समय आ गया है पंचशील समझौते को डस्टबीन में फेंकने का

PC: Huffingtonpost

अक्टूबर 1954 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू जब चीन के दौरे पर गए थे, तो उस वक्त भारत और चीन के राष्ट्राध्यक्षों की मुलाक़ात ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। उस वक्त दुनिया के दो सबसे बड़ी आबादी वाले देशों के प्रमुख मिलने वाले थे और सबको उम्मीद थी कि दोनों देश आपसी फायदे के लिए अपने कूटनीतिक रिश्तों को आगे बढ़ाएंगे। ठीक उसी वक्त नेहरू ने चीन के साथ अपने मधुर संबंध स्थापित करने के लिए पंचशील समझौता किया था। इस समझौते की प्रस्तावना में पाँच सिद्धांत थे। पहला सिद्धान्त था एक दूसरे की अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करना, दूसरा सिद्धान्त था परस्पर अनाक्रमण, तीसरा था एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना, चौथा था समान और परस्पर लाभकारी संबंध, और पांचवा सिद्धान्त था शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व!

सबको उम्मीद थी कि दोनों देश यहां से अपने रिश्तों को नया आयाम देंगे, लेकिन इसके कुछ वर्षों के बाद ही चीन ने भारत से विश्वासघात किया और 1962 में हमें भारत-चीन युद्ध देखने को मिला, जिसमें भारत को हार का सामना करना पड़ा। हालांकि, उसके बाद भी कांग्रेस के नेतृत्व वाले भारत ने कभी चीन को उसकी जगह दिखाने की कोशिश नहीं की और पंचशील समझौते के सिद्धांतों को बरकरार रखा। चीन और भारत के द्विपक्षीय सम्बन्धों की गंभीरता को ना तो कभी चीन ने समझा और ना ही भारत ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन अब लगता है चीन को उसी की भाषा में समझाने की जरूरत है।

जम्मू-कश्मीर से विशेष अधिकार छीनने और राज्य को दो हिस्सों में बांटने के फैसले पर जहां भारत को पूरी दुनिया से समर्थन मिल रहा है, तो वहीं चीन ने इस बार भी खुलकर पाकिस्तान का समर्थन किया। चीन अपनी मजबूरीयों के मद्देनजर अगर भारत का समर्थन नहीं कर सकता था, तो वह इस पूरे मामले पर खामोश भी रह सकता था, लेकिन अपने पाक-प्रेम के चलते वह इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद में ले गया और इस पर एक अनौपचारिक बैठक तक कर डाली।

इस पूरे मामले को देखकर ऐसा लगता है मानो चीन और भारत के द्विपक्षीय रिश्तों को आगे बढ़ाने का ठेका सिर्फ भारत ने ले रखा हो। चीन इससे पहले 4 बार भारत द्वारा मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करवाने की राह में रोड़ा अटकाने का काम कर चुका था, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के बीच से अवैध ढंग से चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरीडोर का निर्माण करना हो या FATF की बैठकों में भारत के हितों के खिलाफ पाकिस्तान का समर्थन करना हो, चीन ने हर बार पाकिस्तान के हितों को ही प्राथमिकता दी है, लेकिन अब भारत को चीन को भी यह समझाने की जरूरत है कि यह अब नहीं चलने वाला है।

चीन बड़ी ही बेशर्मी से कश्मीर को भारत का आंतरिक मामला मानने से मना करता रहा है, जबकि ठीक दूसरी तरफ हाँग काँग में हो रहे लोकतन्त्र के समर्थकों के प्रदर्शनों को चीन अपना आंतरिक मामला मानता है। पिछले 10 हफ्ते से चल रहे प्रदर्शनों ने इस अंतरराष्ट्रीय आर्थिक केंद्र को संकट में डाल दिया है क्योंकि चीन के वामपंथी शासन ने इन प्रदर्शनों के प्रति कड़ा रुख अपना रखा है। चीन ने हिंसक प्रदर्शनकारियों के कदमों को “आतंकी” करार दिया है। वहीं दूसरी तरफ, प्रदर्शनकारी बड़ी रैलियां करने की योजना बना रहे हैं। ये लोग अपने यहां पूर्ण लोकतन्त्र की स्थापना की वकालत कर रहे हैं, और भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र होने के नाते भारत को अब हाँग-काँग के प्रदर्शनकारियों के समर्थन में आवाज़ उठाने की ज़रूरत है।

इसी तरह ताइवान के मामले पर भी भारत हमेशा से ही चीन के सुर में सुर मिलाता आया है। पिछले वर्ष तक जब एअर इंडिया की वेबसाइट पर ताइवान को स्वतंत्र देश के रूप में दिखाया जा रहा था, तो इस पर चीन ने अपनी आपत्ति जताई थी और उसने इस पर विरोध भी जताया था। इसके बाद एअर इंडिया ने चीन की इच्छानुसार ‘ताइवान’ की जगह ‘चीनी ताइपे’ कर दिया। लेकिन अब लगता है कि भारत को अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। इसके अलावा भारत को ताइवान को एक देश के तौर पर भी मान्यता देने पर विचार करना चाहिए ताकि चीन पर दबाव बनाया जा सके।

चीन को भारत में तिब्बत समर्थक लोगों की गतिविधियों पर भी आपत्ति होती है। यहां तक कि भारत भी चीन के दबाव में ऐसी गतिविधियों को नई दिल्ली से बाहर करवाने पर मजबूर हो चुका है, लेकिन अब भारत द्वारा ऐसे लोगों को मंच प्रदान करने का समय आ गया है। इससे पहले चीन के विदेश मंत्री वांग यी भी भारत को दक्षिण चीन सागर विवाद में नहीं पडऩे की अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी दे चुके हैं, लेकिन अब भारत को इस मामले पर भी अपना हस्तक्षेप करने की ज़रूरत है।

अनुच्छेद 370 पर भारत के हितों के खिलाफ जाकर चीन ने एक बार फिर भारत की पीठ पर छुरा घोंपने का काम किया है। भारत को अब चीन नीति में बदलाव करने की ज़रूरत है और अब मोदी सरकार को चीन को सबक सिखाना ही चाहिए। भारत एक बड़ी आर्थिक शक्ति होने के साथ-साथ एक बड़ा बाज़ार भी है, ऐसे में चीन किसी भी सूरत में भारत की नाराजगी को सह नहीं पाएगा और उसे खुद ही भारत के सामने घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ेगा। वैसे भी आजकल चीन पहले ही ट्रम्प प्रशासन की नीतियों के कारण भारी दबाव में है और अगर भारत की ओर से भी चीन पर ऐसा ही दबाव बनाया जाता है, तो चीन ज़्यादा दिनों तक अपना पाक-प्रेम नहीं दिखा पाएगा, और उसके बाद दुनिया में अलग-थलग पड़ चुके पाकिस्तान के लिए यह और बड़ा झटका सिद्ध होगा।

हालांकि, इसके लिए भारत को पंचशील समझौते को दरकिनार रख अपनी नई चीन नीति बनाकर उसका अनुसरण करने की ज़रूरत है। इस समझौते को चीन दशकों पहले ही कूड़ेदान में फेंक चुका है और भारत को भी अब ऐसा ही करने की ज़रूरत है।

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