह से सेना अपने स्थान पर अडिग रही, उसमें भी अरुण जेटली और उनके विश्वसनीय अफसरों की एक अहम भूमिका थी।

राजनीतिक स्तर पर जेटली जी भले ही 2014 में लोकसभा चुनाव हार गए थे, परंतु यहाँ भी उन्होंने भाजपा के उद्धार में एक अहम भूमिका निभाई। नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश से पहले अरुण जेटली भाजपा और उसके सहयोगी दल जदयू में मध्यस्थ की भूमिका निभाते थे। नितीश कुमार अरुण जेटली से बराबर संपर्क में बने रहते थे और जदयू के भाजपा से अनबन होने के बाद भी वे अरुण जेटली से संपर्क में बने हुये थे।

जुलाई 2017 में अचानक आधी रात को राजद से संबंध तोड़कर दोबारा से बिहार सरकार का गठन हुआ, इसमें आज भी कई विद्वानों में मतभेद हो सकता है, परंतु अधिकांश मीडिया रिपोर्ट्स इस बात पर एकमत है कि ये नितीश कुमार और अरुण जेटली के मधुर सम्बन्धों का ही परिणाम था कि नरेंद्र मोदी के सबसे कट्टर विरोधियों में से एक रह चुके नितीश कुमार को एक बार फिर एनडीए में शामिल करा लिया गया।

यहाँ पर भला हम अरविंद केजरीवाल का किस्सा कैसे भूल सकते हैं? अरविंद केजरीवाल जिस हिट एंड रन राजनीति के लिए पूरे भारत में कुख्यात थे, उस पर लगाम लगाने में अरुण जेटली द्वारा दायर किया गया मानहानि का केस एक अहम पड़ाव बना। जिस तरह ये केस आगे बढ़ा, उसने केवल दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री केजरीवाल को बैकफुट पर धकेल दिया, बल्कि एक उदयमान पार्टी की वास्तविक मानसिकता को सबके समक्ष उजागर करके छोड़ दिया। कभी भाजपा और काँग्रेस के बाद राष्ट्रीय विकल्प समझी जाने वाली आम आदमी पार्टी आज अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जद्दोजहद कर रही है। इस बात से केजरीवाल जैसे नेताओं को एक सीख अवश्य मिली होगी : भारतीय राजनीति में यदि टिकना है, तो किसी और से भिड़ लो, परंतु अरुण जेटली से कभी नहीं।

शायद इसी राजनीतिक सूझबूझ और सही कार्य को सही जगह लागू करने के कारण पीएम मोदी ने अरुण जेटली को अपने वित्त मंत्री के तौर पर चुना था। जेटली का रक्षा मंत्रालय रिक्त पड़ने पर पदभार इसी बात का सूचक है कि पीएम मोदी का उन पर कितना अटूट विश्वास था। ऐसा हर दिन नहीं होता कि आपको एक ऐसे व्यक्ति से मिलने का सौभाग्य हो जो हर अहम प्रस्तावों को पारित करा सके, जो विश्व स्तरीय प्रशासक तैयार कर सके और जो देश के प्रशासन के हर अहम मुद्दे को बिना किसी परेशानी के आसानी से सुलझा सके।

जेटली जी, आप बहुत याद आओगे! शांति!

Exit mobile version