कनाडा में 21 अक्टूबर को हुए चुनावों के नतीजे आ चुके हैं, और नतीजों में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला है। हालांकि, चिंता की बात तो यह है कि खालिस्तान मुद्दे पर भारत-विरोधी रुख अपनाने वाली कनाडा की सत्ताधारी लिबरल पार्टी 157 सीटों पर जीत दर्ज़ कर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। परन्तु, 170 के जादुई आंकड़े तक पहुंचने के लिए उसे 13 अन्य सांसदों के समर्थन की आवश्यकता है। माना जा रहा है कि कनाडा की एक और लेफ्ट पार्टी NDP (न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी) लिबरल पार्टी को अपना समर्थन दे सकती है, जिसके पास अपने 24 सांसद हैं। इस पार्टी के नेता जगमीत सिंह को खालिस्तान का समर्थक माना जाता है। ऐसे में अगर ये दोनों पार्टियां दोबारा सत्ता में आती हैं तो कनाडा में खालिस्तान समर्थक तत्वों को फलने-फूलने में और आसानी होगी, जो कि कनाडावासियों के लिए तो बुरा होगा ही, साथ ही भारत-कनाडा के रिश्तों के लिए भी यह बड़ा घातक साबित होगा।
इससे पहले कुछ विश्लेषक इस बात भी अनुमान लगा रहे थे कि इन चुनावों में कनाडा की विपक्षी पार्टी ‘कंजरवेटिव पार्टी’ को बहुमत मिल सकता है। हालांकि, कंजरवेटिव पार्टी को महज़ 121 सीटें ही मिल सकीं। ऐसे में अब जस्टिन ट्रूडो का दोबारा प्रधानमंत्री बनना तय माना जा रहा है। दुनियाभार के नेताओं से जस्टिन ट्रूडो को बधाई मिल रही है। कल भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने भी ट्रूडो को बधाई दी और कहा कि उनके नेतृत्व में वे कनाडा के साथ अपने रिश्तों को बेहतर करने की दिशा में काम करेंगे। हालांकि, जो नेता खुद अपने दिल में खालिस्तान समर्थकों के लिए जगह रखता हो, और जो जगमीत सिंह जैसे एक अन्य खालिस्तानी समर्थक नेता के साथ मिलकर सरकार बनाने की तैयारी कर रहा हो, ऐसे नेता से भारत के साथ अच्छे सम्बन्धों की बस कल्पना ही की जा सकती है।
बता दें कि जिस जगमीत सिंह के साथ मिलकर जस्टिन सरकार बनाने वाले हैं, वह खुद कई बार कनाडा में प्रो-खालिस्तानी रैलियों में शामिल हो चुके हैं, जिसकी वजह से भारत में उनका काफी विरोध हो चुका है। 2015 के चुनाव में उनकी पार्टी को कुल 44 सीटें मिली थीं, जबकि इस बार उनकी सीटों में काफी कमी आई है। इसके अलावा खुद जस्टिन ट्रूडो को भी खालिस्तान समर्थकों का हितैषी माना जाता है। उनकी पिछली सरकार में 4 सिख मंत्री थे जिनमें से एक इंफ्रास्ट्रक्चर मिनिस्टर अमरजीत सोही थे जिन्हें 1988 में बिहार में खालिस्तान समर्थक होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। हालांकि, यह आरोप साबित नहीं हो पाया। इसके अलावा इनोवेशन मिनिस्टर नवदीप बैंस के बारे में मीडिया की एक रिपोर्ट आई थी कि उनके रिश्तेदार से 1985 में एयर इंडिया के विमान को उड़ाए जाने के मामले में पुलिस पूछताछ हुई थी। इन सब के अलावा कनाडा के रक्षा मंत्री रहे सज्जन सिंह पर तो कैप्टन अमरिंदर सिंह भी ‘खालिस्तान के कट्टर समर्थक’ होने का आरोप लगा चुके हैं।
यही कारण है कि पिछले कुछ दशकों में भारत और कनाडा के रिश्तों में हमें खटास देखने को मिली है। भारत और कनाडा के संबंधों में खालिस्तान का मुद्दा 80 के दशक से ही रुकावट बनता रहा है। पिछले तीन दशक में कई बार यह आरोप लग चुके हैं कि वहां के नेता खालिस्तान की राजनीति को तवज्जो देकर भारत की संवेदनाओं का ख्याल नहीं रख रहे हैं। 2015 में ट्रूडो के सत्ता में आने के बाद से तो यह मुद्दा काफी हद तक भारत-कनाडा के रिश्तों पर हावी रहा है। वर्ष 2017 में तो जस्टिन ट्रूडो ने खालसा डे परेड में हिस्सा तक ले लिया था। इस परेड में ऑपरेशन ब्लू स्टार में मारे गए जरनैल सिंह भिंडरावाले को हीरो की तरह दिखाया गया था। अब अगर दोबारा लिबरल पार्टी कनाडा में सत्ता में आती है, तो यह आने वाले सालों में भी भारत और कनाडा के रिश्तों के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। कनाडा की लिबरल पार्टी की प्रवासी नीति भी विवादों के केंद्र में रहती है। जस्टिन ट्रूडो को प्रवासियों को लेकर बेहद नरम दिल वाला माना जाता है, जिसकी वजह से पाकिस्तान और अन्य मुस्लिम देशों से कनाडा में जाने वाले अवैध प्रवासियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, और वहां इस्लामिक चरमपंथ पैर पसारता जा रहा है। ऐसे में कनाडा का भविष्य अंधकार में जाता दिखाई दे रहा है, जिसका दोषी कोई और नहीं बल्कि खुद कनाडा के लोग हैं। जहां एक तरफ पूरी दुनिया में दक्षिण पंथ की ओर झुकाव देखने को मिल रहा है, तो वहीं कनाडा की जनता ने वामपंथ पर अपना भरोसा जताया है जो किसी भी सूरत में कनाडा के लिए अच्छा नहीं है, और भारत पर भी इसका प्रभाव देखने को मिल सकता है।