सेक्शन 375 की निष्पक्ष समीक्षा – छद्म नारीवाद पर करारा प्रहार करती है ये फिल्म

सेक्शन 375

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अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू की सुपरहीट फिल्म पिंक में एक बड़ा मशहूर डायलॉग है- ‘नो मीन्स नो’। यौन शोषण की पीड़िताओं का पक्ष इस फिल्म ने बड़े ज़ोर शोर से उठाया था, और महिला की सहमति का मुद्दा भी उठाया। परंतु क्या आरोपी ही हर वक्त दोषी होता है? क्या वह निर्दोष नहीं हो सकता?

हाल ही में एक फिल्म रिलीज हुई थी जिसका नाम है ‘सेक्शन 375’। आजकल यह काफी चर्चा में है। इसे निर्देशित किया है अजय बहल ने और इसमें मुख्य भूमिकाएँ निभाई हैं अक्षय खन्ना, रिचा चड्ढा, राहुल भट्ट और मीरा चोपड़ा ने।

ये कहानी है एक फिल्म निर्देशक रोहन रवि खुराना की, जिसके ऊपर उसके अगले फिल्म की जूनियर कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर अंजलि वसुदेव दांगले दुष्कर्म का आरोप लगाती हैं। रोहन जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध मुंबई हाई कोर्ट में अपील दर्ज करता है। रोहन के वरिष्ठ अधिवक्ता तरुण सलूजा केस का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि अंजलि की ओर से तरुण की पूर्व शिष्या और पब्लिक प्रोसेक्यूटर हिरल गांधी कोर्ट में केस लड़ने के लिए सामने आती हैं। अब प्रश्न सिर्फ यही है – रोहन और अंजलि के बीच जो कुछ भी हुआ – वह मर्ज़ी से हुआ या फिर रोहन की ज़बरदस्ती से?

इस फिल्म को अगर शब्दों की सीमा में बांध सकें तो मैं बस इतना ही कहूँगा – अद्भुत। ये फिल्म कई लोगों के कई प्रकार की भ्रमों को न सिर्फ तोड़ेगी, बल्कि उन्हे अंदर तक झकझोर कर रख देगी। आईपीसी की धारा 375 एक दो धारी तलवार की तरह मानी जाती है, जिसके अगर फायदे हैं तो नुकसान भी हैं। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर एक इंगेजिंग कोर्टरूम ड्रामा बनाना कोई हंसी मज़ाक की बात नहीं है, परंतु इसे अजय बहल ने न केवल संभव कर दिखाया है, बल्कि उन्हें न्यायपालिका, मीडिया, यहाँ तक कि आरोपी और पीड़ित पक्ष, किसी को नहीं छोड़ा। कानून और न्याय के बीच का क्या अंतर है, और इसका ज्ञान न होने के क्या दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं, ये सेक्शन 375 बड़ी बखूबी से दिखाता है।

रही बात अभिनय की, तो यहाँ हर कलाकार ने अपनी भूमिका में मानो जान डाल दी है। चाहे वे तरुण सलूजा की भूमिका में अक्षय खन्ना हों, हिरल गांधी के रोल में रिचा चड्ढा हो, या फिर अभियुक्त के तौर पर राहुल भट्ट और पीड़िता के तौर पर मीरा चोपड़ा ही क्यों न हो। इस फिल्म में कोई व्यक्तिगत विलेन नहीं है, परंतु उसकी कमी मीडिया कवरेज ने पूरी की है। जिस तरह के मीडिया ट्रायल में बिना ठोस सबूत पहले ही निर्णय सुनाया दिया जाता है, उसे इस फिल्म में ‘बाटला हाउस’ से भी बेहतर उजागर किया गया है।

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