पीएम मोदी का डंडा पड़ा तो विपक्ष को वाजपेयी जी याद आने लगे, सुनिए शरद पवार की व्यथा

शरद पवार

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में विपक्ष राजनीतिक परिदृश्य में प्रासंगिक बने रहने के लिए नित नए प्रयास कर रहा है। इसी बीच राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानि एनसीपी के प्रमुख शरद पवार ने नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद किया है। उनकी माने तो वाजपेयी जी कोई भी निर्णय लेते समय ये सुनिश्चित करते थे कि इस निर्णय से किसी के मन में कोई कड़वाहट न रहे, ‘परंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी निर्णय का पूरी निष्ठुरता से क्रियान्वयन करते हैं’।

ये बात शरद पवार ने PTI के साथ हुए अपने एक साक्षात्कार में कहा। उन्होंने बताया कि एक पार्टी से होने के बावजूद वाजपेयी और मोदी की कार्यशैली में जमीन-आसमान का अंतर है। उनके अनुसार “वाजपेयी जी बड़े सभ्य आदमी थे, वे जनता में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। उनकी तुलना में प्रधानमंत्री मोदी के अंदर एक निर्णय को बड़ी निष्ठुरता से अमल में लाने की प्रतिभा है”।

वाजपेयी जी की सज्जनता के बारे में बताते हुए शरद पवार ने कहा, “ जब वाजपेयी जी कोई निर्णय लेते थे, तो वे इस बात का सदैव ध्यान रखते थे कि उससे लोगों के मन में कोई कड़वाहट न हो, और लोगों में उनके लिए और सम्मान बढ़े। परंतु जब परिणाम देने की बात आती है, तो मोदी जी का दृष्टिकोण उनसे काफी अलग है”।

ऐसा लगता है कि शरद पवार शायद भूल रहे हैं कि नरेंद्र मोदी और अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल एवं उनकी कार्यशैली में बहुत बड़ा अंतर है। हाँ, एक समानता है वो ये कि दोनों अपने वक्तव्य के लिए जनता में काफी प्रसिद्ध हैं, और दोनों के लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि है। परंतु दोनों की कार्यशैली को अगर ध्यान से देखा जाये, तो पता चलता है कि पीएम मोदी को समूचा विपक्ष नफरत की दृष्टि से क्यों देखता है।

अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में उन्हें सिर्फ देश ही नहीं चलाना पड़ता था, अपितु उन्हें अपनी सरकार बचाने के लिए भी एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ता था। उनका विचार ये था कि सबको साथ ले कर चले, और यही नीति उनके सरकार के लिए कभी कभी कष्टकारी भी सिद्ध होती थी। 1998 में जब उन्होंने दोबारा सरकार बनाई थी, तो उन्हें अपने सहयोगी दलों को देश हित में किसी भी निर्णय को पारित करवाने के लिए मनौती करनी पड़ती थी।

1998 में पोखरण में हुआ परमाणु परीक्षण हो, या फिर 2001 में आतंक रोधी कानून POTA को पारित कराना हो, देश हित में कई अहम निर्णयों के लिए एनडीए को एकमत करने हेतु वाजपेयी जी को बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। इसके बाद भी 1999 में एक विरोधी मत के कारण कुछ समय के लिए वाजपेयी सरकार को त्यागपत्र सौंपना पड़ा था।

इसके ठीक उलट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा की स्थिति इस तरह बदल दी कि अब वे अपने सहयोगी दलों की खुशामद किए बिना भी देशहित में अहम निर्णय लेने में सक्षम हैं। चाहे उरी हमले के जवाब में भारतीय सेना को सर्जिकल स्ट्राइक करने की स्वतंत्रता देनी हो, या फिर काले धन पर अंकुश लगाने के लिए नोटबंदी का साहसी निर्णय लेना हो, या फिर देश में कर बोझ को कम करने हेतु जीएसटी का क्रियान्वयन ही क्यों न हो, पीएम मोदी ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए इन निर्णयों को हर हाल में सभी सदनों में पारित करवाया। विपक्ष ने इसमें उनका साथ दिया उन्हें विपक्ष की मनौती नहीं करनी पड़ी।

यही नहीं, पीएम नरेंद्र मोदी का नेतृत्व ऐसा है कि वे अपने साथी दलों की गीदड़ भभकी से ज़रा भी विचलित नहीं होते। कभी जिस चंद्रबाबू नायडू को प्रसन्न रखने के लिए वाजपेयी जी को अपने कई काम ताक पर रखने पड़ते थे, उनके इस स्वभाव को पीएम नरेंद्र मोदी ने न केवल अनदेखा किया, अपितु टीडीपी द्वारा सदन में लाये गए अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर उन्होंने ऐसे अवसरवादी दलों को एक स्पष्ट संदेश भेजा, सन्देश यह कि ‘यदि आप राष्ट्रहित में हमारे साथ नहीं है, तो हम आपके बिना भी अपना काम चला सकते हैं’। फलस्वरूप भाजपा न केवल अविश्वास प्रस्ताव में पास हुई , अपितु अगले वर्ष भारी जनमत के साथ सत्ता में वापसी भी दर्ज की। अब चंद्रबाबू नायडू को जब अपनी गलती का एहसास हुआ तो उन्होंने भाजपा से गठबंधन तोड़ने को अपनी बड़ी गलती बताया, परन्तु भाजपा ने उनकी पार्टी के लिए दरवाजे हमेशा के लिए बंद करने के संकेत दे दिए और आन्ध्र प्रदेश में मजबूती के साथ उतरने की बात भी कही।

कभी एक आतंक रोधी बिल को पारित कराने के लिए संसद की संयुक्त बैठक करानी पड़ती थी, आज  उसी पार्टी को कश्मीर अनुच्छेद 370 के विशेषाधिकार प्रावधानों को हटवाने में कुछ ऐसी पार्टी भी समर्थन देती हैं, जो विचारधारा में उनके ठीक विपरीत है। मायावती और केजरीवाल का इसपर समर्थन इसका स्पष्ट उदाहरण है। अब ऐसे में नरेंद्र मोदी आज शरद पवार या अन्य विपक्षी नेताओं के लिए बेहद निष्ठुर ही होंगे, क्योंकि वे वाजपेयी जी की तरह सबको खुश करने में नहीं, अपितु सही निर्णय लेने के लिए ज़्यादा तत्पर रहते हैं। शायद उन्होंने एक फिल्म के संवाद को बहुत पहले ही आत्मसात कर लिया था, ‘हमें उसका समर्थन करना चाहिए जो सही है, चाहे वो कुछ लोगों को नाखुश ही क्यों न करें”!

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