आज़ादी के 72 वर्षों बाद भी एंग्लो इंडियन्स को मनोनीत किया जाना कितना सही?

एंग्लो इंडियन

(PC: indiatimes)

भारत विविधताओं का देश है तथा यहाँ सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त है। हमारा संविधान इन सभी अधिकारों की रक्षा करता है। परंतु एक समुदाय ऐसा है जिस पर संविधान की तरफ से विशेष कृपा छूट मिली है और वो हैं एंग्लो इंडियन। इस समुदाय के प्रतिनिधि भारतीय संसद में जनता द्वारा चुन कर नहीं राष्ट्रपति द्वारा नामित होने के बाद जाते हैं यानि इस समुदाय के लोग बिना चुनाव लड़े ही लोकसभा व कई राज्यों के विधानसभा के लिए मनोनीत किए जाते हैं। इसके लिए संविधान में अनुच्छेद 331 के तहत राष्ट्रपति को लोकसभा में एंग्लो इंडियन समुदाय के दो सदस्य नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त है। इसके अलावा 14 राज्यों के विधानसभा में भी एक-एक सीट आरक्षित है। विधान सभा में अनुच्छेद 333 के तहत राज्यपाल को यह अधिकार प्राप्त है कि (यदि विधानसभा में कोई एंग्लो इंडियन चुनाव नहीं जीता है) वह 1 एंग्लो इंडियन को सदन में चुनकर भेज सकता है। इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के विधान सभाओं में एक नामित सदस्य होते हैं।

लेकिन सवाल यह है कि क्या आज़ादी के 72 वर्ष बाद इस तरह से किसी खास समुदाय का मनोनीत किया जाना कितना उचित है? क्या आज के समय में यह प्रासंगिक है? भारत में और भी कई प्रकार के आरक्षण पहले से प्रदान किए गए हैं लेकिन किसी भी समुदाय को सीधे लोकसभा या विधान सभा में बिना चुनाव के पहुंचने का अधिकार नहीं दिया गया है।

संविधान के अनुच्छेद 366 (2) के तहत एंग्लो इंडियन ऐसे किसी व्यक्ति को माना जाता है जो भारत में रहता हो और जिसका पिता या कोई पुरुष पूर्वज यूरोपियन वंश के हों। एंग्लो इंडियन्स भारत का अकेला समुदाय है जिनका अपना प्रतिनिधि लोकसभा और राज्यों की विधानसभा चुनाव में बिना उतरे ही नामित होता है। एंग्लो इंडियन उन अंग्रेजों की ओर संकेत करता है जो भारत में बस गए हैं या व्यवसाय अथवा पदाधिकार से यहाँ प्रवास करते हैं।

आजादी के बाद जब संविधान बनाया जा रहा था तो इस वर्ग के चर्चित नेता फ्रैंक एंथोनी ने जवाहरलाल नेहरु से संसद में एंग्लो इंडियन के लिए सीट आरक्षित किए जाने की मांग की थी। उनकी दलील यह थी कि इस वर्ग के ज्यादातर लोग विदेश जा चुके हैं। उस समय उनकी कुल संख्या करीब पांच लाख थी जो कि देश भर में फैले थे। इसलिए उनका संसद तक पहुंच पाना असंभव था। नेहरु ने इस समुदाय के लिए लोकसभा में दो सीटों के मनोनयन की व्यवस्था कर दी थी इसके बाद ऑल इंडिया एंग्लो इंडियन समुदाय के अध्यक्ष फ्रैंक एंथोनी मरने तक मनोनीत होते रहे। इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल के अनुसार, बिहार के पूर्वी क्षेत्रों की पहाड़ियों में एंग्लो-इंडियन के लिए एक अलग मातृभूमि बनाने का विचार खारिज कर दिया गया था। आज इनकी संख्या कितनी है यह कहना मुश्किल है क्योंकि उन्हें भारतीय जनगणना में अलग से नहीं गिना जाता है।

हालांकि शुरू में मनोनीत करने का प्रावधान 1960 तक के लिए किया गया था। कई बार एंग्लो इंडियन समुदाय को मनोनीत करने के प्रावधान को संविधान संशोधन कर बढ़ाया गया है। आखिरी बार वर्ष 2009 में 95वें संविधान संशोधन में अनुच्छेद 334 में संशोधन कर 26 जनवरी 2020 तक मनोनीत किए जाने के प्रावधान बढ़ा दिया गया है।

आज़ादी को 72 वर्ष हो चुके हैं और सभी भारतीय एंग्लो इंडियन के सदस्य को मनोनीत करने का प्रावधान अभी भी चला आ रहा है लेकिन अब इसकी जरूरत ही नहीं है। भारत में कई प्रकार के माइनॉरिटी या अल्पसंख्यक निवास करते हैं और उन्हें प्रत्येक भारतीय की तरह ही अधिकार प्राप्त है और न कि लोकसभा या विधानसभा में सीधे मनोनीत किया जाता है। एंग्लो इंडियन को आरक्षण से भी ऊपर मनोनीत होने का अधिकर दिया गया और इसका एक ही कारण दिया गया कि भौगोलिक स्तर पर उनका निर्वाचन क्षेत्र नहीं है। भारत में कई ऐसे समुदाय निवास करते है जिनका अपना निर्वाचन क्षेत्र नहीं है लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक समुदाय के सभी अधिकार और आरक्षण प्राप्त है। 72 वर्षों से बिना चुनाव के ही यह समुदाय लोकसभा और विधान सभा में मनोनीत होता रहा है जिसका दुरुपयोग भी पार्टियां करती रही है।

इसके अलावा संविधान का अनुच्छेद 366(2) जोकि एंग्लो इंडियन को परिभाषित करता है पूरी तरह से महिला विरोधी है। इस अनुच्छेद के अनुसार एंग्लो इंडियन ऐसे किसी व्यक्ति को माना जाता है जो भारत में रहता हो और जिसका पिता या कोई पुरुष पूर्वज यूरोपियन वंश के हों। इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि यह अनुच्छेद सिर्फ पुरुष वंशज की ही बात करता है।

हालांकि मनोनीत होने के बाद भी एंग्लो इंडियन के सदस्यों पर अपने समुदाय के लिए कुछ नहीं करने का आरोप लगता रहा है। आज़ादी के 72 वर्ष बाद सभी एंग्लो इंडियन परिवारों की दूसरी व तीसरी पीढ़ी अब पूरी तरह से भारत में स्थापित हो चुकी है तथा इन्हें भारत के अन्य नागरिकों के बराबर संविधान द्वारा अधिकार प्राप्त है। आज के दौर में इस समुदाय की संख्या बहुत ही कम हो चुकी है और अधिकतर लोग विदेश में जाकर बस चुके हैं या तो भारत की शेष आबादी में पूरी तरह से घुल मिल चुके हैं। ऐसे ही अब जब 2020 में इसके आरक्षण संशोधन का आखिरी वर्ष है तो मोदी सरकार को इस अनुच्छेद में संशोधन कर इसे हटा देना चाहिए। इसे हटाने के लिए किसी विशेष परिस्थिति की भी आवश्यकता नहीं है। अगर सरकार चाहे तो आने वाले वर्ष में अनुच्छेद 334 पर किसी भी प्रकार का संज्ञान न लेकर इसे अप्रभावी बना सकते हैं यानि यह संविधान में रहेगा लेकिन यह उपयोग में नहीं लिया जाएगा। उदाहरण के तौर पर अनुच्छेद 336 और 337 संविधान में है लेकिन उसका अब कोई महत्व नहीं रह गया है। समय के साथ इस समुदाय ने काफी प्रगति कर ली है और अब इस छूट को ज्यादा दिन तक रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब समय आ गया है कि मोदी सरकार इस अनुच्छेद को संविधान से हटाए या अप्रभावी कर दे।

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