सरदार सरोवर डैम, जिसके विरोध में लेफ्ट लिबरलों ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था, आज 4 राज्यों का है सहारा

सरदार सरोवर डैम

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सरदार सरोवर बांध का जलस्तर रविवार को उच्च स्तर पर पहुंच गया। बांध का जल स्तर 138.68 मीटर के की ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गया है। यह जलस्तर इस डैम की अधिकतम क्षमता है। नर्मदा नदी पर बने बांध के फुल होने को गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी ने ऐतिहासिक क्षण बताया है।

मुख्यमंत्री रुपाणी ने इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते हुए उन्हें श्रेय दिया है। सीएम रुपाणी ने ट्वीट कर कहा है कि यह वास्तव में एक ऐतिहासिक क्षण है क्योंकि सरदार सरोवर बांध अपने 138.68 मीटर के पूर्ण स्तर पर पहुंच गया है। उन्होंने कहा कि बांध में जल स्तर का पूर्ण लेवल तक पहुंचना हर गुजराती का सपना रहा है। मुख्यमंत्री ने ट्वीट में लिखा है कि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजन, प्रतिबद्धता और कड़ी मेहनत के कारण ही पूरा हो सका है।

सरदार सरोवर डैम बनने की कहानी किसी फिल्म की कहानी से कम नहीं है। सरदार वल्लभ भाई पटेल के इस सपने को कई बार रोकने की कोशिश की गयी। कई बार अध्ययन कर इसकी ऊंचाई बढ़ाई गयी। तमाम उतार-चढ़ाव के बाद आखिरकार यह डैम बनकर तैयार हुआ और अब अपने उच्चतम स्तर पर आ चुका है। लेकिन इसके पीछे की कहानी क्या है हम बताते हैं…

सरदार सरोवर डैम विश्व का दूसरा सबसे बड़ा कंक्रीट का बांध है। देश के सबसे बड़े बांध के निर्माण की नींव भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1961 में रखी थी, लेकिन इसका उद्घाटन 17 सितंम्बर 2017 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने 67 वें जन्मदिन पर किया था। राज्यों के बीच में जल वितरण की समस्या को लेकर यह महत्वाकांक्षी योजना विवादों से घिर गई और ये विवाद योजनाओं का रूप लेने लगी। वर्ष 1969 में विवाद को समाप्त कर परियोजना को दोबारा शुरू करने के उद्देश्य से नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण का गठन किया गया। वर्ष 1980 के दशक के मध्य में भारत की चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर सामने आईं। 1985 में पहली बार उन्होंने बांध स्थल का दौरा किया उसके बाद पाटकर और उनके सहयोगियों ने सरदार सरोवर बांध के निर्माण और उद्घाटन के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया। काशीनाथ त्रिवेदी, प्रभाकर मांडलिक, फूलचंद पटेल, बैजनाथ महोदय, शोभाराम जाट आदि ने मिलकर घाटी नवनिर्माण समिति का गठन किया और वर्ष 1986-88 के मध्य में बाँध का पुरजोर विरोध किया। वर्ष 1987 में इन्होंने नर्मदा कलश यात्रा भी निकाली।

वर्ष 1988 के अन्त में यह विरोध ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ के रूप में सामने आ गया। पाटकर इसमें समन्वयक की भूमिका में थीं और कई लोग जैसे राकेश दीवान, श्रीपाद धर्माधिकारी, आलोक अग्रवाल, नंदिनी ओझा और हिमांशु ठक्कर इसमें शामिल हुए। मेधा पाटकर के अलावा अनिल पटेल, वामपंथी लेखक अरुधंती रॉय, बाबा आम्टे व 200 से अधिक गैर सरकारी संगठन भी शामिल हुए। बांध के उद्घाटन के बावजूद मेधा पाटकर और अन्य कार्यकर्ताओं ने अपने “जल सत्याग्रह” से पीछे हटने से इन्कार कर दिया। इन छद्म विरोधियों को भविष्य में होने वाले विकास से कोई मतलब नहीं था।

इस डैम से विकास के कई नए रास्ते खुलेंगे। इससे गुजरात में 8,00,000 हेक्टेयर भूमि और राजस्थान में 2,46,000 हेक्टेयर भूमि बांध के जल द्वारा सिंचित होगीं। यह चार राज्यों के 131 शहरों, कस्बों तथा 9,633 गांवों को पेयजल प्रदान करेगा।

सरदार सरोवर बांध करीब 163 मीटर गहरा है और इसमें बिजली उत्पादन करने की दो इकाइयां स्थापित की गई हैं। इसमें 1,450 मेगावाट की बिजली उत्पादन करने की क्षमता है। अब तक, दोनों विद्युत घरों ने 4,141 करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन किया है।परियोजना की शर्तों के मुताबिक, महाराष्ट्र को 57 प्रतिशत बिजली मिलेगी, मध्य प्रदेश को 27 प्रतिशत और गुजरात में 16 प्रतिशत बिजली प्राप्त होगी।

बता दें बाद अक्टूबर, 2000 में सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी के बाद सरदार सरोवर बांध का रुका हुआ काम एक बार फिर से शुरू हुआ और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमाम अड़चनों के बाद भी इसे पूरा किया। बांध बनने के बाद दो साल तक यूपीए सरकार ने इस पर फाटक लगाने की अनुमति नहीं दी थी। हालांकि पीएम मोदी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के 17वें दिन ही इस पर फाटक लगाने की अनुमति दे दी।

यह पहला मौका नहीं है जब इन लेफ्ट लिबरल्स ने इस तरह के विकास कार्य में बाधा उत्पन्न किया हो। रूस की सहायता से करीब 13 हज़ार करोड़ की लागत से बनाए जा रहे भारत के सबसे बड़े ऊर्जा संयंत्र ‘कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र’ का भी ज़ोर शोर से विरोध किया गया था। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो यहां तक कह दिया था कि संयंत्र के विरोध के पीछे अमरीकी गैर-सरकारी संस्थाओं का हाथ था।

तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु परियोजना के खिलाफ प्रदर्शन को भड़काने के लिए वर्ष 2012 में चार गैर सरकारी संगठनों को संदेह के घेरे में रखा गया। राजस्व खुफिया निदेशालय और केंद्रीय आर्थिक खुफिया ब्यूरो की मदद से सुरक्षा एजेंसियों द्वारा एक जांच के बाद, कई भारतीय गैर-सरकारी संगठनों के बैंक खातों को निगरानी सूची में डाल दिया गया था।

ऐसे ही टिहरी बांध परियोजना का भी विरोध किया गया था जिसकी वजह से निर्माण का कार्य 1978 में शुरू होने के बावजूद यह 2006 में पूरा हुआ। इस परियोजना को सुंदरलाल बहुगुणा तथा अनेक पर्यावरणविदों ने रोकने की कोशिश की थी। आज यह बाँध 2400 मेगावाट विद्युत उत्पादन के साथ 270,000 हेक्टर क्षेत्र की सिंचाई और प्रतिदिन 102.20 करोड़ लीटर पेयजल दिल्ली, उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखण्ड को उपलब्ध करता है।

जून 2014 में इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की एक रिपोर्ट में नवद्या और वंदना शिवा का नाम सामने आया था और आरोप था कि इन सभी को भारत में विकास कार्यों को रोकने के लिए विदेशों से फंडिंग मिलती है। इस रिपोर्ट पर आईबी ने काफी चिंता व्यक्त की थी। अपनी रिपोर्ट में, आईबी ने कहा था कि भारतीय एनजीओ, जिनमें नवदान्या भी शामिल हैं, मानवाधिकारों व महिलाओं की समानता की लड़ाई के नाम पर विदेशों से धन प्राप्त करती हैं, और इसका प्रयोग भारत विरोधी अभियानों के लिए करती हैं।

इस रिपोर्ट में यह कहा गया है कि विदेश से फंड पाने वाले ये एनजीओ अपनी फर्जी ग्राउंड रिपोर्ट के जरिए भारत विरोधी माहौल बनाते हैं और इस तरह वे पश्चिमी देशों के रणनीतियों को पूरा करने में उनका सहयोग करते हैं। एक विदेशी जर्नलिस्ट कीथ क्लोर ने 23 अक्टूबर 2014 को “डिस्कवर” पत्रिका के ब्लॉग में प्रकाशित एक लेख में खुलासा किया था कि वंदना शिवा हर भाषण के लिए 40,000 डॉलर और नई दिल्ली से एक बिजनेस क्लास एयर टिकट चार्ज करती हैं।

ऐसे कई और महत्वपूर्ण विकास कार्य है जब इन कथित बुद्धिजीवियों ने पर्यावरण का हवाला देकर रोकने का प्रयास किया है। एक रिपोर्ट के अनुसार परमाणु ऊर्जा संयंत्रों, यूरेनियम खदानों, कोयला आधारित बिजली संयंत्रों, कृषि जैव प्रौद्योगिकी, मेगा औद्योगिक परियोजनाओं और पनबिजली संयंत्रों के खिलाफ ये एनजीओ फर्जी आंदोलन करते हैं और इस वजह से देश की जीडीपी में 2 प्रतिशत का नुकसान होता है। खुद को बुद्धिजीवी और पर्यावरण प्रेमी समझने वाले ये लोग खुद कभी पर्यावरण के बारे में नहीं सोचते हैं। इसी में एक और नाम है अरुंधति रॉय का, जिन्होंने पंचमढ़ी से सात किलोमीटर दूर बरीआम गांव जिसे केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इसे पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत इको-संवेदी क्षेत्र घोषित कर रखा है वहाँ अपना घर बनवाया है। भारत विरोधी संस्था ग्रीनपीस और फोर्ड फ़ाउंडेशन भी कई ऐसे कार्यों के जरीए अपने एजेंडे को चलाते हैं। हाल में मुंबई के ‘आरे कॉलोनी’ में चल रहे प्रदर्शन में इन्हीं विदेशी वित्तपोषित संस्थाओं के हाथ होने की खबर आई है। सरदार सरोवर की सफलता यह दिखाती है कि यह सभी रूकावटें कथित बुद्धिजीवियों द्वारा अपने फायदे के लिए किया जाता है। आगे आने वाले वर्षों में ऐसे सभी फर्जी प्रदर्शनकारियों से बचने की आवश्यकता है ताकि देश नई ऊंचाइयों को छू सके।

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