आजम-ओवैसी नहीं, भारतीय मुसलमानों को आरिफ मोहम्मद जैसे नेता की जरूरत है

आरिफ मोहम्मद खान

PC:newindianexpress.com

भारत को अपने विविधता के लिए पूरे विश्व में जाना जाता है। यहाँ विश्व के लगभग सभी धर्म के लोग निवास करते हैं और सभी संप्रदाय अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। भारत में बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक सभी को समान अधिकार देने के लिए संविधान में खास तौर से प्रबंध किया गया है। लेकिन भारत में कई ऐसे धर्म हैं जिसे कुछ राजनीतिक दल अपने वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करते आए हैं। उनमें से सबसे पहले नाम आता है मुस्लिम समाज का। इसका एक ही कारण है और वो है एक अच्छे नेता की कमी। जो भी नेता पहले से हैं वह सभी सिर्फ तुष्टीकरण की राजनीति में ही विश्वास करते हैं। आज इस संप्रदाय में कोई ऐसा नेता नहीं है जो आगे बढ़ कर अपने धर्म के साथ-साथ देश का नेतृत्व कर सके और इसमें व्याप्त कुरीतियों को दूर कर सके। अगर हम वर्तमान समय में मुस्लिम नेताओं की ओर देखें तो सिर्फ एक ही नेता नज़र आ रहे हैं जो इस संप्रदाय को प्रगतिशील और उन्नति के राह पर ले जा सकता है और वह हैं आरिफ मोहम्मद खान, जो वर्तमान में केरल के नए राज्यपाल के तौर पर कार्यरत हैं।

आज़ादी से पहले मोहम्मद अली जिन्ना धर्म के नाम पर समाज को बांट कर देश को ही विभाजित करवा दिया और आज भी यही हाल है कि अगर मुस्लिम समुदाय से कोई सामने आता है तो वह सिर्फ मुस्लिम वोट पर ही केन्द्रित होता है या कोई पार्टी चुनाव के दौरान अपना उम्मीदवार खड़ा करता है तो सिर्फ तुष्टीकरण की राजनीति के लिए। देश की राजनीति में मुसलमान एक बड़ा वोट बैंक है और सत्ता पर काबिज होने के लिए हर पार्टी को इस वोट बैंक की जरूरत पड़ती है। और ये जरूरत दशक दर दशक ये मजबूत ही हो रही है। देश की सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों में मुस्लिम नेताओं का कद बढ़ा है।

उदाहरण के तौर पर देखें तो आज के दौर में देश के अंदर सबसे प्रसिद्ध मुस्लिम नेता हैं असदुद्दीन ओवैसी और आजम खान। अपने स्वाभाव के अनुरूप आक्रामक बयान के लिए मशहूर ओवैसी को तेलंगाना का एक तेज तर्रार नेता माना जाता है। साथ ही ओवैसी मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों, विशेषकर हैदराबाद और सिकंदराबाद के मुस्लिम वोटरों के बीच अपनी ठीक-ठाक पकड़ भी रखते हैं। लेकिन उनके बयानों से यह बिल्कुल नहीं लगता कि वह मुस्लिम समाज का जरा भी हित चाहते हैं। हाल ही के उदाहरणों को देखें तो उन्होंने सरकार के ट्रिपल तलाक बिल का भी विरोध किया था जिसे आज के दौर में पाकिस्तान जैसे देश ने भी नकार दिया है। हैदराबाद में अत्याचार करने वाली राजकारों की पार्टी से ताल्लुक रखने वाले ओवैसी के बयान भी विवादित होते हैं। सिर्फ यही नहीं उन्होंने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के फैसले का भी विरोध किया था। यह सभी को पता है कि अनुच्छेद 370 के रहने से कश्मीरी महिलाओं को असमानता का सामना करना पड़ता था और इसी अनुच्छेद का इस्तेमाल कर पाकिस्तान अलगाववाद को बढ़ावा देता था।   तुष्टीकरण और वोट के लिए ओवैसी लगातार विवादित बयान भी देते रहते हैं। खुद को मुस्लिम समाज का नेता कहने वाले ही ट्रिपल तलाक और अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दों का समर्थन करेंगे और मुस्लिम समाज को आगे नहीं बढ़ने देंगे तो मुस्लिम समाज कैसे दुनिया से कदम मिला पाएगा?

अब आते हैं दूसरे नेता पर, जिनका नाम है आजम खान। समाजवादी पार्टी के लिए मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाले आजम खान अक्सर ही अपने बयानों और किए गए भ्रष्टाचारों के कारण चर्चा में रहते हैं। 90 के दशक में समाजवादी पार्टी के उदय के साथ ही उसके मुस्लिम चेहरे के तौर पर उभरे आजम खान ने सांप्रदायिक बयानों को अपना राजनीतिक हथियार बना लिया। ध्रुवीकरण की राजनीति के दौर में आजम को अपने समर्थकों के बीच मजबूत दिखने का यह सबसे आसान तरीका दिखा। इसको उन्होंने पार्टी के अंदर-बाहर दोनों ही जगह बखूबी इस्तेमाल किया। इसी के दम पर अपनी पत्नी तंजीम फातिमा को राज्यसभा सांसद और बेटे अब्दुल्ला आजम को विधायक बनवा दिया। जनाधार में महज रामपुर तक ही सीमित आजम केवल विवादों के बल पर ही सपा का राष्ट्रीय चेहरा हैं। 1989 में मुलायम सरकार में कैबिनेट मंत्री रहते हुए उन्होंने भारत माता को ‘डायन’ कह दिया था। यहां से सुर्खियां बटोरने के बाद आजम की जुबां और तीखी होती गई। 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे की पृष्ठभूमि जो घटना बनी, उनमें आरोपियों को छुड़ाने का आरोप लगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में विवादित बोल के कारण चुनाव आयोग ने आजम के प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया था। फिर 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी प्रत्याशी जयाप्रदा के खिलाफ अभद्र टिप्पणियां पूरे देश में सुर्खिंया बनीं। 4 मुकदमे हुए, चुनाव आयोग ने 72 घंटे के लिए बैन किया था और अभी हाल ही में इन्होंने सांसद रामा देवी पर भी अभद्र बयान दिया था। इस तरह के नेता सिर्फ अपनी राजनीति को ही देख रहे हैं मुस्लिम समाज का वोट लेकर कभी भी इस संप्रदाय की उन्नति की बात नहीं करते हैं।

वहीं कुछ दूसरे नेताओं को भी देखे तो वे भी कम नहीं हैं। चाहे वह हामिद अंसारी हों या सलमान खुर्शीद, ये सभी सिर्फ तुष्टीकरण की राजनीति ही करते आए हैं। किसी मुस्लिम संगठन के नेता भी ऐसे नहीं हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर इस समुदाय की बहेतरी की बात कर सकें।

ट्रिपल तलाक का समर्थन करने वाली ‘द प्रिंट’ की जेनाब सिकंदर का कहना है कि भारत में मुस्लिमों को शशि थरूर जैसे किसी नेता की जरूरत है जो अपने संस्कृति से जुड़ा रहे साथ ही आधुनिक युग में सुधारों की बात भी करता रहे। हालांकि अगर नज़र दौड़ाएं तो एक और नेता है जिसे मुस्लिम समाज सुधारों के साथ प्रोग्रेसिव सोच के लिए उनकी तरफ देख सकता है और वह हैं आरिफ मोहम्मद खान। मुसलमानों के लिए आज के समय में केवल दो बातें जरूरी हैं, पहली यह- सर सैयद अहमद खान की बात जो कि मुसलमानों की बेहतरी के लिए शिक्षा पर जोर देने की वकालत करते रहे और दूसरी दलवई की बात जो कि मुसलमानों को समान नागरिक समझने पर गौर करने को कह रहे हैं। आरिफ मोहम्मद खान इन दोनों ही बातों की वकालत करते हैं। आरिफ मोहम्मद खान छात्र जीवन से ही मुस्लिम समाज के सुधार के लिए काम करते रहे हैं। वे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के साथ-साथ इस्लाम की प्रगतिशीलता की वकालत करते रहे हैं। वर्ष 1984 में शाहबानो केस में जब राजीव गांधी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद द्वारा कानून बनाकर पलट दिया था तो उन्होंने सरकार के इस फैसले के विरोध में केंद्रीय मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। आरिफ मोहम्मद खान को प्रगतिशील मुस्लिम चेहरे के तौर पर जाना जाता है। तीन तलाक जैसे अहम मसलों पर भी उन्होंने मुखरता से अपनी राय रखी थी और इसे मुस्लिम महिलाओं के लिए अच्छा फैसला बताया था। कुछ महीने पहले उन्होंने तीन तलाक पर एक इंटरव्यू के दौरान आरफा खानम शेरवानी जैसे पत्रकारों को उनके रूढ़िवादी इस्लाम के लिए जमकर लताड़ लगाई थी। एक बार जब करण थापर ने आरिफ मोहम्मद खान से पूछा था कि क्या आपको इस तथ्य को लेकर चिंता नहीं होती कि मोदी सरकार में एक भी मुस्लिम सांसद नहीं है और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भी भाजपा ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी चुनावी मैदान में नहीं उतारा। इस सवाल के जवाब में खान ने कहा,  ‘मुझे इसे लेकर कोई चिंता नहीं होती..और ये चिंता का सवाल आया कहां से? वास्तव में आज तक हम उपनिवेशक मानसिकता से बाहर ही नहीं निकल पाए हैं।” उन्होंने आगे कहा, मूल रूप से ये अंग्रेजों की देन है जिन्होंने हमारे मन में ये बातें भरी कि एक मुसलमान ही मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कर सकता है, एक समुदाय से आने वाला व्यक्ति ही उस समुदाय का प्रतिनिधित्व कर सकता है। और यही वजह है कि हमारे देश में समुदाय के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र बनाये गये हैं”।

गौरतलब है कि पिछले सत्तर सालों से देश में एक अजीब तरह का विमर्श जारी है और मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति धर्मनिरपेक्षता का पर्यायवाची बन गई थी। जाति की राजनीति को सामाजिक न्याय की राजनीति का नाम दिया गया, पर हिंदू की बात करना सांप्रदायिकता की राजनीति माना गया। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिमों के तुष्टिकरण की राजनीति अगर खत्म करनी है तो देश के मुसलमानो को आरिफ मोहम्मद खान से सीखना चाहिए और उन्हें अपने नेता के तौर पर देखना चाहिए। तभी ये समाज प्रगतिशील समाज बन पाएगा।

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