भाजपा की सबसे बड़ी गलतफहमी – विपक्ष खत्म चुका है, लेकिन वे जिंदा हैं!

विपक्ष

(PC: Money Control)

लोकसभा चुनाव के बाद देश में फिर से राजनीतिक चर्चाएं शुरू हो गई हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे बड़े और अग्रणी राज्यों में विधानसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश, बिहार में उपचुनाव हो चुके हैं और इसके परिणाम बस आने ही वाले हैं। लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद विपक्ष की दयनीय हालात देखकर यही कहा जा रहा था कि देश में विपक्ष न के बराबर है। लेकिन यह 5 महीने बाद ही यह स्पष्ट हो गया कि देश में लोकतन्त्र की जड़ें मजबूत हैं और अगर कोई पार्टी जमीनी स्तर पर राजनीति करे तो वह अपना परचम लहरा सकती है। महाराष्ट्र में NCP का और हरियाणा में जन नायक जनता पार्टी का उदय यही दिखाता है कि देश की जनता सर्वोपरी है और किसी एक पार्टी या नेता का यहां हमेशा राज नहीं चलने वाला।

देश की वर्तमान राजनीतिक माहौल की तुलना पिछले 72 वर्षों की स्वतन्त्र भारतीय राजनीति के किसी भी कालखंड से नहीं की जा सकती है। हालांकि इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि राजनीति में बहुविविधता लगातार सिकुड़ता जा रहा है, जो विचार वैविध्यता को संकीर्णता के दायरे में ला रही है। पिछले सात दशकों से कांग्रेस भारी बहुमत से आया करती थी परन्तु छोटी-छोटी संख्या में आने वाले राजनीतिक दल लगातार सरकार को अपने तर्कों एवं जागरूकता से दबाव में रखते थे, अपनी जीवंत एवं प्रभावी भूमिका से सत्ता पर दबाव बनाते थे, यही लोकतंत्र की जीवंतता का प्रमाण था। लेकिन वर्ष 2014 के बाद और मोदी सरकार में यह कहा जा रहा था कि विपक्ष की जमीन ही नहीं बची। यह भी कहा जा रहा था कि विपक्ष की स्थिति इतनी बदतर हो चुकी है कि चुनावों से पहले ही स्पष्टता एवं दृढ़ता के साथ भविष्यवाणी की जा सकती है कि सत्ता में फिर से भाजपा ही आयेगी। महाराष्ट्र व हरियाणा में विधानसभा चुनाव परिणामों के बारे में यही कहा जा रहा था। लेकिन चुनाव परिणामों के रुझान को देखते हुए यह सभी कथन गलत साबित होता जा रहा है। यह गलत साबित होना देश की मजबूत लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत है।

हालांकि यह सच है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष वैचारिक, राजनीतिक और नीतिगत आधार पर सत्तारूढ़ दल का विकल्प प्रस्तुत करने में नाकाम रही है। उसने सत्तारूढ़ भाजपा की आलोचना की, पर कोई प्रभावी विकल्प नहीं दिया। मुद्दा विहीनता उसके लिए इतनी अहम रही है कि कई बार राष्ट्रीय मुद्दों पर उसने जुबान भी नहीं खोली। लोकतंत्र तभी आदर्श स्थिति में होता है जब मजबूत विपक्ष होता है। महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे BJP के गढ़ माने जाने वाले इन दोनों ही राज्यों में NCP और कांग्रेस का फिर से उत्थान यही दिखाता है कि राज्यों के चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों के अलावा क्षेत्रीय मुद्दों का अधिक प्रभाव होता है।

एक कहावत है कि आग के लिए पानी का डर जरूरी होता है। इसी तरह से राजनीति में लोकतन्त्र के लिए विपक्ष का होना उतना ही जरूरी है। अगर हम इतिहास को देखें तो यह पता चलता है कि जब जवाहर लाल नेहरू सत्ता के चरम पर थे तब एक व्यक्ति ने दिखाया था कि विपक्ष क्या होता है। वह थे राम मनोहर लोहिया। राम मनोहर लोहिया की रचनात्मक राजनीति और अद्भुत नेतृत्व क्षमता का प्रभाव इतना दूरगामी रहा कि उनके जाने के करीब 20 सालों बाद ही उनके सिद्धांतों को मानने वाली कई क्षेत्रीय पार्टियां भारतीय लोकतंत्र के पटल पर छा चुकी हैं। बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने भी अपने ओजस्वी व्याख्यानों से संसदीय बहस की उत्कृष्ट परंपरा में अविस्मरणीय योगदान दिया, जिसे पं. नेहरू ने भी प्रोत्साहित किया था।

हालांकि आज लोहिया जैसा कोई विपक्ष का नेता तो नहीं है लेकीन 2014 के बाद जिस तरह से विपक्ष को नगण्य मन लिया गया था, इस बार की विधानसभा चुनाव ने इस भ्रम को तोड़ दिया है। रुझानों से पहले सभी ने यह मान लिया था कि इन दोनों ही राज्यों में भाजपा ही क्लीन स्वीप करेगी। लेकिन उम्मीद के उलट इन दोनों ही राज्यों में भाजपा को विपक्षी पार्टियों से कांटे की टक्कर मिल रही है। एक तरफ महाराष्ट्र में 79 वर्षीय शरद पवार ने अपनी क्षेत्रीय राजनीति का दांव खेलते हुए 50 से ज्यादा सीटों पर आगे चल रही है, तो वही हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा ने कांग्रेस को फिर से जिंदा किया। वहीं दुष्यंत चौटाला की जन नायक जनता पार्टी का उदय यह दिखाता है कि विपक्ष अगर सही मुद्दों जैसे- व्यापार, अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, ग्रामीण जीवन एवं किसानों की खराब स्थिति के दम पर लड़े तो वह जनता को आकर्षित कर सकती है। वहीं भाजपा का अति-आत्मविश्वास भरी पड़ा है, इसके साथ ही भाजपा का चुनाव प्रचार में स्थानीय मुद्दों को न उठाकर राष्ट्रीय मुद्दों पर ज्यादा फोकस रहना भी काफी महंगा पड़ा है।

एक सशक्त विपक्ष किसी भी लोकतंत्र की जीवंतता और मूल्यों की रक्षा के लिए बहुत जरूरी है। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि सकारात्मक राजनीति के लिए नैतिक निष्ठा की आवश्यकता होती है, और इसके लिए देश की जनता की यही इच्छा होती है कि उनका नेता एक परिपक्व नेता हो। विपक्ष में भी वह इन्हीं मूल्यों को तलाशता है। तभी एक विपक्षी नेता लोहिया, जय प्रकाश नारायण और अटलबिहारी जैसे विपक्षी की भूमिका निभा पाएंगे। इससे देश की राजनीति और लोकतंत्र दोनों दिलचस्प होगा।

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