भारत के सभी नागरिक, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अयोध्या के मुद्दे में भागीदार हैं, उन्हें 17 नवंबर 2019 की तिथि अपने कलेंडर्स पर चिन्हीत कर लेना चाहिए, क्योंकि यह दिन अयोध्या मामले से जुड़े सभी मुद्दों के निपटारे के लिए अघोषित तारीख होगी। 8 मार्च को कोर्ट द्वारा लिया गया मध्यस्थता का फैसला अब निर्थकक साबित हो चुका है, क्योंकि मध्यस्थता के लिए गठित पैनल अब तक एक भी उचित निष्कर्ष तक पहुँचने में असफल रहा है। अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि कि 6 अगस्त 2019 से देश के उच्चतम न्यायालय में अयोध्या मामले पर प्रतिदिन सुनवाई होगी।
ज्ञात हो कि 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पीठ ने अपने निर्णय में अयोध्या के 2.77 एकड़ के परिसर में फैली राम जन्मभूमि – बाबरी मस्जिद से संबन्धित भूमि को तीनों पक्ष यानि राम जन्मभूमि न्यास, निर्मोही अखाड़ा एवं सुन्नी वक्फ बोर्ड में बराबर बांटने का निर्देश जारी किया था। हालांकि यह निर्णय तीनों पक्षों को नहीं जंचा, और इसके खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगा दी थी, लेकिन इस मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट के अधिकतर न्यायाधीश इस मुद्दे से बचते रहे।
यूपीए के कार्यकाल के दौरान अधिकांश राजनेताओं ने मामले को ज़्यादा से ज़्यादा समय तक खींचने का प्रयास किया। वहीं एनडीए की कार्यकाल में इस मामले में एक अहम पड़ाव तब आया जब 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक तीन सदस्यीय पीठ का गठन किया, जिसे 1994 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई करेगा। फिर भी इस मामले को लंबा खींचने की कवायद लगातार जारी रही। सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिए मानो यह निर्णय असहनीय था। मूल निर्णय में और विलंब डालने की मंशा से मामले पर हो रही सुनवाई में दिसंबर 2017 को वक्फ बोर्ड के प्रतिनिधि अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कोर्ट से गुहार लगाई कि मामले की सुनवाई 2019 के लोकसभा चुनाव तक स्थगित कर दी जाए लेकिन कोर्ट ने इन दलीलों को ठुकराते हुए सुनवाई जारी रखी। कपिल सिब्बल को अपनी इस दलील के लिए चारों तरफ से आलोचना भी झेलनी पड़ी थी।
याचिककर्ताओं ने तो 1994 में इस्माइल फारूकी मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए एक बड़ी पीठ द्वारा इसकी पुनः समीक्षा की मांग कर दी लेकिन इस बार मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायाधीश अशोक भूषण एवं न्यायाधीश अब्दुल नज़ीर ने इस निर्णय की समीक्षा करने से ही मना कर दिया, और साथ ही साथ ये भी कहा कि इस मामले को किसी बड़ी पीठ के पास भेजने की कोई आवश्यकता नहीं है।
उक्त पीठ ने स्पष्ट कर दिया की 1994 के मामले के अनुसार, मस्जिद इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं है, और नमाज़ कहीं भी की जा सकती है। वैसे भी ये मामला भूमि अधिग्रहण से संबन्धित है और ऐसे में एक धार्मिक स्थल भी आवश्यक अधिग्रहण से नहीं बच सकता।
उक्त फैसला 27 सितंबर 2018 को लिया गया था, जब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को 2 अक्टूबर के दिन सेवानिर्वृत्त होना था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा की अयोध्या भूमि विवाद से संबन्धित सिविल मुकदमे को तीन न्यायाधीशों की एक नई पीठ 29 अक्टूबर 2018 से सुनवाई शुरू करेगी। इस प्रकार से मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपनी तरफ से मामले के त्वरित निस्तारण की राह थोड़ी आसान बना दी थी।
8 मार्च 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर मध्यस्थता के लिए शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश एफएमआई कलिफुल्ला की अध्यक्षता में एक पैनल का गठन किया। इस पैनल में पूर्व वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पांचू और योग गुरु श्री श्री रविशंकर भी शामिल थे। हालांकि इस बात की कम ही आशा थी कि मध्यस्थता से कोई समाधान निकलकर सामने आएगा, लेकिन मामले में पारदर्शिता और निष्पक्षता बनाए रखने के लिए मध्यस्थता की प्रक्रिया को स्वीकृती दे दी गई।
हालांकि मध्यस्थता के असफल होने के संकेत तभी से मिलना प्रारंभ हो गया था, जब 9 मई को सुप्रीम कोर्ट को इस पैनल ने एक अन्तरिम रिपोर्ट पेश की थी। इसके पश्चात सुप्रीम कोर्ट ने मध्यस्थता की समय सीमा 15 अगस्त तक तय कर दी थी। हालांकि 1 अगस्त को ही पैनल ने अपनी रिपोर्ट में किसी निष्कर्ष पर न आ पाने में अपनी असमर्थता जता दी थी।
इसीलिए 155 दिनों की देरी के बाद अब सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय लिया है कि 6 अगस्त से प्रतिदिन इस मामले पर सुनवाई होगी। एक पाँच सदस्यीय संवैधानिक पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के अलावा न्यायमूर्ति एसए बोबड़े, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण, एवं न्यायमूर्ति एसए नज़ीर इस सुनवाई की अध्यक्षता करेंगे।
अब अयोध्या विवाद में 9 वर्षों के विलंब के बाद [सुन्नी वक्फ बोर्ड के खिलाफ तमाम साक्ष्य होने के बाद भी] कार्यवाही सही दिशा में जाती दिखाई दे रही है। इस मामले में पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के कार्यकाल में कुछ हद तक सही फैसले लिए हैं और अब मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने भी इस मामले में प्रतिदिन सुनवाई का फैसला सुनाया है। ऐसे में कयास लगाये जा रहे हैं कि रंजन गोगोई के कार्यकाल में अयोध्या विवाद जरुर सुलझने वाला है. चूंकि 17 नवंबर को रंजन गोगोई का चीफ जस्टिस के तौर पर कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है तो वो जरूर ही इस मामले को अपनी अध्यक्षता में सुलझाने का प्रयास करेंगे. अगर ऐसा होता है तो ये रामभक्तों के लिए ख़ुशी की खबर होगी जो वर्षों से इस विवाद के खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं.