हीरोगिरी की आड़ में करोड़ों का घोटाला: मलाला की ‘महानता’ की यही सच्चाई है

मलाला युसुफ़ज़ई

(PC: David Donnelly/CBC)

आजकल ऐसा प्रतीत होता है कि मलाला युसुफ़ज़ई की अंतरात्मा को एक बार फिर गहरा धक्का पहुंचा है। हाल ही में अनुच्छेद 370 के हटाये जाने पर चिंता व्यक्त करते हुए मलाला ने अपने ट्विटर अकाउंट से कश्मीरियों पर ट्वीट किया–

इस ट्वीट में  मलाला युसुफ़ज़ई ने कश्मीरियों पर भारतीय सेना और केंद्र सरकार द्वारा किए जा रहे कथित अत्याचारों की ओर विश्व भर का ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास किया, और उनसे कश्मीरियों की सहायता करने के लिए अनुरोध भी किया। हालांकि, मलाला के तर्क सोशल मीडिया यूज़र्स पचा नहीं पाये। इसके बाद यूजर्स ने मलाला को जमकर खरी खोटी सुनाई –

परंतु  मलाला युसुफ़ज़ई आज आलोचना का केंद्र क्यों बनी हुई है? इसका वास्तविक कारण जानने के लिए हमें जाना होगा कुछ साल पीछे, जब मलाला को तालिबानियों के विरुद्ध मोर्चा लेने के कारण गोली मारी गयी थी। ये बात है 2009 की, जब खैबर पख्तूनख्वा के स्वात घाटी में स्थित स्वात जिले में मलाला का परिवार कई स्कूलों का संचालन करता था।

उस समय स्वात घाटी पर तालिबान का वर्चस्व था, जिनके राज में महिलाओं और लड़कियों पर बेहिसाब अत्याचार किए जाते थे। ऐसे में मलाला ने घाटी में अपने जीवन के बारे में बीबीसी उर्दू पर एक ब्लॉग लिखा, जिससे वे पहली बार सुर्खियों में आई। इसके पश्चात न्यूयॉर्क टाइम्स के पत्रकार एडम बी एल्लिक ने उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई। मलाला ने इसके पश्चात पाक मीडिया को लड़कियों की शिक्षा के बारे में इंटरव्यू देना शुरू कर दिया, और इसी वजह से वे तालिबानियों के निशाने पर आ गयी।

9 अक्टूबर 2012 को एक तालिबानी आतंकी ने मलाला के स्कूल बस पर धावा बोला और मलाला पर तीन गोलियां चला दीं, इस हमले में मलाला के माथे के बाएँ हिस्से में गंभीर रूप से चोटें आई थीं। उपचार के दौरान महिला को बर्मिंघम के क्वीन एलिजाबेथ अस्पताल में स्थानांतरित किया गया। तभी से ये यूएन सर्टिफाइड ‘वीरांगना’ यूके में रह रही हैं। इनके पिता के अनुसार मलाला के विश्वविद्यालय की शिक्षा पूरी होने पर वे वापिस जाने के बारे में सोच सकते हैं।

तालिबानियों का ‘बहादुरी से सामना करने’ के कारण मलाला जल्द ही पूरी दुनिया में चर्चा का केंद्र बन गयीं। मलाला को रानी एलिज़ाबेथ द्वितीय, बराक ओबामा जैसे हस्तियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, और फिर मलाला ने ऑक्सफोर्ड यूनियन, हावर्ड विश्वविद्यालय, लंदन का गर्ल समिट एवं यूएस और कनाडा के विभिन्न समारोहों में भाग लेने का अवसर मिला। इनकी ‘वीरता’ को सम्मानित करने के लिए नोबल पुरस्कार कमेटी ने 2014 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया। यह पुरस्कार प्राप्त करने के पश्चात वो विश्व की सबसे युवा नोबल पुरस्कार विजेता बन गयी। फलस्वरूप इनके धनवान पिता ज़ियाउद्दीन ने ‘द मलाला फ़ाउंडेशन’ की स्थापना की, जिसने विभिन्न संस्थाओं से अरबों डॉलर फंडस के नाम पर एकत्रित किया। रिपोर्ट्स के अनुसार पिछले वर्ष लेबनॉन के बीका घाटी में इन्हीं पैसों से सीरियाई प्रवासियों के बच्चों के लिए स्कूल भी खोले गए।

कितनी अच्छी बात है न? परंतु यदि आप ऐसा सोचते हैं, तो आप गलत सोच रहे हैं। मलाला के स्याह पहलू का सबसे पहला आभास अक्टूबर 2013 में ही होना चाहिए था, जब बराक ओबामा से बातचीत के दौरान मलाला युसुफ़ज़ई ने सभी को चौंकाते हुए ओबामा को ड्रोन द्वारा आतंकियों को निष्क्रिय करने की प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने को कहा। इनहोने बताया कि आतंकियों को शिक्षित करने से आतंकवाद की समस्या सुलझाई जा सकती है। इससे बेतुका विचार भला कुछ हो सकता है, खासकर तब जब आप स्वयं इसी आतंकवाद का शिकार बन चुकी हों?

अब या तो मलाला युसुफ़ज़ई को इस बात का ज्ञान नहीं है कि अधिकांश आतंकवादी संगठनों के आका पूर्णतया शिक्षित हैं, या फिर ये जानबूझकर आतंकवाद का मानवीयकरण करने में लगी हुई हैं। यहीं से मलाला की हिपोक्रिसी धीरे धीरे ही सही, परंतु जनता के समक्ष खुलकर सामने आने लगी।

हालांकि, जब कश्मीर के मुद्दे पर इनके विचार पूछे गए, तो इनका दूसरा चेहरा खुलकर सामने आ गया। मलाला के एक बयान के अनुसार, ‘किसी भी हमले के जवाब में प्रतिशोध लेना कभी भी एक उचित कदम नहीं होता। नरेंद्र मोदी और इमरान खान को सभी बातें भूलकर आपस में हाथ मिलाना चाहिए और बातचीत के जरिये कश्मीर से संबन्धित सभी मसले हल करने चाहिए’।

ये बातें मलाला ने उस वक्त कही जब पुलवामा हमले के जवाब में भारतीय वायुसेना ने बालाकोट में स्थित जैश ए मोहम्मद के ठिकानों को ध्वस्त किया था और भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर अभिनंदन पाक सेना की हिरासत में थे जिससे भारत की जनता में आक्रोश था। तो क्या अब भी आपको लगता है कि ‘मलाला की लड़ाई’ आतंकवाद के विरुद्ध है?

ये तो कुछ भी नहीं, मलाला ने अवैध रोहिंग्या उग्रवादियों की प्रशंसा करते करते इतनी आगे बढ़ गयी कि इनहोने म्यांमार की अग्रणी नेता और अवैध रोहिंग्याओं पर कार्रवाई की पक्षधर औंग सान सू की को खरी खोटी सुना दी। ज्ञात हो की औंग सान सू की स्वयं नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित हैं, और उन्होंने हाल ही में म्यांमार में रोहिंग्या घुसपैठियों द्वारा फैलाये गए आतंकवाद को नियंत्रण में करने में एक अहम भूमिका निभाई थी।

इसके अलावा मलाला ने आईसीसी विश्व कप के उदघाटन समारोह के दौरान भारत का भद्दा मज़ाक उड़ाने से पहले ये अपील की कि वे पाकिस्तान में क्रिकेट टूर्नामेंट बहाल कराये। अपने इस बयान के जरिये वो ये बताने की कोशिश कर रही थीं कि क्रिकेट के लिए पाक काफी सुरक्षित है और वहां का माहौल भी इस खेल के लिए अनुकूल है । ये अलग बात है कि मलाला स्वयं अभी तक अपने मुल्क लौटने से कतराती रही हैं। अब इसे हिप्पोक्रेसी की पराकाष्ठा न कहें, तो क्या कहें?

मलाला युसुफ़ज़ई के पिता ज़ियाउद्दीन युसुफ़ज़ई ने हाल ही में डोनाल्ड ट्रंप की तुलना आईएसआईएस और तालिबान से कर दी, परंतु सीरिया और इराक में गैर मुस्लिम महिलाओं एवं यज़ीदी लड़कियों पर आईएसआईएस द्वारा किए जा रहे अत्याचारों पर एक शब्द तक नहीं कहा। स्वयं मलाला यज़ीदी लड़कियों पर होने वाले अत्याचारों पर मौन साधे रहीं। इसके अलावा जब पाकिस्तान के सिंध प्रांत में दो हिन्दू लड़कियों को अगवा कर जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया, तब मलाला न केवल मौन रही, अपितु कुछ यूज़र्स द्वारा इस मामले पर अपने विचार व्यक्त करने के निवेदन पर उनके अकाउंट को ही ब्लॉक कर दिया। अब बलूचिस्तान और गिलगित-बाल्टिस्तान पर इनके ‘’विशेष व्यवहार’ के बारे में हम कुछ न ही कहे तो अच्छा है।

यदि मलाला वास्तव में बातचीत के जरिये आतंकवाद की जटिल समस्या का समाधान चाहती हैं, तो उन्हें तालिबान के साथ प्रत्यक्ष रूप से बातचीत करनी चाहिए। पर तालिबान की बंदूक का सामना करने का साहस बहुत ही कम लोगों में होता है, और ये काम यूके में रहकर उपदेश देने भर से पूरा नहीं होगा।

पाकिस्तान की अव्वल महिला खिलाड़ी मारिया तूरपकाई वज़ीर के अनुसार पाकिस्तानी लड़कियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। स्कूल जाना तो दूर की बात, उन्हीं कुछ इलाकों में घर से बाहर भी नहीं निकलने दिया जाता। तो अगर मलाला युसुफ़ज़ई को वाकई लड़कियों की स्थिति सुधारनी है, तो उन्हें इसकी शुरुआत अपने ही वतन से करनी चाहिए। परंतु इनके वर्तमान विचारों को देखते हुए तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता। ऐसे में अब ये पूछना तो बनता है की हिपोक्रिसी का नोबल प्राइज़ मलाला को मिलना चाहिए की नहीं मिलना चाहिए?

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