इस फिल्म को देखकर मैं न क्रोधित हुआ, न कुंठित। मुझे अपने पैसों के बर्बाद होने का दुख भी नहीं हुआ। मैंने बस इतना सोचा – चलो, ‘कलंक’ को ही दोबारा देख लेता हूं । इससे तो कलंक भी लाख गुना बेहतर है, क्योंकि अगर ये कोई फिल्म है, तो मैं मात्र 7 सेकंड में 100 मीटर दौड़ सकता हूँ। आखिर बोलने में क्या जाता हैं?
आज मैं ‘द ज़ोया फैक्टर’ की समीक्षा करूंगा। अनूजा चौहान की चर्चित किताब पर आधारित इस मूवी में मुख्य रोल में हैं सोनम कपूर आहूजा और डुलकर सलमान। और उनका साथ दिया है सिकंदर खेर, संजय कपूर, मनु ऋषि चड्ढा, अंगद बेदी इत्यादि ने।
यह कहानी है ज़ोया सोलंकी के बारे में, जो एक ऐड एजेंसी में काम करती है। कहते हैं कि ज़ोया के जन्म लेते ही 25 जून 1983 को भारतीय क्रिकेट टीम ने अपना पहला क्रिकेट विश्व कप जीता था। परंतु यह ‘लक’ उसकी निजी जीवन में कहीं नहीं झलकता। एक ऐड को शूट करने के लिए उसे श्रीलंका में भारतीय क्रिकेट टीम के साथ जाने का मौका मिलता है। भारतीय टीम पिछले कुछ दिनों से खराब फॉर्म से जूझ रही होती है और अचानक ज़ोया के आने से जीतने लगती है।
हालांकि, इससे टीम के कप्तान निखिल खोड़ा को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उसे अब भी परिश्रम और अनुशासन में अटूट विश्वास है। अब कौन इस पसोपेश में विजयी होता है – ज़ोया का लक, या निखिल का हार्ड वर्क, इसका पता लगाने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी। देखनी क्या, झेलनी पड़ेगी।
जी हाँ! झेलनी ही पड़ेगी, क्योंकि अगर आप इस फिल्म को देखते वक्त अपने साथ Saridon नहीं लेकर गए, तो इस मूवी को देखकर जरूर आपका सिरदर्द होने लगेगा। ‘द ज़ोया फैक्टर’ बुरी नहीं है, बल्कि एक पुस्तक पर आधारित एक बेहद घटिया रूपान्तरण है। न तो अभिनय में गंभीरता, और न ही पटकथा में। एक हल्की फुल्की रॉम कॉम फिल्म यदि इंटरवल के आने के पहले ही बोर करने लगें, तो समझ जाइए कि बाकी फिल्म का क्या हाल होगा।
यूं तो देखा गया है कि बॉलीवुड में पुस्तकों का फिल्मी रूपान्तरण अक्सर मूल पुस्तक के साथ न्याय नहीं कर पाती। परंतु ‘द ज़ोया फैक्टर’ तो इसे अलग ही स्तर पर ले गयी। इसे देखकर आपको दो बातों पर बिल्कुल विश्वास नहीं होगा – कि इस फिल्म की स्क्रिप्टिंग स्वयं पुस्तक की लेखिका अनूजा चौहान ने की है, और इस फिल्म का निर्देशन उसी अभिषेक शर्मा ने किया है, जिसने पिछले वर्ष पोखरण के परमाणु परीक्षण पर आधारित ‘परमाणु’ जैसी शानदार फिल्म बनाई थी। इस फिल्म की कॉमेडी सीन्स भले ही प्रासंगिक हों, लेकिन वे इतने एलीट हैं कि उनपर सिर्फ साउथ मुंबई की युवा पीढ़ी ही हंस सकती है, पूरा भारत नहीं।
ये फिल्म मूल पुस्तक के मुक़ाबले इतनी घटिया है कि आपको ‘हाफ गर्लफ्रेंड’, जी हाँ, ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ का फिल्मी संस्करण इससे बेहतर लगने लगे। ये फिल्म वास्तविकता से कितनी दूर है, इसका अंदाज़ा आपको इसी बात से लग जाएगा कि असल जीवन में पटाखों के नाम से घबराने वाली सोनम यहाँ खूब पटाखे छोड़ते हुए दिखाई देंगी। यह फिल्म उतनी भी घटिया नहीं होती, अगर एक उम्दा अभिनेत्री को इस रोल के लिए लिया जाता।
सोनम कपूर की ओवर एक्टिंग से अगर आपने उबरने का साहस किया हो, तो इस फिल्म का अंधविश्वास पर कथित प्रहार आपको और आक्रोशित करेगा। निस्संदेह अंधविश्वास किसी भी समाज के लिए एक अच्छी रीति नहीं है, परंतु जिस तरह इसकी आलोचना इस फिल्म में की गयी है, उसे अंधविश्वास पर प्रहार कम, और सनातन धर्म का भद्दा मज़ाक उड़ाना ज़्यादा लगता है। यानि शॉर्ट में कहें तो एजेंडा ऊंचा रहे हमारा।
इस फिल्म में क्रिकेट को छोड़कर सभी चीजों पर फोकस किया गया है, चाहे वो ज़ोया के ‘लक’ का उपयोग करना हो, या फिर टीम में कप्तान निखिल के विरुद्ध हो रही गुटबाज़ी हो, सब दिखाया गया है, पर इसमें से कुछ भी आपको व्यथित नहीं करता, और न ही झकझोरता है। फिल्म के अंत में थोड़ा सा दम दिखाने का प्रयास किया गया है, परंतु तब तक बहुत ज्यादा देर हो चुकी होती है। अंगद बेदी और सिकंदर खेर के किरदारों में योग्यता थी, पर उन्हे पूरा समय नहीं दिया गया।
इस फिल्म को यदि किसी ने बोरींग होने से बचाया है, तो वह है डुलकर सलमान की एक्टिंग और इस फिल्म का फील गुड फ़ैक्टर। इस फिल्म में कुछ ऐसे दृश्य हैं, जिन पर थोड़ी बहुत मेहनत की गयी है, और इन्हे देख आपको थोड़ी संतुष्टि अवश्य मिलेगी। परंतु कुल मिलाकर ‘द ज़ोया फैक्टर’ फिल्ममेकिंग, राइटिंग और स्टोरी टेलिंग के नाम पर एक करारा तमाचा है। इसे फिल्म कहना फिल्म उद्योग का अपमान होगा। हमारी ओर से इसे मिलता है 5 में से 1 स्टार।