एक लड़की को बचाने के लिए उसके माँ बाप कीमोथेरेपी कराते हैं, और कई वर्षों के बाद उसके साइड इफेक्ट के तौर पर उस लड़की को एक घातक बीमारी हो जाती है, और उसके पास जीने के लिए कुछ ही वर्ष बचते हैं। सच पूछें तो एक अच्छे प्लॉट का कबाड़ा कैसे किया जाता है, ये आप ‘द स्काई इज पिंक’ मूवी से सीख सकते हैं। इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभा रही हैं प्रियंका चोपड़ा जोनस और ज़ायरा वसीम, और इनका साथ दिया है फरहान अख़्तर, रोहित सराफ़ और राजश्री देशपांडे जैसे कलाकारों ने।
द स्काई इज पिंक की कथा आईशा चौधरी के वास्तविक जीवन पर आधारित है। आईशा चौधरी को पैदा होते ही SCID यानि Severe Combined Immunodeficiency हो जाता है, जिसके लिए उसके माता-पिता उसे बेहतर उपचार के लिए लंदन ले जाते हैं। वहाँ पर बोन मैरो ट्रांसप्लांट के एवज में हुई कीमोथेरेपी के कुछ वर्ष बाद आईशा को पलमोनरी फाइब्रोसिस हो जाता है, डॉक्टरों के अनुसार यह एक लाइलाज बीमारी है। कैसे आईशा इस घातक बीमारी में सबको जीवन जीने का सही तरीका सीखाती है, और कैसे वो अंत समय में अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है, ये पूरी फिल्म इसी के इर्द गिर्द घूमती है।
सबसे पहले बात करते हैं इस फिल्म के गुणों के बारे में। अपनी विचारधारा से इतर प्रियंका चोपड़ा जोनस ने अपने अभिनय में परिपक्वता दिखाने का पूरा प्रयास किया है। आईशा की माँ अदिति के रूप में उन्होंने अपने अभिनय के कई शेड्स से दर्शकों को परिचित कराया है। पूरे 3 वर्ष बाद किसी बॉलीवुड मूवी में एक कमबैक के तौर पर निश्चित ही यह एक सराहनीय प्रयास है। फरहान अख़्तर ने भी अपने रोल के साथ न्याय करने का पूरा प्रयास किया है, जो द स्काई इज पिंक में साफ दिखता है।
इसके अलावा द स्काई इज पिंक में पुरानी दिल्ली को भी एक नए सिरे से दिखाने का प्रयास किया गया है। परंतु इस फिल्म की एक्स फ़ैक्टर थीं ज़ायरा वसीम, जो एक सधे और कसे हुए प्लॉट के साथ और कमाल भी कर सकती थी। आईशा चौधरी के रूप में ज़ायरा वसीम ने इस फिल्म को बांधकर रखने का बीड़ा उठाया है, जो फिल्म बनाने की शैली को देखते हुये उसके बिना शायद बिखर भी सकती थी।
परंतु दुर्भाग्यवश द स्काई इज पिंक के अवगुण इसके गुणों को छुपा देते हैं। इस फिल्म के साथ आप चाहकर भी कनेक्ट नहीं हो पाएंगे, और यही इस फिल्म की सबसे बड़ी विफलता है। टर्मिनल बीमारी को दिखाने में हमारे बॉलीवुड को अक्सर असफलता ही हाथ लगी है, और इस फिल्म के साथ इस स्थिति में कोई भी व्यापक बदलाव देखने को नहीं मिलता है।
यूं तोद स्काई इज पिंक केवल 2 घंटा 20 मिनट से कुछ ही मिनट ज़्यादा लंबी है, परंतु स्टोरी टेलिंग कई जगह इतनी उबाऊ लगती है कि आप एक बार को सोचोगे : यह मूवी ही है न? इस फिल्म के गाने भी ज़्यादा मधुर नहीं हैं, और कुछ जगह तो ज़बरदस्ती ठूँसे हुये से लगते हैं। जिस तरह से इस फिल्म को नरेट किया गया है, उससे यह फिल्म आवश्यकता से ज़्यादा प्रेडिक्टेबल लगती है।
द स्काई इज पिंक का मूल संदेश था जीवन को सही ढंग से जीना और अंत समय को एक नए दृष्टिकोण से देखना, परंतु इस फिल्म की शैली को देखते हुये हमें बड़ी निराशा के साथ कहना पड़ रहा है कि ये मूवी इस संदेश को समझा पाने में असफल रही है। यह बात इसलिए भी और ज़्यादा निराशाजनक है, क्योंकि इस फिल्म की निर्देशक वही सोनाली बोस हैं, जिन्होनें ‘अमू’ और ‘मार्गरीटा विथ अ स्ट्रॉ’ जैसी कथ्यपरक फिल्में बनाई थीं।
क्या ‘द स्काई इज पिंक’ घटिया फिल्म है? नहीं। पर क्या यह जीवन जीने का एक नया दृष्टिकोण बताने में सफल रही है? बिलकुल नहीं। ये एक उत्कृष्ट मूवी हो सकती थी, परंतु इसके क्रियन्वयन में परिपक्वता की कमी के कारण ये एक बेहतरीन मूवी नहीं बन पायी। टीएफ़आई की ओर से इसे मिलते हैं 5 में से 2.5 स्टार।