डियर आरे एक्टिविस्ट्स! Hiranandani Complex और Film City पहले जंगल था, क्या वहां JCB चला दिया जाए

आरे

देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई के गोरेगांव इलाके की आरे कॉलोनी में पेड़ों की कटाई का लोग जोरदार विरोध कर रहे हैं। देश की सर्वोच्च न्यायालय ने 2,700 पेड़ों की प्रस्तावित कटाई को ग्रीन सिग्नल दे दिया है क्योंकि इस परियोजना का प्रस्तावित पर्यावरण लाभ पेड़ों को काटने की लागत से ज़्यादा थे।
परंतु सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद विरोध प्रदर्शन जारी हैं, और देश के विकासशील परियोजनाओं को रोकने और भ्रामक खबरें फैलाने में हमारे कथित पर्यावरणविद एक बार फिर आगे आ चुके हैं। ऐसे में हमारी मीडिया और इंस्टेंट फेम के भूखे बॉलीवुड सितारे भला कैसे पीछे रहते; उन्होने भी विरोध प्रदर्शनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इससे ज़्यादा विडम्बना क्या हो सकती है कि जो लोग स्वयं ‘आरे’ के बीचो-बीच पेड़ काट कर बनाए गए फिल्म सिटी में शूटिंग करते हैं, वो अब पर्यावरण पर उपदेश दे रहे हैं।

यह कहना गलत नहीं होगा कि मुंबई का इनफ्रास्ट्रक्चर दिन-ब-दिन वहां की आबादी के बोझ तले दबता जा रहा है और इस शहर के डीकंजेस्ट करने के लिए अहम इनफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की सख्त आवश्यकता है। दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन को अपना हथियार बना चुके कुछ लोग सरकार गिराने और विकासशील परियोजनाओं को रोकने की जद्दोजहद में लगे हुये हैं, और ‘आरे’ वन क्षेत्र के एक क्षेत्र की कटाई का अंधविरोध इसी सुनियोजित योजना का एक हिस्सा मात्र है।

इस विरोध का एजेंडा परस्त होना इसी बात से पता चल जाता है जब बॉलीवुड अभिनेता मनोज बाजपेयी और अभिनेत्री दिया मिर्ज़ा ने कुछ ही मिनटों के अंतराल में एक समान ट्वीट किए थे, ताकि वे आरे के वन क्षेत्र में हो रही कटाई के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठा सकें। इन लोगों की चेतना तब कहाँ चली गयी थी जब आरे क्षेत्र के एक बड़े हिस्से को काटकर फिल्म सिटी का निर्माण किया जा रहा था? दूसरों को पर्यावरण विरोधी बोलने वाले यह अवसरवादी लोग स्वयं लग्जरी वाहनों के बिना एक दिन भी नहीं रह सकते।

सच बोलें तो फिल्म सिटी के निर्माण में पर्यावरण का काफी नुकसान हुआ था। दादासाहेब फाल्के चित्रनगरी के नाम से जानी जाने वाली फिल्म सिटी एक इंटीग्रेटेड स्टूडियो कॉम्प्लेक्स है, जिसमें लगभग 42 आउटडोर शूटिंग परिसर उपलब्ध हैं, और यह आरे वन क्षेत्र में लगभग 210 हेक्टेयर लंबे कैम्पस में फैली हुई है। आरे क्षेत्र कुल 1300 हेक्टेयर में फैली हुई है और राज्य सरकार ने प्रस्तावित मेट्रो डिपो के लिए 25 हेक्टेयर क्षेत्र को चिन्हित किया है, जो आरे क्षेत्र का मात्र 2 प्रतिशत ही हो सकता है।

बात यहीं पर नहीं रुकती। फिल्म सिटी का अभी हाल ही में कायाकल्प प्रस्तावित किया गया है, जो 2600 करोड़ रुपये की लागत से तैयार किया जाएगा, जिसमें और इंडोर स्टूडियो एवं आउटडोर लोकेशन, एक संग्रहालय, एक थीम पार्क, बेहतर पोस्ट प्रोडक्शन सुविधाएं, फूड कोर्ट, होटल और एम्फीथिएटर की सुविधाएं उपलब्ध की जाएंगी। अब किसी को इससे आरे वन क्षेत्र में होने वाले नुकसान का अंदाज़ा लगाने के लिए पर्यावरण विशेषज्ञ बनने की कोई आवश्यकता नहीं है, परंतु फिल्म सिटी बनाने में होने वाले नुकसान के लिए दिया मिर्ज़ा जैसे लोगों की आँखों से कोई आँसू नहीं निकलता। पर उनके बारे में बाद में।

कथित पर्यावरणविदों ने अपने विरोध अभियान में ये मुद्दा भी उठाया है कि यदि कार शेड का निर्माण हुआ, तो संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान के पास होने के कारण मनुष्यों और जानवरों के बीच की मुठभेड़ बढ़ सकती है। परंतु सच्चाई तो यह है कि प्रस्तावित मेट्रो शेड संजय गांधी राष्ट्रीय वन उद्यान के बफर सीमा से कोसों दूर है और यह केवल इस प्रोजेक्ट को रोकने के लिए प्रयोग की जाने वाली एक सफ़ेद झूठ है। उल्टे इसी वर्ष फिल्म सिटी में एक टीवी सेट के पास तेंदुए और हिरणों के अवशेष पाये गए थे, जिससे स्पष्ट होता है कि कैसे फिल्म सिटी के क्षेत्र में अवैध शिकार को बढ़ावा दिया जाता है, जिसमें जंगली पशुओं को पकड़ने के लिए 30 सक्रिय वायर स्नेयर भी बरामद हुये हैं। परंतु इसके विरुद्ध अभी तक न कोई विरोध प्रदर्शन हुआ है और आगे शायद ही कभी होगा।

जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने सभी याचिकाओं को ठुकराते हुये ऐसे अवसरवादी याचिकाकर्ताओं पर 50000 रुपये का जुर्माना लगाया, तो पता चला कि याचिकाकारता बीजू औगस्टीन रॉयल पाम्स नामक सोसाइटी में रहते थे, जो आरे क्षेत्र में लगभग 240 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है। ये न केवल संजय गांधी राष्ट्रीय वन उद्यान के निकट है, बल्कि इसका काँग्रेस नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने उद्घाटन भी किया था। रॉयल पाम्स एक 240 एकड़ के क्षेत्र में स्थित मिश्रित कैम्पस है, जिसमें व्यावसायिक केंद्र, रिहायशी इलाके, मॉल और होटल भी हैं।

इसी कैम्पस में तीन और होटल भी बनाए गए हैं– 2005 में निर्मित द पाम्स होटल, सभी प्रकार की सुविधाओं से सुसज्जित पाम्स विला होटल, और 422 कमरों वाला इम्पीरियल पैलेस, जिसका निर्माण 2009 में हुआ था। इनके निर्माण में कोई बाधा नहीं आई थी, क्योंकि ये तथाकथित पर्यावरणविद और एक्टिविस्ट के एजेंडा के अनुरूप नहीं बैठता था। ये बात ऋचा चड्डा जैसे अवसरवादी सेलेब्रिटी के कथन से भी साफ दिखता है, इनके लिए मेट्रो तभी तक उपयोगी रहता है, जब तक उससे इनका हित होता रहे। विश्वास नहीं होता तो इस वीडियो को ही देख लीजिये, जिसे बाला नाम के एक ट्विटर हैंडल ने शेयर किया है

ऐसे में इस एनजीओ व बॉलीवुड ब्रिगेड की आरे क्षेत्र के विरोध प्रदर्शन पर कलई खुलते देर नहीं लगी। फिल्म सिटी और रॉयल पाम्स कॉलोनी पर इनकी चुप्पी सिद्ध करती है कि इनका मुख्य ध्येय भारत की विकासशील परियोजनाओं पर रोक लगाकर भारत के प्रगति रथ को पटरी से उतारना है, जैसे इन्होने कुडनकुलम परमाणु संयंत्र और स्टर्लाइट के साथ किया था।

इसके अलावा इन कथित एक्टिविस्टों द्वारा सुझाए गए विकल्प भी ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि मुंबई मेट्रो किसी भी स्थिति में सफल न होने पाये।

परंतु एक तथ्य तो यह भी है कि मुंबई मेट्रो की इस परियोजना को जापान से फंडिंग मिली है, जिन्होने यह निर्णय इस परियोजना के पर्यावरण के अनुकूल होने पर एक वर्ष के गहन अध्ययन के बाद ही लिया था। कार डिपो के लिए प्रस्तावित भूमि से प्रभावित पेड़ों की संख्या 2700 है, जिनका CO2 अब्ज़ोर्प्शन क्षमता प्रतिवर्ष 80-90 टन होती। परंतु निर्मित होने के बाद मेट्रो की फेस 3 लाइन 2.25 लाख टन CO2 कम करती। इसकी पुष्टि स्वतंत्र रूप से UNFCC के ऑडिटर्स ने किया है।

मुझे पता है कि यहाँ मानव जीवन का क्या मोल है, जिसे अंधेरी स्टेशन से चर्चगेट के लिए प्रतिदिन प्रात:काल को एक लोकल ट्रेन पकड़ कर शाम को एक विरार लोकल से वापस आना पड़ता है। मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि कैसे अंधेरी स्टेशन को प्रतिदिन 7 लाख यात्रियों का बोझ सहना पड़ता है।

अभी मुंबई में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए उचित इनफ्रास्ट्रक्चर की सख्त आवश्यकता है और ऐसा न होने पर एक भयानक हादसा हो सकता है। बाद में यही एनजीओ बॉलीवुड ब्रिगेड सरकार को घटिया इनफ्रास्ट्रक्चर के लिए कोसती फिरेगी। श्रद्धा कपूर हो या फिर दिया मिर्ज़ा, इनके जैसे अमीर एक्टिविस्ट कभी भी खचाखच भरे लोकल ट्रेनों में पिसने की पीड़ा नहीं समझ पाएंगे। मुंबई में हर दिन अत्यधिक भीड़ के कारण 10 लोगों की मृत्यु होती है, जिसे कम करने के लिए सरकार मेट्रो परियोजना लागू करना चाहती है, परंतु यदि प्रशासन इन कथित एक्टिविस्टों की सुनता, तो भारत के माध्यम वर्गों को बैलगाड़ी में जाना पड़ता, और अभिनेताओं और एक्टिविस्टों को अपने लक्ज़री गाड़ियों में घूमने की आज़ादी मिलती।

Exit mobile version