महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा उलटफेर हो गया है, शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस मीटिंग पर मीटिंग करते रहे और आखिरी में बाजी भाजपा ने मार ली। शनिवार सुबह तड़के ही देवेंद्र फडणनवीस ने सीएम पद की शपथ ली और अजित पवार ने डिप्टी सीएम पद की शपथ ली। महाराष्ट्र की राजनीति में फडणवीस के फिर से ‘नायक’ बनते ही कई लोगों का घमंड टूटा है। इसमें न केवल शिवसेना का अहंकार ध्वस्त हुआ है, बल्कि वृद्ध शरद पवार की अकड़ भी ढिली हुई है। जिस कांग्रेस को विपक्ष में बैठना चाहिए था उसकी भी हैसियत भाजपा ने बता दी है। इन सबके बीच इस विवाद के जड़ रहे उस शख्स को भी तमाचा लगा है जिसने शिवसेना को मंत्र दिया था कि वह सीएम पद की कुर्सी की मांग करे।
जी हां, बहुत कम लोग जानते हैं कि इसका श्रेय मीडिया द्वारा ‘चुनावी चाणक्य’ की पदवी पा चुके चुनावी विश्लेषक प्रशांत किशोर को जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ही संजय राउत को उकसाया था कि शिवसेना सीएम कुर्सी की मांग करे, जिसके कारण केवल संजय राउत का ही नहीं, बल्कि शिवसेना का असली चेहरा भी सबके सामने उजागर। हालांकि भाजपा के नए दांव से अन्य राजनीतिक विश्लेषकों के साथ प्रशांत किशोर का भी मुंह खुला का खुला रह गया।
सच कहें तो प्रशांत किशोर राजनीति के विषय में अमित शाह जितने परिपक्व और सूझ बूझ वाले व्यक्ति नहीं है। वे जहां भी भाजपा के विरुद्ध रणनीति बनाने पहुंचे, वहां उन्हें मुंह की खानी पड़ी है। प्रशांत किशोर का राजनीतिक सफर 2012 में शुरू हुआ था, जब उन्होंने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात भाजपा को अपनी सेवाएं दी थी, और यही सेवा उन्होंने 2014 में भाजपा को दी थी।
परंतु ज्यों ही भाजपा विजेता बनी, मीडिया ने पीएम मोदी के व्यक्तित्व की प्रशंसा करने के बजाए प्रशांत किशोर को सिर आँखों पर बैठा लिया, और उन्होंने ‘राजनीतिक चाणक्य’, ‘चुनावी जादूगर’ की उपमाओं से सुशोभित किया। प्रशांत किशोर को भी ऐसा लगने लगा कि वे अगर चाहे, तो कुछ भी कर सकते , और किसी को भी चुनाव जितवा सकते हैं। इसलिए उन्होंने भाजपा का दामन छोड़ते हुए नितीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन [राजद, जेडीयू और कांग्रेस] को अपनी सेवाएं दी, और यहां भी वे विजयी रहे।
परंतु 2017 में उनकी वास्तविकता से जनता परिचित हुई। प्रशांत किशोर भूल गए थे कि वे एक चुनावी विश्लेषक हैं, कोई देवता नहीं, कि असंभव को भी संभव कर सकें। पहले तो कांग्रेस के लिए उन्होंने ‘27 साल यूपी बेहाल’ वाले अभियान को ज़ोर-शोर से चलाया, परंतु नोटबंदी में स्थिति को भांपते हुए कांग्रेस को सत्तारूढ़ सपा के साथ गठबंधन करने के लिए राज़ी कराया। परंतु परिणाम इसके ठीक उलट आए। बहुमत तो बहुत दूर की बात, सपा 100 सीट भी न जीत पायी और भाजपा 312 सीटों के प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफल रही। जिस कांग्रेस के लिए प्रशांत किशोर ने पहले एकल अभियान चलाया था, उसके लिए वे 10 सीट भी नहीं जुटा पाये।
इसी प्रकार जिस महागठबंधन की नींव प्रशांत किशोर ने बिहार में रखी थी, वो भी 2017 के मध्य तक धसक गयी। लालू यादव और उनके पुत्रों की मनमानी से तंग आकर नितीश कुमार ने एक बार फिर भाजपा का दामन थाम लिया, और प्रशांत किशोर अपने महागठबंधन को बचाने में असफल रहे। हालांकि इस बीच प्रशांत किशोर पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह और आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की सरकार बनाने में सफल रहे। क्षेत्रीय पार्टियों के लिए प्रशांत किसी संकटमोचक से कम नहीं हैं, पर अमित शाह के विरुद्ध उनकी सारी हेकड़ी निकल जाती है।
सच कहें तो प्रशांत किशोर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद खुद को भारतीय राजनीति का चाणक्य समझने लगे थे , जो न केवल एक बड़ी गलतफहमी सिद्ध हुई, बल्कि वर्तमान प्रकरण में उनके प्रभाव की असलियत सबके सामने उजागर हो गयी है। अब सबको समझना चाहिए कि प्रशांत किशोर ऐसे राजनीतिक विश्लेषक हैं जो भोले-भाले नेताओं को मुंगेरीलाल के हसीन सपने दिखाकर वास्तव में हंसी का पात्र बना देतें हैं।