31 अक्टूबर को भारत के लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल के जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के रूप में पूरे देश में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और बाद में देश के एकीकरण की ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर उठाई। यहीं नहीं सरदार पटेल ने भारत को इस्लामिक राज्य बनने से भी बचाया। उन्होंने 560 से अधिक रियासतों को एकीकृत करने के लिए ‘साम,दाम, दंड, भेद’ की नीति अपनाई। जोधपुर, जूनागढ़, और हैदराबाद जैसी कठिन रियासतें अपने सामरिक और कूटनीतिक कौशल के माध्यम उन्होंने भारत में एकीकृत किया। फिर भी, सरदार पटेल अपने शानदार कूटनीतिक रिकॉर्ड में एक बाधा को पार नहीं कर सके और यह उनकी गलती के कारण नहीं था, बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की अक्षमता के कारण था। नेहरू ने व्यावहारिक रूप से तिब्बत को चीन के हाथ में आसानी से जाने दिया। यह नेहरू की बड़ी गलतियों में से एक था जो आज भी नासूर बना हुआ है। दरअसल, अपने अंतिम वर्षों में सरदार पटेल का जवाहर लाल नेहरू के साथ मतभेद सामने आने लगे थे। ये मतभेद नेहरू द्वारा लिए जा रहे निर्णयों को लेकर थे जिसका खामियाजा पूरे देश को आज भी भुगतना पड़ रहा है। सबसे बड़ा मुद्दा था चीन का तिब्बत पर आक्रमण।
सरदार पटेल दूरदर्शी थे और उन्हें चीन के के बढ़ते कदम की भनक पहले से ही थी। वह जानते थे कि अगर आज चीन तिब्बत पर आक्रमण कर अपनी सीमा में मिला लेगा तो वह भारत पर भी आक्रमण कर सकता है। ऐसा ही हुआ भी। अक्टूबर 1950 में चीन की लिब्रेशन आर्मी तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। चीन के निरंकुश नेता माओ ने तिब्बत पर हमला कर उसे चीन में मिलाने का पूरा प्रबंध कर लिया था। इस पर सरदार पटेल ने जवाहर लाल नेहरू को 7 नवंबर को पत्र लिख कर आगाह किया था तथा तुरंत अपनी सीमा को दुरुस्त करने और चीन के खिलाफ कड़े निर्णय लेने का सुझाव दिया था।
उन्होंने अपने पत्र में लिखा था- तिब्बत हमारे एक मित्र के रूप में था, इसलिए हमें कभी समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र संधि कर हमेशा उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का कारण बन सकते हैं।”
वह चीन की आक्रमणकारी नीति के बारे में बताते हुए आगे लिखते है, “चीन की कुदृष्टि हमारे हिमालयी इलाकों तक ही सीमित नहीं है। वह असम के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा पर भी उसकी नजर है। बर्मा के साथ और भी समस्या है, क्योंकि उसकी सीमा को निर्धारित करने वाली कोई रेखा नहीं है, जिसके आधार पर वह कोई समझौता कर सके। हमारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र आते हैं’।
उन्होंने आगे लिखा, ‘चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्वासघात जैसी ही है। तिब्बतियों ने हम पर विश्वास किया है। हम उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अब हम ही उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भावना की जाल से बचाने में असमर्थ हैं। यह दुखद बात है। ताजा प्राप्त सूचनाओं से ऐसा लग रहा है कि हम दलाई लामा को भी नहीं निकाल पाएंगे’।
उन्होंने तिब्बती मुद्दे पर नेहरू का ध्यान आकर्षित करने के प्रयास के बाद बाजपेयी को पत्र लिखा था। उन्होंने लिखा था, “तिब्बत में चीनी अग्रिम हमारे सभी सुरक्षा समीकरण की चिंताओं को बढ़ाता है। मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूं कि हमारी सैन्य स्थिति और हमारी सेनाओं पर पुनर्विचार अपरिहार्य है।”
सरदार पटेल चीन के साथ मैत्री तथा ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के विचार से सहमत नहीं थे लेकिन इसी ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ विचार के कारण नेहरू जी गुमराह हो चुके थे। वह यह मानने लगे थे कि यदि भारत तिब्बत मुद्दे पर पीछे हट जाता है, तो चीन और भारत के बीच स्थायी मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो जायेंगे परन्तु वास्तविकता कुछ और ही थी जो नेहरु नहीं समझ सके। विदेश मंत्रालय के तत्कालीन महासचिव श्री गिरिजाशंकर वाजपेयी भी सरदार पटेल के विचारों से सहमत थे। वे संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन के दावे का समर्थन करने के पक्ष में भी नहीं थे जोकि नेहरू की एक और बड़ी गलती थी।
सरदार पटेल को आशंका थी कि भारत की वामपंथी और मार्क्सवादी पार्टी की देश से बाहर साम्यवादियों तक पहुंच होगी, खासतौर से चीन तक। अन्य साम्यवादी देशों से वामपंथियों को हथियार एवं साहित्य आदि की आपूर्ति भी अवश्य होती होगी। वे चाहते थे कि सरकार द्वारा भारत के साम्यवादी दल तथा चीन के बारे में स्पष्ट नीति बनाई जाए। इन विचारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सरदार पटेल को पहले से ही चीन की की सोच और उसकी करतूतों के बारे में भनक थी। उनकी भविष्यवाणी सच निकली और चीन ने पहले तिब्बत पर कब्जा किया फिर भारत पर हमला कर दिया। यह जानते हुए भी नवंबर 1950 में जब चीन ने पहले ही तिब्बत में प्रवेश कर लिया, नेहरू ने संसद में एक बहस के दौरान घोषणा की कि उन्होंने रक्षा खर्च और सेना के आकार को कम करने के लिए रक्षा मंत्रालय को निर्देश दिया था। इसके परिणामस्वरूप वर्ष 1951 में सेना के 50,000 सैनिकों को हटा दिया गया था।
नेहरू की सेना के लिए इस मानसिकता का असर वर्ष 1962 की युद्ध के दौरान दिखाई दिया, जब हमारे सशस्त्र बल तालमेल के बिना ही एक संगठित चीनी सेना के खिलाफ लड़े और भारत को हार का सामना करना पड़ा था। इतना ही नहीं लद्दाख क्षेत्र में अकसाई चीन पर गैर-कानूनी तरीके से नियंत्रण भी कर लिया। अगर जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल की बात मान ली होती तो शायद 1962 का युद्ध ही नहीं होता और न ही चीन भारत की ओर आँख उठाकर देख पाता।