बुद्धदेव भट्टाचार्य : करोड़ों बंगालियों के सपनों को मारने वाला वामपंथी नेता

बुद्धदेव भट्टाचार्य

(PC: Hindustan Times)

पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की तबीयत खराब होने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है। फिलहाल उन्हें डॉक्टरों की कड़ी निगरानी में रखा गया है। 75 वर्षीय वयोवृद्ध वामपंथी नेता को कई वर्षों से सांस लेने में तकलीफ रही है। वर्ष 1977 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में पहली बार विधायक चुने गए थे। इसके बाद उन्होंने सीपीआई (एम) से वर्ष 2000 से 2011 तक मुख्यमंत्री का पद संभाला था। अपने पूरे राजनीतिक करियर में उन्होंने कई मंत्रालयों में अपनी सेवाएं दीं।

बुद्धदेव भट्टाचार्य को अक्सर उस व्यक्ति के रूप में जाना जाता है जो 2011 में ममता बनर्जी से पराजित हो गए थे, और जिनके हार के कारण बंगाल में कम्यूनिस्ट शासन का अंत हो गया। आइये एक बार उनकी विरासत पर एक नज़र डालते हैं।

बुद्धदेव भट्टाचार्य इसलिए हार गए थे क्योंकि भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद साम्यवाद अतार्किक हो चुका था। यूं तो कहा जाता है कि बुद्धदेव भट्टाचार्य उदारीकरण के पक्ष में थे, पर बंगाल में उसे कभी ढंग से क्रियान्वित नहीं कर सके। साम्यवाद के उसूलों को ताक पर रख कर खुलेआम राज्य के किसानों की जमीन बलपूर्वक छीन-छीन कर धन्नासेठ अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कंपनियों के हवाले कर रहे थे। जनता अपनी जमीन देना नहीं चाहती थी इसके बावजूद उन्होंने जबरन किया। इसका उदाहरण है पश्चिम बंगाल का सिंगूर और नंदीग्राम का आंदोलन। जिसके बाद उनका राजनीतिक पतन हो गया।

राज्य की जनता ने उदारीकरण के कारण महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों की चहुमुखी विकास को देखा, जिसके कारण उनमें कम्यूनिस्ट शासन को उखाड़ फेंकने की इच्छा प्रबल हो गयी।

जहां महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्य आर्थिक उदारीकरण के कारण दिन दोगुनी रात चौगुनी प्रगति के साक्षी बन रहे थे, तो वहीं कई बंगाली पेशेवर भारत के अन्य शहरी केन्द्रों का रुख कर रहे थे। क्योंकि पश्चिम बंगाल में लगभग न के बराबर अवसर मौजूद थे। कभी स्वतन्त्रता से पहले और 50-60 के दशक तक देश का औद्योगिक हब कहा जाने वाला कोलकाता अब आर्थिक रूप से काफी पिछड़ गया है।

मुग़ल शासन से ही कई मारवाड़ी और गुजराती परिवार कोलकाता से अपने व्यापार का संचालन करते थे। लेकिन कम्यूनिस्ट शासन में आए दिन यूनियन की हड़तालों और उद्योगपतियों को परेशान किए जाने के कारण उन्हें मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में पलायन करना पड़ा। एक अहम उदाहरण बिड़ला परिवार का भी है, जो दशकों से कोलकाता से अपना व्यापार चलाया करता था, लेकिन कम्यूनिस्ट शासन के सत्ता में आने पर उन्हे अपना व्यापार मुंबई ले जाना पड़ा।

कभी औद्योगिक रूप से सबसे ज़्यादा समृद्ध रहा बंगाल जिस तरह से कम्यूनिस्ट शासन में बर्बाद हुआ, उसे देखते हुए बीके बिड़ला ने एक बार थोड़ा दुखी होकर और थोड़ा व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, “यहाँ एक उद्योगपति यूनियन, स्ट्राइक, और धमकियों के अलावा किस चीज़ की आशा कर सकता है? आप बताइए, यहाँ कौन उद्योगपति निवेश करेगा? जब ये बंगाल से बाहर होते हैं, तो इन्हें काफी अवसर मिलता है लेकिन बंगाल के अंदर आते ही इन्हें मजबूर होना पड़ता है। मुझे ज़्यादा विस्तार से बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ मैंने कलकत्ता को हमेशा अपना घर माना और मानता रहूँगा। पर सच कहें तो मुझे राज्य का भविष्य बिल्कुल भी उज्ज्वल नहीं लगता”।

जब राज्य से उद्यमी ही नदारद हो, तो भला राज्य में प्रगति कैसे संभव होगी? जब राज्य में लोगों को कोई अवसर नहीं दिखा, तो पश्चिम बंगाल का आर्थिक पतन प्रारम्भ हो गया। स्वतन्त्रता के समय इस राज्य का भारत के जीडीपी में लगभग एक चौथाई हिस्सा था, और अब ये छठे स्थान पर आ गया है। रोचक बात यह देखिये, बंगाल से ऊपर अब गुजरात हो गया है, जहां की आबादी पश्चिम बंगाल की लगभग आधी है।

देश के कुल औद्योगिक उत्पादन में पश्चिम बंगाल का हिस्सा 1980-81 में 9.8 प्रतिशत से नीचे गिरकर केवल 5 प्रतिशत पर पहुँच चुका है। राज्य के जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 1980-81 में 21 प्रतिशत से गिरकर 13 प्रतिशत हो चुका है। यही नहीं इनफ्रास्ट्रक्चर के मामले में पश्चिम बंगाल का इंडेक्स 1980 में 110.6 से गिरकर 90.8 पॉइंट्स पर आ चुका है। वहीं ओड़िशा का परफॉर्मेंस 81.5 से सुधरकर 98.9 पॉइंट्स हो चुका है।

आज भी सभी बड़े कंपनियों में बंगाली लोग ऊंचे पदों पर आसीन दिखेंगे। पर जहां एक ओर देश के कई भारतीय शहरों में आपको बंगाली फलते-फूलते मिलेंगे, तो वहीं बंगाल में लचर व्यस्था के कारण उनकी स्थिति बेहद खराब है। चूंकि देश के अन्य क्षेत्रों के मुक़ाबले बंगाल में काफी पहले ही आधुनिक शिक्षा के बीज बोये जा चुके थे, इसलिए यहाँ ‘गुड ह्यूमन कैपिटल’ की कोई कमी नहीं है। परंतु इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, आटोमोबाइल, बैंकिंग और फ़ाइनेंस जैसे क्षेत्रों को पश्चिम बंगाल में कम्यूनिस्ट शासन की उद्योग विरोधी सोच और हठधर्मिता के कारण बढ़ावा नहीं मिल पाया।  

ऊपर दिये चित्र के अनुसार, कोलकाता 1950 में भारत के सबसे समृद्ध शहरों में से एक हुआ करता था। ऐसा इसलिए क्योंकि इस शहर में आर्थिक अवसर थे, और योग्य व्यक्तियों के लिए यहाँ किसी प्रकार की कमी नहीं थी। परंतु 1990 में कोलकाता से ये स्टेटस मुंबई ने छीन लिया था, और बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासन में जीएसडीपी रेशियो अर्थात जीडीपी से कर्ज़ का अनुपात 2007-08 तक 4.5 प्रतिशत तक गिर गया था।

बुद्धदेव भट्टाचार्य के शासन में पूंजीगत व्यय भी काफी हद तक गिर गया था। ये समस्या इसलिए उत्पन्न हुई क्योंकि सरकार ने असफल जन कल्याण योजनाओं पर ज़रूरत से ज़्यादा राजस्व खर्च किया था। इसी कारण मानव विकास के मापदण्डों पर बंगाल पिछले कई वर्षों से काफी फिसड्डी रहा है। फिलहाल ममता सरकार की भी यही हाल है।

वहीं स्वास्थ्य और शिक्षा के मापदण्डों पर पिछले कई दशकों से बंगाल बहुत ही पिछड़ा हुआ है। किसी समय एचडीआई में सभी भारतीय राज्यों में आठवें स्थान पर रहने वाला बंगाल 28वें स्थान पर खिसक चुका है।

ऐसे में बुद्धदेव भट्टाचार्य के कार्यकाल में पश्चिम बंगाल की आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो चुकी थी। उनके लचर नेतृत्व के कारण बंगाल राज्य अन्य राज्यों से मुक़ाबला नहीं कर पाया और धीरे-धीरे आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के गर्त में जाने लगा।

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