प्यारे वामपंथियों! भगत सिंह एक सच्चे राष्ट्रवादी थे, उन्हें ‘वामपंथी’ कहकर खुद का मजाक मत बनाओ

भगत सिंह

PC: indiatvnews

जिस नाम को सुनकर आज भी देश के करोड़ों युवाओं में ऊर्जा का संचार होता है, उसी क्रांतिकारी भगत सिंह की विचारधारा को कुछ लोग हड़पने के प्रयत्न में लगे हुए हैं। साम्राज्यवाद विरोध, नास्तिकता जैसे कई सिद्धांतों के के सहारे वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि भगत सिंह विशुद्ध वामपंथी थे, और भारत में प्रचलित वामपंथ के समर्थक या अनुयाई थे। परंतु क्या यही सत्य है?

28 सितंबर 1907 को ल्यालपुर जिले [अब पाकिस्तान का फ़ैसलाबाद जिला] के बंगा ग्राम में हुआ था। इनके जन्म के समय इनके पिता सरदार किशन सिंह जेल से बाहर आ चुके थे और इनके चाचा अजीत सिंह और स्वरण सिंह का भी जेल से जल्द निकलना सुनिश्चित हो चुका था, इसलिए इनके दादा अर्जुन सिंह ने इन्हे ‘भागनलाल’ नाम दिया। यानि वह, जो भाग्यवान हो।

भगत सिंह का परिवार जाट सिख था, और विचारधारा से पूर्णतः आर्य समाजी था। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919  को हुए जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। इसलिए गांधीजी के आह्वान पर भगत ने ज़ोर-शोर से असहयोग आंदोलन में भाग लिया। परंतु 1922 में चौरी चौरा में हुई हिंसा के कारण जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन को रोक दिया, तो युवा भगत सिंह ने अहिंसा का मार्ग छोड़कर क्रांति का मार्ग अपनाया।

लाहौर के नेशनल कॉलेज़ की पढ़ाई छोड़कर भगत सिंह ने केवल 16 वर्ष की आयु में भारत की स्वतन्त्रता हेतु नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी। इसके साथ ही 1923 में भगत सिंह ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन की सदस्यता भी ग्रहण की, जिसके संस्थापकों में योगेश चन्द्र चटर्जी, शचीन्द्र नाथ सान्याल, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारी शामिल थे। यह वही हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोसिएशन है जिसने काकोरी में नंबर 8 डाउन ट्रेन को रोककर अंग्रेज़ी सरकार से करीब 8000 से भी ज़्यादा रुपये [आज के लगभग 80 लाख रुपये] लूटे थे। इसके पश्चात अंग्रेजों द्वारा की गयी त्वरित कार्रवाई में राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ सहित 4 क्रान्तिकारियों को मृत्युदंड व 16 अन्य को सश्रम कारावास का दंड दिया गया था। केवल भगत सिंह और चन्द्र शेखर आज़ाद इस कार्रवाई से बच निकलने में सफल हुये थे, और इन दोनों ने काफी परिश्रम के बाद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन का पुनर्गठन करते हुये उसे एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन। यह नाम स्वयं भगत सिंह ने दिया था, जो रूसी क्रान्ति के जनक, व्लादिमीर लेनिन की कार्यशैली से काफी प्रेरित थी। कहते हैं कि मृत्यु से कुछ घंटे पहले जब उनके एक मित्र, प्राणनाथ मेहता उनसे अंतिम बार मिले थे, तो उन्होंने उनसे ‘द रिवोल्यूशनरी लेनिन’ नामक पुस्तक मंगाई थी। इसी कारण अधिकांश वामपंथी भगत सिंह को विशुद्ध वामपंथी मानते हैं, जबकि सत्य तो यह है कि भगत सिंह समाजवाद से प्रेरित अवश्य थे, परंतु यदि वामपंथ के सिद्धांतों पर उन्हे आँका जाये, तो वे विशुद्ध वामपंथी तो बिल्कुल नहीं थे।

एचएसआरए का प्रमुख उद्देश्य सेवा, त्याग और हर प्रकार की पीड़ा सहने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने इसी के अंतर्गत साइमन कमीशन के विरुद्ध लाहौर में हो रहे प्रदर्शन में भाग लिया था, जहां उन्होंने अपनी आँखों से लाला लाजपत राय को अंग्रेज़ अफसर जेम्स स्कॉट और जेपी सॉन्डर्स द्वारा बुरी तरह पिटते देखा। पिटाई से बुरी तरह घायल लाला लाजपत राय 17 नवंबर 1928 को परलोक सिधार गए। अंग्रेज़ों के इस दमनकारी कृत्य से क्रोधित होकर राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी जे० पी० सॉन्डर्स को मार गिराया था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी।

इसके कुछ महीनो बाद क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान नई दिल्ली में स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेण्ट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज़ सरकार को ‘उनकी नींद’ से जगाने के लिये बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी। बाद में लाहौर षड्यंत्र केस के अंतर्गत भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरी राजगुरु को ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह करने के आरोप में आईपीसी की धारा 302 और धारा 124 के अंतर्गत मृत्युदंड दिया गया, और उन्हे 23 मार्च 1931 को तय समय से कई घंटे पहले लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गयी थी।

अब जिन्हें भी ऐसा प्रतीत होता है कि भगत सिंह वामपंथ के अनुयायी हैं, उन्हे हम ये बता दें कि एक वामपंथी कभी भी राष्ट्र को एकत्रित करने के विचार को समर्थन नहीं देता। लाहौर के सेंट्रल जेल से अपने माँ को लिखे के पत्र के अनुसार भगत सिंह ने एक बार लिखा था, “मुझे कोई शंका नहीं है कि मेरा देश एक दिन स्वतंत्र हो जाएगा, मुझे इस बात का भय है कि साहब लोग जिन कुर्सियों को छोड़कर, जाएंगे उन पर भूरे साहबों का कब्जा हो जाएगा”।

तो भगत सिंह ने अपने इस पत्र में जिन ‘भूरे साहबों’ का जिक्र किया है,  वे कौन हैं?  क्या वे वही धनाढ्य व्यक्ति हैं, जो भारत में पैदा हुए लेकिन अंग्रेजों की तरह सूट-बूट पहनते हैं? या वे वो भूरे साहब हैं जिनकी सोच अंग्रेजों जैसी है? अंग्रेजों से सोच मिलने का अर्थ स्पष्ट करें  तो वह यह है कि व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति उनके लिए सर्वोपरि है, जो अंग्रेजों की तरह ‘दुर्बलों’ को सदैव अपना दास बनाकर रखने और उन्हें शोषित करने में विश्वास रखते हैं।

वहीं भगत सिंह के लिए प्रथम और अंतिम प्रेम देश था। उनके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था, और यदि वे आज जीवित होते, तो वे निस्संदेह ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ गाने वाले वामपंथियों को देखकर या तो अपना माथा पीट लेते, या फिर स्वयं उन्हें सबक सिखाने निकल पड़ते।

यही नहीं, यदि वामपंथ के वर्तमान स्वरूप के अनुसार भगत सिंह को आँका जाये, तो भगत सिंह कहीं से भी वामपंथी नहीं दिखाए देते। आज के वामपंथी जिस प्रकार से तुष्टीकरण की निम्नतम राजनीति का अनुसरण करते हैं, भगत सिंह का उससे दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। उल्टे नौजवान भारत सभा में यदि किसी को प्रवेश करना होता था, तो उसे ये विश्वास दिलाना होता था कि उसे हलाल और झटका गोश्त के एक साथ पकने और एक साथ खाने से कोई आपत्ति नहीं है। ये हम नहीं कहते, बल्कि भगत सिंह की जीवनी लिखने वाले वयोवृद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर ने स्वयं अपने पुस्तक ‘विदाउट फीयर’ में इसकी पुष्टि भी की है।

भगत सिंह ने एक बार अपने नोटबुक में भी लिखा था, ‘जो व्यक्ति विकास के लिए खड़ा है,  उसे हर एक रूढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसमें अविश्वास करना होगा तथा उसे चुनौती देनी होगी।’ परंतु  आज के वामपंथी तो आदिवासियों के क्षेत्र में रूढ़िवादिता को बढ़ावा देते हुये नक्सलियों के रूप में ‘वामपंथ’ को बचाने में लगे हुए हैं। इन नक्सलियों का तो विकास से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। विकास के लिए जो सरकारी प्रयास किए भी जाते हैं, उन पर ये विध्वंसात्मक रवैया अपना लेते हैं।

वामपंथी वैसे तो लोकतंत्र और मानवाधिकार के पक्षधर हैं लेकिन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सबसे बड़े लोकतांत्रिक अधिकार ‘मतदान’ का विरोध करते हुए सरकारी अधिकारियों पर हमला करने वालों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। भगत सिंह तो देश और देशवासियों के लिए फांसी के फंदे पर झूल गए लेकिन आज के वामपंथी तो मानवाधिकार के नाम पर उनके पक्ष में भी खड़े हो जाते हैं जिनकी विचारधारा की नींव  हजारों मासूमों की हत्या से खड़ी हुई है। जो लोग यह कहते हैं कि भगत सिंह विशुद्ध वामपंथी थे, क्या वे इस बात से परिचित हैं कि वे वीर सावरकर को अपना आदर्श मानते थे। जिस विचारधारा के व्यक्ति आज सावरकर की निंदा करते नहीं थकते, उन्हे ये बात स्वीकारने में काफी असहजता होगी कि भगत सिंह न केवल वीर सावरकर का समर्थन करते थे, बल्कि उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडिया’ज़ वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस’ [जिसे अंग्रेज़ी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था] कि प्रतियाँ छपवा कर जगह जगह बँटवाई थी। इसके अलावा भगत सिंह स्वामी विवेकानंद की विचारधारा से भी बहुत प्रभावित थे, और उन्ही के आदर्शों से प्रेरित होकर उन्होने लाहौर सेंट्रल जेल में भारतीय कैदियों के बेहतर अधिकार के लिए भूख हड़ताल भी की थी। आज के वामपंथी तो दो दिन भी बिना राजसी भोजन के नहीं रह सकते, और भगत सिंह ने तो 116 दिन तक निरंतर भूख हड़ताल की थी, जिसमें वे अपनी मांगें पूरी करने में काफी हद तक सफल भी रहे थे।

भगत सिंह ने कहा था, ‘आमतौर पर जैसी चीजें होती हैं, लोग उसके आदी हो जाते हैं और बदलाव के विचार से ही कांपने लगते हैं। हमें निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना से बदलना है।’ यदि आज के वामपंथियों की विचारधारा के संदर्भ में इसे देखें, तो यह कथन एकदम सटीक बैठता है। आज के वामपंथियों ने दुर्भाग्यवश एक खास विचारधारा के विरोध को ही क्रांति समझ लिया है। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे लोग जो कह रहे हैं, वह न्यायोचित है भी या नहीं।

उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे लोग जो कर रहे हैं, उससे किसी व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे देश की संप्रभुता किस तरह खतरे में आ सकती है। आज के वामपंथी मोदी विरोध और भाजपा विरोध के चक्कर में यह भी भूल जाते हैं कि विरोध व्यक्ति का नहीं बल्कि नीतियों का करना चाहिए। देश के सर्वाधिक लोगों ने जिसके पक्ष में वोट डाला है, उसका थोड़ा सा सम्मान तो बनता है ना, उस व्यक्ति का नहीं तो कम से कम जनमत का सम्मान तो करना ही चाहिए।

केवल 23 वर्ष की आयु में 23 मार्च 1931 को सुखदेव थापर और शिवराम हरी राजगुरु के साथ अपने प्राण न्योछावर करने वाले भगत सिंह यदि आज जीवित होते, तो उन्हे स्वयं वही वामपंथी ‘एक कुटिल, कपटी संघी’ घोषित कर दिए होते, जो आज उनका नाम लेकर अपनी कुत्सित विचारधारा का प्रचार करते नहीं थकते। जिस व्यक्ति के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था, वो निस्संदेह हमारे ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ की विषैली विचारधारा को देखते हुये उनके विरुद्ध विद्रोह करने से पहले एक बार नहीं सोचते। आज भी हम भगत सिंह के ऋणी हैं, जिन्होने युवा पीढ़ी को देश के लिए मर मिटने का दृढ़ संकल्प लेने को प्रेरित किया था।

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