कल यानि शुक्रवार को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग 2 दिन के अपने भारत दौरे पर आए। वह जब चेन्नई पहुंचे और यहां से महाबलीपुरम गये तो लोक-नर्तकों और भरतनाट्यम कलाकारों ने तमिल सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ उनका स्वागत किया। बड़ी संख्या में बच्चों ने भारतीय और चीनी झंडे लहराकर उनका अभिवादन किया। जिनपिंग से पहले हेलीकॉप्टर से महाबलीपुरम पहुंचे प्रधानमंत्री ने अर्जुन तपस्या स्मारक पर चीनी नेता की अगवानी की। हालांकि, जिस होटल में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ठहरने वाले थे, उस के सामने कथित रूप से कुछ तिब्बत समर्थक लोगों ने प्रदर्शन किया, जिनको बाद में पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। इससे पहले भी पुलिस ने हवाई अड्डे पर कई प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया था।
यह गिरफ्तारी सिर्फ शुक्रवार को ही नहीं हुई थी। इससे पहले भी 6 अक्टूबर को, तमिलनाडु पुलिस ने Members of Tibetan Students Association of Madras (TSAM), Tibetan Youth Congress (TYC), और Students for a Free Tibet (SFT) के सदस्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले आठ तिब्बती कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया था।
यह सोचने वाली बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र में इस तरह से लोगों को उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के अधिकार को रौंद कर गिरफ्तार किया जा रहा है। लोकतन्त्र होने के नाते यहाँ सभी को अपने हक़ के लिए लड़ने का अधिकार हैं। यह चीन नहीं है, जहां लोगों जहां अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने पर या तो मार दिया जाता है या उन्हें जेल में डाल दिया जाता है।
भारत को यह पता है कि चीन जानबूझ कर तिब्बत पर कब्जा जमाए हुये है और उसी तिब्बत को स्वतन्त्र करने के ये तब्बती संगठन प्रदर्शन करते रहते हैं। तिब्बत स्वतंत्र देश रहा है, सन् 1821 के चीन -तिब्बत युद्ध में तिब्बत की जीत हुई थी । तिब्बत -चीन का मुख्य शासक भी रहा । 1947 में नई दिल्ली में एफ्रो-एशियाई देशों के सम्मेलन में तिब्बत ने देश के रुप में हिस्सा लिया था । भारत में अंग्रेज-राज के समय तिब्बत में भारतीय मुद्रा चलन में थी। लेकिन 1949 में चीन पर माओ ने कब्जा करने के 2 वर्ष बाद ही 1951 में तिब्बत पर हमला कर दिया । इसके बाद कम्युनिस्ट पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने तिब्बत को कुचल दिया।
चीन और तिब्बत के बीच 17 सूत्रीय समझौता हुआ था। इसमें धार्मिक –सांस्कृतिक, और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसी कुछ शर्तें शामिल थीं। उन्हीं दिनों पवित्र दलाई लामा देश को छोडकर, निर्वासित होकर तिब्बत की सीमा और भूटान देश तक जा पहुंचे थे। इसके बाद चीन की सेना ने बहुत कोशिश की, लेकिन दलाई लामा नहीं पकडे जा सके और वे सही -सलामत भारत चले आए थे। तब से लेकर आज तक चीन ने तिब्बत को अपने कब्जे में रखा है और उसे साम्यवादी देश बनाने कि कोशिश करता रहा है। चीन का तिब्बत पर अत्याचार किसी से छिपा नहीं है।
ऐसे में भारत दौरे के दौरान तिब्बतियों का विरोध जायज भी है। वो चीन के अवैध कब्जे से निजात पाना चाहते हैं। ऐसे में उनके विरोध को दबाने की बजाय भारत को उनका साथ देना चाहिए। भारत को ये भी नहीं भूलना चाहिए कि चीन का रुख पिछले कुछ समय से भारत विरोधी रहा है। बार बार चीन भारत के आंतरिक मुद्दे में हस्तक्षेप कर रहा है और पाक को भारत के खिलाफ बढ़ावा दे रहा है। ऐसे में भारत को चीन के बदलते रुख को देखते हुए अपना रुख भी कडा रखना चाहिए।
भारत किसी भी हाल में तिब्बत को नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकता। जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा नहीं किया था, तब भारत के उत्तर में तिब्बत सीमा थी। उस वक्त भारत के सामने इतनी बड़ी सुरक्षा चुनौती नहीं थी। लेकिन चीन के कब्जे के साथ ही हजारों किलोमीटर लंबी सीमा भारत चीन-बॉर्डर में बदल गई। अब यह सीमा इतनी संवेदनशील है कि भारत को अपना अरबों रुपये उसकी सुरक्षा पर खर्च करना पड़ता है। या यूं कहें कि चीन सीधा भारत के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ है। भारत इस बात को हल्के में नहीं ले सकता।
वैसे ये पहली बार नहीं जब चीन के खिलाफ तिब्बत के लोगों का ऐसा विरोध देखने को मिला है दिल्ली में भी ऐसा देखा जा चुका है। तिब्बतियों ने दिल्ली के खान मार्केट में प्रदर्शन किया था। विरोध मार्च खान मार्केट से यूएन ऑफिस तक निकाला गया था। यह प्रदर्शन तिब्बती आंदोलन के 60 साल पूरे होने पर किया गया। प्रदर्शनकारियों ने आजादी की मांग को लेकर चीन के खिलाफ नारेबाजी की थी। तिब्बत के लोग आज भी जिनपिंग के नेतृत्व वाले चीन की तानशाही से जूझ रहे हैं और भारत में अगर चीन के राष्ट्रपति आते हैं और उनका तिब्बत वासी विरोध करते हैं, तो भारत को उन्हें ऐसा करने से नहीं रोकना चाहिए।