बाटला हाउस और मिशन मंगल की फिल्म समीक्षा, जानें कौन पड़ा किस पर भारी

बाटला हाउस मिशन मंगल

PC: Amar Ujala

कल यानी गुरूवार को स्वतन्त्रता दिवस एवं रक्षा बंधन के शुभ अवसर पर दो फिल्में रिलीज हुए एक ‘मिशन मंगल’ और दूसरा ‘बाटला हाउस’। जहां मिशन मंगल भारत के मंगलयान के सफल प्रक्षेपण पर आधारित है, तो वहीं ‘ बाटला हाउस ’ 2008 में हुए दिल्ली धमाकों के बाद जामिया नगर के बाटला हाउस क्षेत्र में हुये पुलिस एनकाउंटर पर आधारित है।

तो सबसे पहले बात करते हैं मिशन मंगल की। इसे निर्देशित किया है आर बाल्की के सहायक निर्देशक जगन शक्ति ने, और इसकी पटकथा लिखी है स्वयं आर बाल्की ने। मुख्य भूमिका में है अक्षय कुमार और विद्या बालन, और इनका साथ दिया है शरमन जोशी, सोनाक्षी सिन्हा, कीर्ति कुल्हारी, नित्या मेनन, विक्रम गोखले, दिलीप ताहिल, एचजी दत्तात्रेय जैसे दिग्गज कलाकारों ने।

इस फिल्म की कहानी उसी मंगलयान मिशन पर आधारित है, जिसे इसरो ने सफलतापूर्वक 2014 में पूरा किया था। यह मिशन भारत के लिए केवल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण था, क्योंकि भारत ने यह कारनामा अपने पहले ही प्रयास में पूरा कर लिया, बल्कि इसलिए भी क्योंकि ये मंगल ग्रह पर भेजा गया अब तक का सबसे किफ़ायती मिशन भी रहा है। राकेश धवन नामक एक वैज्ञानिक अपने सहायक वैज्ञानिक तारा शिंदे और पाँच अन्य जूनियर वैज्ञानिकों के साथ कैसे अपने मिशन को सफल बनाता है, ये फिल्म उसी कहानी पर आधारित है।

सबसे पहले तो इस फिल्म के लेखक और निर्देशक को बधाई व धन्यवाद, जिन्होनें ऐसे महत्वपूर्ण मिशन को पर्दे पर उतारने का बेड़ा उठाया। हालांकि पर्दे पर एक कहानी को सामने लाना अलग बात है, और उसे जीवंत बनाना दूसरी बात। दुर्भाग्यवश यहीं मिशन मंगल से चूक हो गयी। यहाँ मिशन पर कम, और वैज्ञानिकों के निजी जीवन पर थोड़ा ज़्यादा फोकस किया गया, जो ऐसे मूवी के लिए बिल्कुल सही नहीं था।

फिल्म में कई जगह तो गानें मानो ज़बरदस्ती ठूँसे गए थे। अभिनय में मुख्य कलाकारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन नित्या मेनन और कीर्ति कुल्हारी के किरदार को इस फिल्म में पूरा स्पेस नहीं दिया गया और दिलीप ताहिल के अभिनय के लिए तो मैं एक ही बात कहूँगा – [Insert Meme] यही नहीं, कुछ जगह कुछ वैज्ञानिक सिद्धांतों को इतना simplify किया गया है कि आपको परमाणु जैसी सिम्पल फिल्म भी ज़्यादा sophisticated लगेगी।

कुल मिलाकर मिशन मंगल आपको बोर नहीं करेगी, लेकिन इस फिल्म ने मंगलयान के ऐतिहासिक मिशन के साथ पूरी तरह न्याय नहीं किया है। यदि इस फिल्म की लेखनी थोड़ी और मजबूत होती तो ज़्यादा मज़ा आता।

अब आते हैं दूसरी फिल्म बाटला हाउस पर। जिसे निर्देशित किया निखिल अडवानी ने, और इसकी पटकथा लिखी है रितेश शाह ने। मुख्य भूमिका में हैं जॉन अब्राहम और उनका साथ दिया है रवि किशन, मृणाल ठाकुर, मनीष चौधरी, राजेश शर्मा, नोरा फतेही जैसे दिग्गज कलाकारों ने।

ये फिल्म 2008 के दिल्ली में सीरियल धमाकों के बाद 19 सितंबर 2008 को जामिया नगर के बाटला हाउस क्षेत्र के एल 18 अपार्टमेंट में हुए एनकाउंटर और उसके बाद उपजे विवाद पर आधारित एक काल्पनिक कथा है, जहां इंस्पेक्टर केके वर्मा [अमर हुतात्मा इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा पर आधारित] के बलिदान के बाद मीडिया और राजनेताओं का एक विशेष वर्ग पुलिस का सहयोग करने के बजाए उल्टा उन्ही पर सवाल उठाने लगती है, और इस एनकाउंटर को फर्जी सिद्ध करने का हरसंभव प्रयास किया जाता है।

कैसे इस घटना में शामिल एसीपी संजय कुमार [स्पेशल सेल के डीसीपी संजीव कुमार यादव पर आधारित] स्पेशल सेल को निर्दोष सिद्ध कराते हैं, और कैसे वे मीडिया द्वारा थोपे गए ‘अपराध बोध’ से बाहर आते हैं, ये फिल्म उसी कहानी को बयां करती है। पूरी फिल्म एसीपी संजय कुमार पर आधारित है।

सबसे पहले तो मैं इस फिल्म के निर्देशक निखिल अडवानी को बधाई देता हूँ, जिन्होने इस फिल्म में सभी तथ्यों को बिना लाग लपेट के दिखाया। हालांकि फिल्म के पहले का डिस्क्लेमर थोड़ा अटपटा था, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय के अनुसार उचित भी था। यूं तो बॉलीवुड फिल्मों में स्यूडो सेक्यूलरिज़्म के नाम पर हिंदुओं का अपमान करने का कोई कसर नहीं छोड़ती, लेकिन यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

इस फिल्म में न केवल ऐसे कथित सेक्यूलर पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के नीयत पर सवाल उठाए गए, बल्कि आतंकियों को तत्कालीन काँग्रेस सरकार द्वारा जो अप्रत्यक्ष संरक्षण प्राप्त था, उसे भी बखूबी दिखाया गया है। रितेश शाह ने जिस तरह से पटकथा लिखी है, वो दर्शकों को पूरे फिल्म के दौरान कुर्सी न छोड़ने के लिए मजबूर कर देती है। ‘डी डे’ के बाद ‘बाटला हाउस’ नि:संदेह निखिल अडवानी की बेहतरीन फिल्म है।

निखिल अडवानी और रितेश शाह के अलावा यदि कोई बधाई का पात्र है, तो वे हैं जॉन अब्राहम। परमाणु के बाद एक बार फिर एक शानदार प्रोजेक्ट चुनकर उन्होनें सिद्ध कर दिया है कि यदि स्क्रिप्ट दमदार हो और इरादे नेक, तो कुछ भी हो सकता है। एसीपी संजय कुमार के तौर पर उन्होंने अपने अभिनय का बेजोड़ नमूना सबके सामने पेश किया है। संजय की पत्नी एवं पत्रकार नन्दिता कुमार के रूप में मृणाल ठाकुर ने भी पारंपरिक रोल से ऊपर उठकर अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। मनीष चौधरी और रवि किशन भी अपनी भूमिका में पूरी तरह जँचे हैं, हालांकि मेरा मत है कि रवि किशन का किरदार थोड़ा और ज्यादा होना चाहिए था।

हालांकि इस फिल्म में कुछ कमियाँ भी थीं, जिसके कारण ‘बाटला हाउस’ इस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनते-बनते रह गयी। फिल्म का समय कुछ लोगों को परेशान कर सकता है। भले ही नोरा फतेही ने सभी को चौंकाते हुये अपनी प्रतिभा से लोगों का ध्यान खींचा, लेकिन उन पर फिल्माया गया आइटम सॉन्ग इस फिल्म में वैसा ही लगा, जैसे कबाब में हड्डी। यदि इन दो कमियों को हटा दें, तो बाटला हाउस एक ऐसी फिल्म है, जिसने स्यूडो सेक्यूलर वर्ग की नीयत पर कुछ गंभीर प्रश्न किए हैं।

टीएफआई पोस्ट मिशन मंगल को पाँच में से 3 स्टार और बाटला हाउस 5 में से 4 स्टार देता है।

 

Exit mobile version