पिछले 25 दिनों से महाराष्ट्र में चल रहे सियासी ड्रामे का अंत आखिरकार कल हो ही गया जब सुबह देवेन्द्र फड़णवीस ने राज्य के सीएम के तौर पर शपथ ली। भाजपा का साथ दिया NCP के नेता अजीत पवार ने जो दावा कर रहे हैं कि उनके पास 35 MLA का साथ हैं। हालांकि, इस पूरे प्रकरण से सबसे बड़ा नुकसान किसी का हुआ है तो वह शिवसेना है जिसके पास अब ना तो हिन्दुत्व की विचारधारा बची है, और ना ही उसको सत्ता का सुख प्राप्त हुआ जिसके लिए उन्होंने सारा ड्रामा रचा। शिवसेना अब सत्ता से बाहर है और अब वह चाहकर भी कोई विक्टिम कार्ड नहीं खेल सकती है क्योंकि वह शिवसेना ही थी जिसने ना सिर्फ भाजपा को, बल्कि हिन्दुत्व की शान के लिए जीने मरने वाले शिवसैनिकों को भी धोखा देने की कोशिश की।
शिवसेना ने हिन्दुत्व और अपनी विचारधारा का मज़ाक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन भाजपा ने एक बड़े भाई की भूमिका निभाते हुए आखिरी तक शिवसेना को समय दिया। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने यह स्पष्ट रूप से कहा था कि अगर शिवसेना अपनी नाजायज़ मांगों को छोड़ देती है, तो गठबंधन में आज भी उनका स्वागत है, लेकिन गठबंधन के नियमों को ताक पर रखकर सत्ता मोह में शिवसेना ने कई भाजपा विरोधी एक्शन लिए। लेकिन शिवसेना ने नहीं माना और जनता की NDA को दी गयी मैंडेट को पलटने के लिए कभी NCP तो कभी कांग्रेस के पास भटकती रही।
शिवसेना ने पहले तो 50-50 का फॉर्मूला ला कर NDA से अलग होने का बहाना ढूंढा और फिर मुख्यमंत्री पद की भी मांग करने लगी। तब तक भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चुप-चाप यह खेल देखते रहे। उन्हें पता था कि अगर वह कोई चाल चलते हैं तो शिवसेना तुरंत विक्टिम कार्ड खेलने लगेगी और सारा आरोप भाजपा पर ही मढ़ देगी। उन्होंने शिवसेना को भरपूर समय दिया ताकि उद्धव ठाकरे अपने एक एक कदम पर जनता के सामने एक्सपोज होते रहे।
शिवसेना यह समझ ही नहीं सकी और सकुनी रूपी संजय के इसारों पर चल अपने लिए ही गढ़े खोदती रही। ऐसा नहीं है कि भाजपा बड़ी पार्टी होने के नाते शिवसेना के साथ किसी भी तरह का अन्याय कर रही थी और उसपर दबाव बना रही थी। भाजपा शिवसेना को डिप्टी CM पद के साथ 15 मंत्रालय देने को राजी थी जो कि 288 सीटों वाली विधानसभा में 56 सीट जीतने वाली शिवसेना के लिए काफी था। लेकिन कहते है न ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ यानि जब विनाश कल आता है तो बुद्धि विपरीत काम करने लगती है। यही शिव सेना के साथ भी हुआ। इतना कुछ मिलने पर भी, उद्धव ने पुत्र मोह में सरकार में शामिल सही नहीं समझा।
अमित शाह ने अंत तक शिवसेना को अन्य माध्यमों से यही बताने की कोशिश की कि अब भी द्वार खुले हैं और आप आ सकते है। इसका अंदाजा हम रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के अध्यक्ष रामदास अठावले के बयान से भी लगा सकते हैं। आठवले ने न्यूज एजेंसी से कहा, “मैंने अमित भाई को कहा था कि वे मध्यस्थता करें तो सरकार गठन को लेकर रास्ता निकाला जा सकता है। इस पर उन्होंने कहा कि चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है, सब अच्छा होगा। भाजपा और शिवसेना सरकार बनाने के लिए साथ आएंगे।”
आठवले का इस तरह से बयान देने के बाद भी शिवसेना वह नहीं समझ सकी जो अमित शाह समझना चाहते थे। अमित शाह के धैर्य को शिवसेना ने मजबूरी समझने की भूल कर दी और उसकी कीमत सत्ता और इज्जत दोनों खोकर चुकाया। अमित शाह के समय दिये जाने के बाद भी शिवसेना ने अपना हठ नहीं छोड़ा, ऊपर से संजय राऊत जैसे अपरिपक्व नेता का सलाह मान कर कभी कांग्रेस तो कभी NCP की गोद में खेलती रही। संजय राऊत ने अपने बयानों से भाजपा और शिवसेना के बीच दूरी को बढ़ाने में ही मदद की।
ये वही संजय राऊत है जिन्होंने शिवसेना और उद्धव ठाकरे को पार्टी की विचारधारा को छोड़ कांग्रेस और NCP के साथ कॉमन मिनीमम प्रोग्राम पर ध्यान देने के लिए मजबूर किया था। अब शिवसेना को माया मिली न राम अर्थात सत्ता तो हठ से गयी ही, अब सेक्युलर पार्टी बनने के चक्कर में हिन्दू वोट भी गया। इस राजनीतिक उठापटक में अगर सबसे अधिक नुकसान किसी को हुआ है तो वह शिवसेना ही है।
अमित शाह द्वारा इतना समय देने के बावजूद शिवसेना ने किसी प्रकार का सबक नहीं लिया और उसी का खामियाजा भुगता। अब तो यही कहा जा सकता है कि अपने सेक्युलर बनने और सत्ता के लोभ में शिवसेना ने अपने ही अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिया है।