भारत में गैर-सरकारी संगठनों की भरमार है। वैसे तो इन संगठनों का मुख्य ध्येय लोगों के दुख-दर्द को दूर करना, पर्यावरण की रक्षा करना और बुनियादी सामाजिक सेवाएं प्रदान करना होता है, लेकिन जब ये गैर-सरकारी संगठन भारत के विकास के खिलाफ मोर्चा खोल दें, तो ऐसे संगठनों पर सरकार की कड़ी कार्रवाई समय की मांग बन जाती है। ऐसे ही विकासशील परियोजनाओं में टांग अड़ाने वाले NGO के खिलाफ सरकार ने मोर्चा खोल दिया है। पणजी में आयोजित ‘वाइब्रेंट गोवा’ नामक शिखर सम्मेलन में पीयूष गोयल ने इस मुद्दे पर बातचीत करते हुये मोपा में स्थित ग्रीनफ़ील्ड हवाई अड्डे के निर्माण में देरी पर टिप्पणी की।
रेल मंत्री पीयूष गोयल के अनुसार, “हवाई अड्डे पर कुछ मुकदमे चल रहे हैं और यह अदालत में चला गया है। मैं सार्वजनिक मंच पर उन एनजीओ और उन कुछ लोगों से अपील करने में बिल्कुल नहीं हिचक रहा जो विकास के रास्ते में आ रहे हैं। जो गोवा के विकास में मदद नहीं कर रहे हैं, जो मुकदमेबाजी के जरिए गोवा के लोगों की मदद करने में मदद नहीं कर रहे हैं”।
इस बयान के साथ पीयूष गोयल ने एक अहम समस्या पर प्रकाश डाला है। गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा जैसी समस्याओं के खिलाफ लड़ने का दावा करने वाले ऐसे अधिकतर एनजीओ प्रत्यक्ष रूप से विकासशील परियोजनाओं में टांग अड़ाते हुये पाये जाते हैं। इन गैर सरकारी संगठनों के कारण कई अहम विकासशील परियोजनाओं पर ताला लग चुका है, जैसे तमिल नाडु में कुडनकुलम परमाणु संयंत्र, स्टर्लाइट कॉपर फ़ैक्टरी इत्यादि, जिनके कारण देश की अर्थव्यवस्था को करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ा है।
इसके अलावा अभी हाल ही में जिस तरह से इन अवसरवादी एनजीओ ने बॉलीवुड के एलीट वर्ग के साथ मिलकर आरे वन क्षेत्र में प्रस्तावित मुंबई मेट्रो के कार डिपो शेड के खिलाफ अभियान चलाया था, उससे इन संगठनों के विकास विरोधी गतिविधियों का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है। रोचक बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी मिलने के बाद मेट्रो जैसी अहम विकास परियोजना पर ताला लग सकता है और यह सिर्फ इन एक्टिविस्टों के कारण ही होगा। ऐसे में मुंबईवासियों को दिल्लीवासियों की तरह आने-जाने में आसानी का सुख मिलते-मिलते रह जाएगा।
इन अवसरवादी एनजीओ और बॉलीवुड के एलीट वर्ग की पोल खोलते हुये सोशल मीडिया पर कई यूज़र्स ने इनकी अवसरवादिता के लिए जमकर लताड़ा, जिसके प्रमाण आप यहां देख सकते हैं।
Total tress affected for car depot are 2700 of which CO2 absorption capacity would be 80 to 90 Ton per year. Metro 3 once commissioned would reduce 2.25 lakh ton CO2 and other oxides of Carbon and Nitrogen per year. This estimation is done by independent auditors of UNFCC.
— Ashwini Bhide (@AshwiniBhide) March 7, 2019
First of all Arey land is a grazing land that belongs to Dairy development dept of the state govt and not forest. Total area is 1300 Ha. Only 25 Ha is required for metro car depot. Sometimes this land is deliberately confused with Borivali national park. It is not the same.
— Ashwini Bhide (@AshwiniBhide) March 7, 2019
Let me give you an example of the brazen hypocrisy of opposition parties & Bollywoodiyas. Royal Palms is located deep inside Aarey Colony, next to protected forest of SGNP. In 2009, Royal Palms built a 422 room hotel there. Who inaugurated it? The then CM 'Adarsh' Ashok Chavan! pic.twitter.com/4AggcedQnN
— Spaminder Bharti (@attomeybharti) September 8, 2019
https://twitter.com/anirudhganu/status/1174715780342136833
Lives in a beach-front building constructed after cutting dozens of trees, but that doesn't stop MrsUnfunnyBones from furthering baseless propaganda against Metro. pic.twitter.com/QNnkTtnlJ7
— Spaminder Bharti (@attomeybharti) September 19, 2019
Lives in a beach-front building constructed after cutting dozens of trees, but that doesn't stop MrsUnfunnyBones from furthering baseless propaganda against Metro. pic.twitter.com/QNnkTtnlJ7
— Spaminder Bharti (@attomeybharti) September 19, 2019
इन अवसरवादी एनजीओ के कारण देश को किन समस्याओं का सामना करना पड़ा है, यह सरदार सरोवर के उदाहरण से बेहतर कोई नहीं समझ सकता। सरदार सरोवर बांध का निर्माण गुजरात के साथ 3 अन्य राज्यों की जल समस्याओं का त्वरित निवारण कर सकता था, परंतु मेधा पाटकर और अन्य अवसरवादी एनजीओ की मिलीभगत के कारण ये काम 2014 से पहले पूरा न हो सका।
वर्ष 1980 के दशक के मध्य में भारत की चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर सामने आईं। 1985 में पहली बार उन्होंने बांध स्थल का दौरा किया उसके बाद पाटकर और उनके सहयोगियों ने सरदार सरोवर बांध के निर्माण और उद्घाटन के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किया। वर्ष 1988 के अन्त में यह विरोध ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ के रूप में सामने आ गया। पाटकर इसमें समन्वयक की भूमिका में थीं और कई लोग जैसे राकेश दीवान, श्रीपाद धर्माधिकारी, आलोक अग्रवाल, नंदिनी ओझा और हिमांशु ठक्कर इसमें शामिल हुए।
मेधा पाटकर के अलावा अनिल पटेल, वामपंथी लेखक अरुधंती रॉय, बाबा आम्टे व 200 से अधिक गैर सरकारी संगठन भी शामिल हुए। बांध के उद्घाटन के बावजूद मेधा पाटकर और अन्य कार्यकर्ताओं ने अपने “जल सत्याग्रह” से पीछे हटने से इन्कार कर दिया। इन छद्म विरोधियों को भविष्य में होने वाले विकास से कोई मतलब नहीं था।
अक्टूबर 2000 में सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी के बाद सरदार सरोवर बांध का रुका हुआ काम एक बार फिर से शुरू हुआ और 2001 के पश्चात गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमाम अड़चनों के बाद भी इसे पूरा किया। बांध बनने के बाद दो साल तक यूपीए सरकार ने इस पर फाटक लगाने की अनुमति नहीं दी थी। हालांकि पीएम मोदी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने के 17वें दिन ही इस पर फाटक लगाने की अनुमति दे दी।
परंतु बात यहीं पर नहीं रुकती। इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स की माने तो ऐसे प्रदर्शन करने के लिए इन अवसरवादी संगठनों को वित्तीय तौर पर खूब सहायता मिलती है। जून 2014 में इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की एक रिपोर्ट में नवद्या और वंदना शिवा का नाम सामने आया, और यह आरोप लगा था कि इन सभी को भारत में विकास कार्यों को रोकने के लिए विदेशों से फंडिंग मिलती है। इस रिपोर्ट पर आईबी ने काफी चिंता व्यक्त की थी। अपनी रिपोर्ट में, आईबी ने कहा था कि भारतीय एनजीओ, जिनमें नवदान्या भी शामिल हैं, मानवाधिकारों व महिलाओं की समानता की लड़ाई के नाम पर विदेशों से धन प्राप्त करती हैं, और इसका प्रयोग भारत विरोधी अभियानों के लिए करती हैं। एक रिपोर्ट की माने तो परमाणु ऊर्जा संयंत्रों, यूरेनियम खदानों, कोयला आधारित बिजली संयंत्रों, कृषि जैव प्रौद्योगिकी, मेगा औद्योगिक परियोजनाओं और पनबिजली संयंत्रों के विरुद्ध ये एनजीओ फर्जी आंदोलन करते हैं और इस वजह से देश की जीडीपी में 2 प्रतिशत का नुकसान होता है। खुद को बुद्धिजीवी और पर्यावरण प्रेमी समझने वाले ये लोग खुद कभी पर्यावरण के बारे में नहीं सोचते हैं।
ऐसे में हम पीयूष गोयल के वर्तमान बयान का समर्थन करते हैं, जहां उन्होंने विकासशील परियोजनाओं के विरुद्ध टांग अड़ाने वाले एनजीओ और अवसरवादी बुद्धिजीवियों को आड़े हाथों लिया है। यह एक जटिल समस्या है, जिसके विरुद्ध केंद्र सरकार को अपने रुख में तनिक भी बदलाव नहीं करनी चाहिए और ऐसे विकास विरोधी संगठनों के विरुद्ध कठोर से कठोरतम कार्रवाई करनी चाहिए।