मुंबई में जो हुआ उसकी आंच पटना तक आएगी, CM की कुर्सी को आखिरी बार देख लो नितीश बाबू

इस साल के अंन्त में महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और सीट बंटवारे को लेकर अब भाजपा और शिवसेना के बीच तनातनी बढ़ती नज़र आ रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, शिवसेना 135 सीटों की बजाय 125 सीटों पर ही चुनाव लड़ सकती है, जबकि भाजपा 145 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार सकती है। इसके अलावा 18 सीटें अन्य साथी दलों के लिए भी छोड़ी जा सकती है। भाजपा की स्थिति राज्य में पहले से ज़्यादा मजबूत हुई है और अब वह शिवसेना की बजाय खुद बड़े भाई की भूमिका निभाना चाहती है। ऐसे में सीट बंटवारे के जरिये भाजपा ने शिवसेना को यह साफ संकेत दे दिए हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के मजबूत नेतृत्व वाली भाजपा अब अकेले ही राज्य में बहुमत हासिल करने का दमखम रखती है। ऐसे में शिवसेना को भाजपा की शर्तों को मानने पर मजबूर होना ही पड़ेगा। इसी के साथ-साथ भाजपा ने नितीश कुमार जैसे नेताओं को भी कड़ा संदेश भेजा है जो एनडीए में रहते हुए भाजपा विरोधी नीति का अनुसरण करते दिखाई दे रहे हैं।

बता दें कि शिवसेना ने फिर एक बार ठीक उसी तरह भाजपा की आलोचना करना शुरू कर दिया है जैसे उसने लोकसभा चुनावों से पहले किया था। शिवसेना जहां इकॉनोमी के मुद्दे पर भाजपा पर हमला बोल रही है, तो वहीं भाजपा पर दबाव बनाने के लिए उसके प्रवक्ता यह बयान तक दे चुके हैं कि शिवसेना ही राज्य में बड़े भाई की भूमिका में रहेगी। हालांकि, शायद उन्हें इस बात का नहीं पता है कि छोटा भाई कौन होगा और बड़ा भाई कौन, इसको तय करना वाली जनता होती है ना कि कोई नेता। अगर जनता के मूड को जानने का प्रयास किया जाये तो यह स्पष्ट है कि जनता पीएम मोदी और सीएम फडणवीस के नेतृत्व वाली भाजपा का समर्थन करने में ही अपनी और अपने राज्य की भलाई समझती है।

आज की बात करें तो मोदी लहर और फडणवीस के कार्यों की वजह से महाराष्ट्र में बीजेपी की पकड़ शिवसेना के मुकाबले काफी मजबूत हुई है जो शिवसेना को बिलकुल रास नहीं आ रही है। यहां तक कि वो कई बार ये तक दिखाने का प्रयास करती है कि वो दोनों साथ में चुनाव नहीं लड़ेगे और महाराष्ट्र में भी उनका गठबंधन टूट जायेगा। हालांकि, वो ये पार्टी ऐसा नहीं करती है क्योंकि वर्ष 2014 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना और बीजेपी दोनों ही पार्टियों ने अकेले चुनाव लड़ा था तब बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन राज्य में सत्ता कायम करने के लिए दोनों पार्टियां एक बार फिर से एक साथ आयी थीं। तब भाजपा को राज्य की 122 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और शिवसेना केवल  63 सीट ही जीत पाई थी। इन नतीजों से शिव सेना को ये बात समझ आ गयी कि बीजेपी पहले की तरह कमजोर नहीं रही। ऐसे में अकेले चुनाव लड़ने पर उसकी पकड़ और कमजोर हो जाएगी। यही वजह है शिवसेना भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ जहर तो उगलती है लेकिन साथ नहीं छोड़ती है।

अब भाजपा शिवसेना को यह कड़ा संदेश भेज चुकी है कि अगर वह भाजपा की सहमति से सीट शेयरिंग फॉर्मूले पर राज़ी नहीं होती है तो उसे भाजपा डंप भी कर सकती है। अगर भाजपा ऐसा करती है तो इसका सबसे बड़ा नुकसान शिवसेना को ही होगा क्योंकि अपने दम पर सत्ता में आने के लिए उसके पास लोगों का समर्थन नहीं है। भाजपा ने यहां केवल शिवसेना को ही नहीं, बल्कि ऐसे सभी नेताओं को संदेश भेजा है जो भाजपा के दम पर सत्ता में होने के बावजूद बड़ी ही बेशर्मी से भाजपा के खिलाफ बोलने से नहीं हिचकते हैं।

दरअसल, भाजपा और बिहार में उसके सहयोगी दल जेडीयू के बीच के संबंध फिलहाल ठीक नहीं है। लोकसभा चुनाव में राज्य के 40 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज़ करने के बावजूद भाजपा और जेडीयू के बीच तनातनी कायम है। चाहे बाकी राज्यों में अलग होकर चुनाव लड़ने की घोषणा हो, या फिर जम्मू कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का विरोध करना हो, या फिर जेडीयू के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर का ममता बनर्जी के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव लड़ने की नीति बनाने पर काम करना हो। ये सभी कदम साफ दर्शाते हैं कि जेडीयू भले ही एनडीए का घटक दल है, लेकिन वो इसका हिस्सा बने रहने के मूड में नजर नहीं आ रहा। नितीश कुमार को अब भी यही लगता है कि वे ही राज्य में प्रधान की भूमिका में हैं लेकिन यह भी किसी से छुपा नहीं है कि लोकसभा चुनावों में उनकी सफलता के पीछे उनका भाजपा के साथ होना भी एक बड़ा कारण था। भाजपा की वजह से ही नितीश कुमार की पार्टी को 16 सीटें हासिल हुई थी जबकि पिछली बार इस पार्टी को केवल दो ही सीटें ही मिली थीं। हालांकि, चुनावों के बाद से ही जिस तरह जेडीयू ने भाजपा विरोधी राग को अलापना शुरू किया है, अब उसी के मद्देनजर महाराष्ट्र में अपने सख्त रुख से भाजपा ने नितीश कुमार को भी कड़ा संदेश भेजा है।

अब भाजपा को यह देखना चाहिए कि क्या इससे इन पार्टियों के व्यवहार में कोई अंतर आता है या नहीं, और अगर अब भी इन पार्टियों का भाजपा-विरोध यूं ही जारी रहता है तो भाजपा को इन्हें डंप करने से भी नहीं हिचकना चाहिए।

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