वर्तमान हिंदी ‘राष्ट्रभाषा’ बनने के लिए उपयुक्त ही नहीं है, इसे पहले मूल स्वरूप में लाना होगा

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PC: financialexpress

मेरी मातृभाषा हिन्दी है। मैं हिन्दी में लिखता हूँ, हिन्दी में सोचता हूँ, स्वप्न भी हिन्दी में ही देखता हूँ। मैं अँग्रेजी अच्छी बोल लेता हूँ परंतु मैं हिन्दी में सोच कर अनुवाद करता हूँ फिर बोलता हूँ। मुझे हिन्दी गद्य, काव्य सब से प्रेम है। निराला से लेकर जयशंकर प्रसाद तक और परसाई से लेकर श्रीलाल शुक्ल तक सबकी रचनाएँ पढ़ी हैं और सराही हैं। मैं कवितायें भी लिखता हूँ और उनमें से अधिकतर हिन्दी में ही होती हैं। परंतु मेरा यह मानना है की अपने वर्तमान स्वरूप में हिन्दी राष्ट्रभाषा बनने के लिए कदापि उपयुक्त नहीं हैं और देश की अधिकतर प्रादेशिक भाषाएँ हमारी मूल-भाषा संस्कृत के अधिक निकट है। ओडीशा की ओडिया हो या महाराष्ट्र की मराठी यह सभी भाषाएँ संस्कृत से अधिक निकट है। सर्वप्रथम हिन्दी को उसके मूल स्वरूप में लाने की आवश्यकता है। अभी जो हम हिन्दी बोलते और लिखते हैं वो एक मिश्रित भाषा है। जहां फारसी और उर्दू शब्दों की अधिकता है। हम सब ‘ताज़े’ फल खाते हैं, ‘अख़बार’ पढ़ते हैं, ‘अदालत’ के ‘फैसलों’ के बारे में सुनते हैं, वो चलचित्र देखते हैं जिनमें गीत नहीं ‘तराने’ होते हैं जहां प्रेमी नहीं ‘आशिक’ हैं, जिनके हृदय नहीं ‘दिल’ हैं, जिनके गृह नहीं ‘आशियाने’ हैं, जहां दीप नहीं ‘शमा’ जलती है। सबल ताक़तवर है, निर्बल कमजोर है, कायर बुज़दिल है। ये भाषा नहीं उर्दू ‘topping’ वाला हिन्दी ‘pizza’ है। बॉलीवुड के गीतकारों, मीडिया के पत्रकारों और आधुनिक खिचड़ी लेखकों ने हिन्दी की आत्मा में उर्दू कुछ इस प्रकार संलग्न कर दिया है कि अब यह निर्धारित करना जटिल है कि हिन्दी क्या है और उर्दू क्या है।

हिन्दी के समाचार पत्रों में भी उर्दू और फारसी के शब्दों की ही अधिकता होती है। उदाहरण के लिए आज के समाचार पत्र में एक समाचार का शीर्षक था ”राम जन्म भूमि मामले में 18 अक्टूबर तक पूरी हो बहस” इसी पंक्ति में 2 शब्द उर्दू के हैं। जिसे हम लोग उर्दू कहते हैं वह दिल्ली के बाज़ारों में उत्‍पन्‍न हुई भाषा बतलाई जाती है। दिल्ली के बाजार में मु्स्लिमों के संपर्क से अरबी, फारसी और तुर्की के कुछ शब्‍द हमारी शब्दावली में आ मिले। तब से मु्स्लिम लोग जहाँ-जहाँ इस देश में गए, इस मिश्रित भाषा को अपने साथ लेते गए। हिन्दी शब्दावली पर विदेशी भाषाओं का प्रभाव ऐसा रहा कि मूल भाषा का स्वरूप ही परिवर्तित हो गया। ‘कचहरी’ एक बड़ा ही प्रचलित शब्द है, और साहित्यिक भाषा में भी चलता रहता है परन्तु है यह पुर्तगाली भाषा का एक शब्द है। शक और हूणों के भाषा के शब्द भी प्राकृत और अपभ्रंश से होकर हिन्दी में आये हैं, परन्तु हिन्दी भाषा में सबसे अधिक शब्द फारसी, अरबी और अंग्रेजी के पाये जाते हैं।

900 ईस्वी के लगभग जब मुहम्मद बिन कासिम ने भारत पर आक्रमण किया था तब भारत के एक बड़े प्रदेश में मु्स्लिमों की यह पहली विजय थी। उसके बाद 100 वर्षों तक पंजाब में मु्स्लिमों का राज्य रहा, तदुपरान्त वे धीरे-धीरे भारत के कई क्षेत्रों में फैल गये और लगभग 800 वर्षों तक उनका शासन विभिन्न क्षेत्रों में चलता रहा। विजेता की भाषा का कितना प्रभाव विजित पर पड़ता है, यह अप्रकट नहीं। इस आठ सौ वर्ष के कालखंड में उर्दू फारसी ने कितना अधिकार भारतीय भाषाओं पर जमाया, इसका प्रमाण भारतीय भाषाएँ आज स्वयं देती हैं। जहाँ जहां पर इस्लामिक साम्राज्य थे, वहाँ के भाषाएँ सदा के लिए अपना मूल स्वरूप त्याग उर्दू और फारसीकृत हो गई।

मु्स्लिम भारत में अरब से ही नहीं, ईरान और तुर्किस्तान से भी आये थे। इसलिए हिन्दी भाषा पर अरबी, फारसी और तुर्की तीनों का प्रभाव पड़ा। इन भाषाओं के लेखक अयोध्या सिंह हरिऔध के अनुसार अधिकतर शब्द संज्ञा रूप में गृहीत हुए हैं। मु्स्लिमों के साथ बहुत से ऐसे पदार्थ और सामान भारत में आये, जिनका कोई संस्कृत और देशज नाम नहीं था, इसलिए हिन्दी में उनका अरबी, फारसी आदि नाम ही व्यवहार में आया। जैसे साबुन, चिलम, नैचा, हुक्का, रिकाबी, तश्तरी आदि। प्राय: देखा जाता है कि शिक्षित जन ही नहीं, अपठित लोग भी राजकीय भाषा बोलने में अपना गौरव समझते हैं, इस कारण अनेक संस्कृत और हिन्दी शब्दों के स्थान पर भी अरबी, फारसी एवं तुर्की शब्दों का प्रचार हुआ।

हिन्दी में विदेशी शब्दों का आधिक्य हुआ। आजकल जल, वायु, मसिभाजन, लेखनी आदि के स्थान पर पानी, हवा, ‘दवात’ और कलम आदि का ही अधिक प्रयोग देखा जाता है। शरमाना, फरमाना, कबूलना, बदलना, बख्शना, आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं। शर्म, फरमान, कबूल, बदल, बख्श, आदि संज्ञाओं के अन्त में हिन्दी का धातु लगाकर इन्हें क्रिया का रूप दिया गया, और आजकल उनसे सभी काल की क्रियाएँ हिन्दी व्याकरण के नियमानुसार बनती रहती हैं। इन भाषाओं के आधार से बहुत से ऐसे शब्द भी बन गये हैं, जिनका आधा भाग हिन्दी है, और दूसरा आधा हिस्सा अरबी-फारसी इत्यादि का कोई शब्द। जैसे पानदान, पीकदान, हाथीवान, समझदार, ठेकेदार आदि। इस प्रकार की कुछ क्रियाएँ भी बना ली गई हैं। जैसे खुश होना, रवाना होना, दिल लगाना, ज़ख्म पहुँचाना, इलाज करना, हवा हो जाना आदि। हिन्दी सभी लिपियों से शक्तिशाली है और इसमें यह गुण है, कि जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है।

दिल्ली, मुस्लिम सम्राटों की राजधानी उनके अन्तिम समय तक थी। दिल्ली के आसपास और उसके समीपवर्ती मेरठ के भागों में जो हिन्दी बोली जाती है, उसी का नाम शाहजहाँ के समय उर्दू पड़ा। तुर्की भाषा में सेना को उर्दू कहते हैं, ज्ञात हो कि मुगल सेना के अधिकतर सिपाही इसी भाषा का प्रयोग करते हैं।

इसके बाद सौ वर्ष के भीतर हिंदी में बहुत से यूरोपियन विशेषकर अंग्रेजी शब्द भी मिल गये और दिन-प्रतिदिन मिलते ही जा रहे हैं। रेल, तार, डाक, मोटर आदि कुछ ऐसे शब्द हैं, जो शुद्ध रूप में ही हिन्दी में व्यवहृत हो रहे हैं, और लालटेन, लैम्प आदि कितने ऐसे शब्द हैं, जिन्होंने हिन्दी रूप ग्रहण कर लिया है और आजकल इनका प्रचार इसी रूप में है।

स्वतन्त्रता के बाद हिंदी की इस दुर्दशा ले किए बॉलीवुड और आधुनिक खिचड़ी लेखक भी बड़े कारण हैं। बॉलीवुड ने हिन्दी सिनेमा के नाम पर हिंदी में जो मिलावट की है उससे यह अब उर्दू में परिवर्तित हो चुका है। फिल्म इंडस्ट्री में अंग्रेजी का भी बोलबाला है। । ऐसी पटकथाएँ यहां कम ही देखने को मिलती हैं। मुकुल केशवन अपने आलेख – उर्दू, अवध एंड तवायफ- द इस्लामिकेट रुटस् ऑफ हिन्दी सिनेमा-में कहते है कि, “हिन्दी-सिनेमा का महल बहुमंजिला तो है लेकिन इसका स्थापत्य इस्लामी रुपकारों से प्रेरित है। इन इस्लामी रुपकारों का सबसे प्रकट उदाहरण है उर्दू।

इसी बात का एक विस्तार नसरीन मुन्नी कबीर की किताब ‘टॉकिंग फिल्मस्: कॉन्वर्सेशन्स ऑन हिंदी सिनेमा विद् जावेद अख्तर’ में मिलता है। इसमें जावेद अख्तर कहते हैं- “भारत की बोलती फिल्मों ने अपना बुनियादी ढांचा उर्दू फारसी थियेटर से हासिल किया। इसलिए बोलती फिल्मों की शुरुआत उर्दू से हुई। यहां तक कि कलकत्ता का नया थियेटर भी उर्दू के लेखकों का प्रयोग करता था। अगर हम तनिक भी ध्यान दें तो लगभग सभी पंक्तियों में उर्दू का एक शब्द मिल ही जाएगा।

अगर मेरी बात हो तो मैं शुद्ध हिंदी भाषा में लिखना और पढ़ना पसंद करता हूँ, एक दो त्रुटियाँ अवश्य होती हैं पर उन्हें सुधारने का प्रयत्न करता हूँ। अगर हिन्दी को बचाना है, उसका प्रचार-प्रसार करना है तो सर्वप्रथम उसे अपने प्राचीन स्वरूप में लाना होगा। जब वह अपने प्राचीन स्वरूप यानि “संस्कृतनिष्ठ हिन्दी” में आ जाएगा तब ही इसकी स्वीकृति बढ़ेगी। इसके पश्चात ही हिन्दी सभी भाषाओं के निकट आएगी तथा संस्कृत के प्रचार-प्रसार करने में मदद मिलेगी। हिन्दी को शुद्ध करने के लिए इसे एक जन आंदोलन बनाना पड़ेगा। इसके लिए प्रत्येक हिन्दी भाषी को केवल और केवल हिन्दी और संस्कृत शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, समाचार पत्रों में लिखने वाले पत्रकारों को भी शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करना चाहिए। जब समाचार पत्र में संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के शब्दों का प्रयोग होगा तब यह सामान्य जन भाषा बन जाएगी और इसके पश्चात यह सभी भाषाओं को जोड़ने वाली भाषा भी बन जाएगी।

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