दोहरे मानदंड की कोई परिभाषा नहीं होती। हर रोज हिपोक्रिसी के एक नए आयाम देखने को मिलते हैं। ऐसा ही कुछ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी और दिल्ली विश्वविद्यालय के जीसस एंड मेरी कॉलेज के केस में देखने को मिल रहा है। देश के कथित बुद्धिजीवी वर्ग और खुद को ही देश का कर्ता-धर्ता मानने वाली मीडिया ने केवल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय पर ही अपना ध्यान केन्द्रित कर रखा है।
यहां तक कि BHU के छात्रों को TV डिबेट में बुलाकर जलील किया जा रहा है और कुछ ने तो उन्हें धर्मांध भी घोषित कर दिया। लेकिन कोई जीसस एंड मेरी कॉलेज पर सवाल नहीं कर रहा है जो सरेआम बापटिस्ट का प्रमाणपत्र रखने वाले को ही कॉलेज में प्रिंसिपल के रूप में नियुक्त करने के लिए विज्ञापन निकाल रहा है।
Impossible To Separate Sanskrit Sahitya From Sanatan Dharma At SVDV, BHU Professors tell me.
"Literature and dharma are connected to each other. Whatever we teach, whatever examples we give, we base them in our sanatan tradition," says one professor.https://t.co/yah3Zjk6Fg
— Arihant (@haryannvi) November 20, 2019
दरअसल, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय चर्चा के केंद्र में बना हुआ है और कारण है विश्वविद्यालय के विज्ञान धर्म संकाय में एक मुस्लिम प्रोफेसर की नियुक्ति। इस नियुक्ति के बाद से छात्र सड़क पर उतर धरना दे रहे हैं। छात्रों का कहना है कि उन्हें शिक्षक फिरोज से समस्या नहीं है लेकिन संस्कृत पढ़ाने के लिए जो हमारे सांस्कृतिक मापदंड होते हैं, उस पर फिरोज खरे नहीं उतरते, इसलिए हम उनसे संस्कृत नहीं पढ़ सकते हैं।
I strongly support Dr Firoz Khan’s right to teach Sanskrit at BHU. To oppose his appointment as a Professor only because he’s Muslim goes against the grain of every idea India stands for. University should take disciplinary action. These students are the real ‘anti-nationals.’
— Rahul Kanwal (@rahulkanwal) November 20, 2019
इसके बाद गिद्ध पत्रकारों ने तो अपने हिसाब से अनेक प्रकार से रिपोर्टिंग कर BHU (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) को बदनाम करने के सभी हथकंडे अपनाए। वहीं हिपोक्रिसी का नया स्तर सेट करते हुए किसी ने भी जीसस एंड मेरी कॉलेज के बारे में किसी ने रिपोर्टिंग ही नहीं की।
बता दें कि दिल्ली यूनिवर्सिटी के जीसस एंड मैरी कॉलेज विज्ञापन दिया हैं कि केवल और केवल बपतिस्मा सर्टिफिकेट और किसी चर्च के पादरी द्वारा “ईसाई” होने के प्रमाणपत्र के बाद ही “कॉलेज में प्रिंसिपल” की नौकरी मिलेगी। अर्थात अगर आप ईसाई नहीं है तो आपको नौकरी नहीं मिलेगी।
लेकिन इस मामले पर किसी ने भी अपनी जबान खोलने या लेख लिखने का साहस नहीं दिखाया? क्यों, क्योंकि यह मामला हिंदुओं से नहीं जुड़ा था और यह मामला अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ा हुआ है। और हमारा संविधान अनुच्छेद 29-30 के अनुसार:
(1) किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने का अधिकार है।
(2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।
लेकिन यह मूल अधिकार हिंदुओं को अपने धर्म, संस्कृति और भाषा को बचाने का अधिकार नहीं देती।
एक ईसाई संस्था के लिए इस तरह से नियुक्ति में धर्म के आधार पर भेदभाव करना उनका मूल भूत अधिकार है लेकिन अपने गुरुकुल परंपरा को जीवंत रखने के लिए गैर-हिन्दू के प्रोफेसर की नियुक्ति का विरोध धर्मांधता क्यों है? यह कहां का न्याय है और सेकुलरिज्म का नाम देकर ये बुद्धिजीवी वर्ग हिन्दू धर्म के पीछे क्यों पड़ा है?
अगर बात अल्पसंख्यक की है तो संस्कृत भाषा भी अल्पसंख्यक की ही है और संविधान के अनुच्छेद 30 (1) सभी भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के अधिकार’ और उसे अपने हिसाब से प्रशासन का अधिकार देने का वादा करता है। इसमें अल्पसंख्यकों के दो आधार है, धार्मिक और भाषाई आधार पर। फिर तो देश में संस्कृत का आधार देखें तो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का संस्कृत संकाय तो पूरी तरह से इस अधिकार के दायरे में आता है। अगर नहीं आता है तो फिर देश में अल्पसंख्यक की परिभाषा बदलने की आवश्यकता है।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 29 अपने शीर्षक में ‘अल्पसंख्यकों’ शब्द का उपयोग करता है, लेकिन आगे यह बताता है कि “भारत के क्षेत्र या देश के किसी भी हिस्से में रहने वाले नागरिकों को अपनी भाषा या लिपि या संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार होना चाहिए। जो कि पूरी तरह से भिन्न है।” इसका मतलब संविधान में भी अल्पसंख्यक की परिभाषा पूरी तरह से व्यावहारिक नहीं है।
इस परिभाषा से अल्पसंख्यक को उनके द्वारा संचालित संस्थानों पर पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है और सरकारी अधिकारियों को उनके प्रबंधन गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, और वे अल्पसंख्यक संस्थानों के कामकाज को नियंत्रित नहीं कर सकते।
गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों को सरकारी हस्तक्षेप और नियंत्रण का सामना करना पड़ता है और अपने संस्थानों को ठीक से बनाने और प्रबंधित करने के अपने अधिकार का उपयोग करने में सक्षम नहीं होते हैं। सरकार अल्पसंख्यक संस्थानों द्वारा किए जा रहे पक्षपात को नियंत्रित नहीं कर सकती, और ये अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक दोनों समूहों के बीच भेदभाव का मुख्य कारण है।
अनुच्छेद 30 गैर-अल्पसंख्यक समुदायों की असमानता और भेदभाव का मुख्य कारण है और यह समाज में एक सांप्रदायिक असंतुलन पैदा कर रहा है। ऐसे में इसमें अब संशोधन किया जाना चाहिए ताकि सभी के लिए नियम धर्म के मामले में एक समान हो।
परन्तु आज के पत्रकार और बुद्धिजीवीवों को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों को ही कोसने, जलील करने और एजेंडा करने मज़ा आ रहा है। ये सभी केवल इसके जरिये अपनी TRP बढ़ा रहे हैं। बीएचयू के छात्रों का प्रदर्शन यदि किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो दिल्ली का ये कॉलेज भी तो कहीं न कहीं यही कर रहा है। और इसपर भी बात होनी चाहिए, मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग को इस मुद्दे पर बहस न सही कम से कम इसे उठाना अवश्य चाहिए था। परन्तु किसी ने भी ऐसा करना आवश्यक नहीं समझा, शायद इसलिए क्योंकि ये बहुसंख्यक और हिंदुत्व से जुड़ा मुद्दा नहीं है।