हरियाणा और महाराष्ट्र चुनावों के परिणाम घोषित हो चुके हैं। दोनों ही राज्यों में एनडीए सरकार बनाने जा रही है। जहां महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना पुनः एक साथ मिलकर सरकार बनाएगी वहीं हरियाणा में भाजपा निर्दलीय विधायकों के सहयोग से सरकार बनाने जा रही है। भाजपा को हरियाणा में पिछली बार की तुलना में सात सीटों की हानि उठानी पड़ी है। एक बार को तो ऐसा लग रहा था कि संभवतः भाजपा को हरियाणा से हाथ भी धोना पड़ सकता है।
जिस हरियाणा ने भाजपा को लोकसभा चुनाव में 10 में से 10 सीटें दी थी, वहीं विधानसभा चुनाव जीतने में उसे एड़ी चोटी का ज़ोर क्यों लगाना पड़ा? इसका कारण है ‘जाट’ वोट। जहां पिछली बार चुनाव में जाट वोट इनेलो और कांग्रेस में लगभग आधे-आधे बाँट गए थे वहीं इस बार जाट समुदाय का वोट परिगणित और पूर्व-निर्धारित था और इसका प्रभाव भाजपा के सीटों में गिरावट के रूप में देखी जा सकती है। जहां महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणनवीस मराठा आक्रोश को किसी हद तक शांत करने में सफल रहे वहीं खट्टर जाट समुदाय को तुष्ट करने में विफल रहे हैं। हरियाणा की राजनीति पर सदा से जाट समुदाय का प्रभुत्व रहा है। इसी समुदाय से राज्य के अधिकतर मुख्यमंत्री भी आयें हैं ऐसे में खट्टर का मुख्यमंत्री बनना जाट समुदाय के लिए सिंहासन जाने के जैसा था। इस पर जाट आरक्षण का विषय अंत तक खट्टर के लिए गले की हड्डी ही बना रहा।
हरियाणा में जाटों की जनसंख्या लगभग 25% है। कृषि और भूमि से जुड़े व्यवसायों में इस समुदाय का वर्चस्व है। जाट सामाजिक और राजनैतिक रूप से सक्षम समुदाय है और राज्य के राजनैतिक संभाषण में इनकी बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी है, ऐसे में ये स्वाभाविक ही है कि जाट समुदाय अपने में से ही किसी एक को मुखिया चुनना चाहेगी। खट्टर पंजाबी खत्री समुदाय से आते हैं और अनाधिकारिक रूप से इस बार भी वे ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। परंतु एक छोटा सा बदलाव करके भाजपा अपने सीटों को कम होने से बचा सकती थी। भाजपा के सबसे कद्दावर जाट चेहरों में से एक हैं कैप्टन अभिमन्यु, जो हरियाणा राज्य से ही आते हैं। हालांकि पूर्व-निर्धारित तरीके से हुए मतदान में कैप्टन अभिमन्यु अपनी सीट हार गए परंतु अगर उनका प्रयोग चुनाव में संभावित उपमुख्यमंत्री के रूप में किया जाता तो संभवतः कैप्टन अभिमन्यु ना सिर्फ अपनी सीट जीतते बल्कि भाजपा को भी एक विशाल आंकड़ा दिलवाते।
उपमुख्यमंत्री का पद वैसे तो एक ‘सम्मानार्थ’ पद ही है परंतु इसका जो संदेश समाज को या ऐसे कहें कि समाज के कुछ वर्ग विशेषों में जाता है वो अत्यंत शक्तिशाली होता है। इसके लिए मैं दो उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ। एक राज्य की राजनीति से और दूसरा राष्ट्रीय राजनीति से और दोनों ही उदाहरणों में पार्टी भाजपा ही है। जब 2017 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में एक विशाल विजय अर्जित की तो मुख्यमंत्री को लेकर स्थिति साफ नहीं थी। फिर भाजपा एक मुख्यमंत्री और दो उपमुख्यमंत्री के समीकरण के साथ आगे बढ़ी। जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजपूत समुदाय से आते हैं वहीं उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ब्राह्मण समुदाय से आते हैं और केशव प्रसाद मौर्य ओबीसी समुदाय से। अमित शाह ने यहाँ न सिर्फ अपनी राजनैतिक परिपक्वता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए किसी भी आंतरिक कलह को होने से बचाया था वहीं ये भी सिद्ध किया था कि वे उत्तर प्रदेश की जातिगत समीकरणों को भलीभाँति समझते हैं। वहीं दूसरा उदाहरण है भाजपा के भीष्म कहे जाने वाले लाल कृष्ण आडवाणी का। लाल कृष्ण आडवाणी को वाजपेयी जी ने अपना उपमुख्यमंत्री बनाया था क्योंकि वो भलीभाँति जानते थे कि वे जहां जनता के मध्य स्वयं लोकप्रिय हैं वहीं आडवाणी जी पार्टी काडर के अत्यंत प्रिय हैं।
इन उदाहरणों से तो यही सिद्ध होता है “उप” पदों का प्रयोग यदि सूझबूझ से किया जाये तो जनता और कार्यकर्ता दोनों को ही तुष्ट किया जा सकता है। कैप्टन अभिमन्यु को यदि संभावित उपमुख्यमंत्री के रूप में दर्शाया जाता तो जाट समुदाय के मध्य एक महत्वपूर्ण संदेश जाता कि उनकी अनदेखी नहीं की जा रही है। कैप्टन अभिमन्यु भाजपा के लिए ब्रह्मास्त्र सिद्ध हो सकते थे परंतु ऐसा नहीं हुआ। अभी कई राज्यों में चुनाव हैं, और भाजपा के भावी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा पर इन जटिल समीकरणों को हल करने का दायित्व होगा, अब देखना है ये है कि क्या वे यह करने में सफल होंगे या नहीं?