‘कैसे भी कश्मीरी पंडितों का नरसंहार करने वालों को बचाओ’ गुलाम नबी आज़ाद और पचौरी का आजकल यही एजेंडा है

कश्मीरी पंकज पचौरी घाटी

कश्मीर घाटी में सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने के लिए केंद्र सरकार ने अब तक करीब 38000 अतिरिक्त अर्धसैनिक बलों के जवानों की तैनाती की है। इसी बीच भारतीय सेना के जवानों ने अमरनाथ यात्रा के मार्ग में पाकिस्तान से बनी बारूदी सुरंग और भारी मात्रा में हथियार बरामद किए थे। इस घटना के बाद पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को अमरनाथ गुफा की ओर जाने रोका गया और वापस लौटने का आग्रह किया गया। इस हालात में जहां सेना व प्रशासन भारतीय हितों की रक्षा करने में लगे हुए हैं वहीं कई पत्रकार व राजनेता अलगाववादी प्रोपगैंडा फैलाने में लगे हुए हैं। यहीं नहीं अमरनाथ यात्रियों के घाटी से लौटने की तुलना 1990 के कश्मीरी पंडितों के पलायन से करना शुरू कर दिए हैं।

एनडीटीवी के पूर्व पत्रकार और गो न्यूज़ के संस्थापक पंकज पचौरी ने हाल ही में ट्वीट किया – “भारत ने काफी तरक्की की है, 1991 में तो सरकार कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ने के लिए केवल JKSRTC के बस मुहैया करवाई थी”। बता दें कि पंकज पचौरी ने वर्तमान हालात की तुलना 1990 से की है, जब कश्मीरी पंडितों को उग्रवादियों के कारण घाटी से अपना घर बार सब छोड़ कर जाना पड़ा था। पंकज पचौरी के सुर में सुर मिलाते हुए राज्यसभा में विपक्ष के नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद ने कहा कि अभी जो कुछ भी हो रहा है, ऐसा ही 1990 में हुआ था। एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इनके दिए गए बयान के अनुसार, ‘वीपी सिंह की सरकार को भाजपा ने समर्थन दिया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री पर जगमोहन को मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्लाह की इच्छा के बगैर राज्यपाल बनाने के लिए दबाव डाला था। इसी कारण कश्मीरी पंडितों को जम्मू-कश्मीर से पलायन करना पड़ा था।

गुलाम नबी आजाद ने आगे कहा कि मौजूदा समय में तीस साल बाद इतिहास एक बार फिर अपने आप को दोहरा रहा है। राज्यपाल के प्रशासन ने पर्यटकों और अमरनाथ के दर्शनार्थियों को जम्मू-कश्मीर छोडने का फरमान सुनाया है और साथ ही निकालने के लिए मुफ्त परिवहन की सुविधा भी दी, सरकार ने इस फैसले पर अभी तक कोई बयान नहीं दिया है। कश्मीरी पंडितों के पलायन और अमरनाथ यात्रियों के वापस आने की तुलना करने के बाद गुलाम नबी आजाद की सोशल मीडिया पर चौतरफा आलोचना की जा रही है।

मौजूदा हालात की तुलना 1990 में कश्मीरी पंडितो के पलायन से करके पंकज पचौरी और गुलाम नबी आजाद ने अलगाववादियों की विचारधारा एक तरह से समर्थन किया है। ऐसे अलगाववादी विचारधारा के लोग कश्मीरी पंडितों को सताने में उस वक्त कोई कसर नहीं छोड़े थे। रातों रातों उनके घरों पर कब्जा किया गया और कश्मीरी पंडितों को एकदम असहाय हालात में दर दर भटकने के लिए छोड़ दिया गया था। कश्मीरी पंडितों ने खुद अलगाववादियों के हाथों यातना सहने का विकल्प नहीं चुना था, उन्हें तो अलगाववादियों ने अपना शिकार बनाया था।

पलायन से पहले लगभग 6 लाख कश्मीरी पंडित घाटी में रहते थे, लेकिन अब केवल 2000-3000 कश्मीरी पंडित ही घाटी में बचे हुए हैं। 1998 में वंधामा नरसंहार के अलावा लाखों की संख्या में हत्याओं और बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दिया गया था और घाटी में स्थित कई मंदिरों को क्षत विक्षत भी कर दिया गया था। कश्मीरी पंडित रातों रात बेघर हो गए थे और अपने ही देश में शरणार्थी बनने पर मजबूर हुए थे। वरिष्ठ पत्रकार आदित्य राज कौल द्वारा शेयर की गयी एक न्यूज़पेपर की क्लिपिंग कश्मीरी पंडितों के साथ हुई बर्बरता की याद दिलाती है।

ऐसे में पंकज पचौरी और गुलाम नबी आजाद का अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाना बेहद शर्मनाक है। इन अलगाववादियों के अनुसार कश्मीरी पंडितों को घाटी से भाजपा ने इसलिए हटवाया था ताकि सेना व प्रशासन को राज्य में बचे मुसलमानों पर कार्रवाई करने में आसानी हो जाए। इस तरह वे कश्मीर में मौजूद उग्रवादियों को पीड़ितों के तौर पर दिखाकर उन्हें अपराधमुक्त दिखाना चाहते हैं।

पिछले 3 दशकों में बरखा दत्त जैसे कई लिबरल पत्रकारों ने अलगाववादी विचारधारा के समर्थन में कई उत्तेजक बयान भी दिए हैं। अब सुरक्षाबलों की अतिरिक्त तैनाती और सुरक्षा एड्वाइज़री पर श्रीनिवासन जैन, राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार उमर अब्दुल्लाह और महबूबा मुफ़्ती जैसे राजनेताओं के साथ मिलकर एक बार फिर से कश्मीरी आवाम को बर्गलाने में लगे हुए हैं। उपरोक्त बयानों से साफ जाहिर होता है कि यदि सरकार की इन नीतियों से किसी को सबसे ज़्यादा डर लग रहा है, तो वे अलगाववादी ही हैं। 

अब पंकज पचौरी और गुलाम नबी आजाद जैसे अवसरवादियों ने इस पूरे मामले को हवा देते हुए कहा है कि मौजूदा हालात 1990 के दशक जैसी दिखाई दे रही है। इस बयान से वे यह जताना चाहते हैं कि पर्यटकों और अमरनाथ यात्रियों को इसलिए राज्य से निकाला जा रहा है कि राज्य में बचे बाकी अलगाववादियों पर त्वरित कार्रवाई हो सके। ये शायद सत्य भी हो, लेकिन इससे इन्हे 1990 के उस भयानक दौर की मौजूदा स्थिति से तुलना नहीं करना चाहिए, जिसके कारण आज भी देश का सिर शर्म से झुक जाता है। कश्मीरी पंडितों के साथ जो कुछ भी हुआ, उसे कुछ व्यक्तियों के निजी प्रोपेगैंडा से कलंकित नहीं किया जा सकता।

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