कल यानि शनिवार को माननीय सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों वाली संवैधानिक पीठ ने राम जन्मभूमि केस में अयोध्या की विवादित भूमि रामलला को सौंप दी। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पाँच न्यायाधीशों की इस संवैधानिक पीठ ने निर्णय श्रीराम जन्मभूमि न्यास के पक्ष में सुनाया। इसके अलावा सुन्नी वक्फ बोर्ड के लिए कोर्ट ने अयोध्या में 5 एकड़ की वैकल्पिक भूमि पर मस्जिद बनाने का भी निर्णय सुनाया।
जहां देशभर में इस निर्णय को सराहा गया, और सुप्रीम कोर्ट के इन न्यायाधीशों को उनके सूझबूझ से भरे निर्णय के लिए प्रशंसित किया गया, तो वहीं विदेशी मीडिया ने अपनी पक्षपाती कवरेज से इस मुद्दे पर भ्रमित करने का प्रयास किया। विदेशी मीडिया अक्सर भारत के मामलों में ‘अधजल गगरी छलकत जाय’ वाली अवधारणा पर भारत को कवर करती है, और इस संदर्भ में अयोध्या पर वर्तमान निर्णय भी कोई अपवाद नहीं है।
भारत के वामपंथी पत्रकारों को आवाज़ देने के लिए विवादों के घेरे में रहने वाली अमेरिकी पत्रिका द वॉशिंग्टन पोस्ट ने इस विषय पर अपना शीर्षक दिया, ‘भारत की सुप्रीम कोर्ट ने देश के सबसे विवादित धार्मिक स्थल पर हिन्दू मंदिर के लिए रास्ता साफ किया’।
उन्होंने बताया की कैसे दशकों पुराने विवाद में यह निर्णय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए एक बड़ी जीत है। अखबार ने लिखा, “भारत की शीर्ष अदालत ने देश के सबसे विवादित धार्मिक स्थल को ट्रस्ट को देने का आदेश दिया और जिस जगह कभी मस्जिद हुआ करती थी, उस जगह हिंदू मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ कर दिया।” इस कवरेज से स्पष्ट पता चलता है कि इस पत्रिका के लिए निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं, बल्कि अपना एजेंडा चलना सर्वोपरि था।
एक और वामपंथी पोर्टल वॉल स्ट्रीट जर्नल, जो अपने भारत विरोधी पोस्ट्स के लिए अक्सर आलोचना के केंद्र में रहा है, इस विषय पर अपने विचार देने से नहीं रोक पाया। उनके लेख का शीर्षक था, ‘भारत के शीर्ष न्यायालय ने एक धार्मिक स्थल पर विवाद में हिन्दुओं के पक्ष में निर्णय दिया’। इतना ही नहीं, उन्होंने इस निर्णय में भी 2002 का मुद्दा उछालने का प्रयास किया। लेख में कहा गया है, “सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारत की राजनीतिक और सामाजिक संरचना को आकार देने का काम करेगा। दशकों तक अलग–अलग राजनीतिक पार्टियों ने मामले से जुड़ी भावनाओं को राजनीतिक फायदे के लिए उपयोग करने की कोशिश की। लेकिन भाजपा ने इसका इस्तेमाल सबसे प्रभावी तरीके से किया।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐसे समय में आया है, जब हाल ही में मोदी सरकार ने मुस्लिम बहुल कश्मीर से उसकी स्वायत्तता छीन ली और भारत में लंबे समय से रह रहे कुछ मुस्लिम अप्रवासियों को नागरिकता देने से इनकार किया है। विवादित स्थल का नियंत्रण हासिल करना हिंदू राष्ट्रवादियों का दशकों पुराना एजेंडा रहा है। मोदी खुद युवावस्था में राम मंदिर आंदोलन से जुड़े रहे। 2002 में गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद वे इस मुद्दे में गहराई से उतर गए।’’
सर्वप्रथम, नरेंद्र मोदी 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, और दूसरी बात, एनआरसी का नाम लिए बिना उसपर जो तंज़ कसा गया है, वो साफ बताता है कि वॉल स्ट्रीट जर्नल कितनी निष्पक्ष है। एनआरसी का प्रमुख उद्देश्य देश में घुसपैठियों को चिन्हित करना है, न कि किसी समुदाय के साथ भेदभाव करना। शायद वॉल स्ट्रीट को अपनी जानकारी हमारे देश के लेफ्ट लिबरल ब्रिगेड से ज़्यादा मिलती है।
अब ऐसे में भला ब्रिटिश मीडिया कहाँ पीछे रहती। उन्होंने भी भ्रामक रिपोर्टिंग करते हुए अयोध्या के निर्णय का उपहास उड़ाने का प्रयास किया। ब्रिटिश अखबार गार्जियन ने भी इस फैसले को प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की बड़ी जीत करार दिया। अखबार ने लिखा कि अयोध्या में राम मंदिर बनाना उनके राष्ट्रवादी एजेंडे का हिस्सा रहा है। यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब देश के 20 करोड़ मुस्लिम सरकार से डर महसूस कर रहे हैं। अखबार ने कहा कि 1992 में मस्जिद ढहाया जाना भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाकाम होने का बड़ा क्षण था।”
इसके अलावा अल जज़ीरा ने भी इस मुद्दे पर अपनी राय रखते हुए लेख को शीर्षक दिया, ‘भारत के शीर्ष न्यायालय ने विवादित स्थल हिन्दुओं को सौंपा”! इसमें हैदराबाद के नाल्सार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉं के उप कुलपति फैजान मुस्तफा का हवाला दिया, जिन्होंने इस निर्णय को विवादास्पद बताया, और कहा, “न्यायाधीशों ने संयमित निर्णय देने का प्रयास किया परंतु विधि के शासन पर विश्वास को तरजीह दिया गया है, क्योंकि उन्होने कहा है कि हम हिन्दू आस्था के विरुद्ध नहीं जा सकते और अगर वे मानते हैं कि भगवान राम वहाँ पैदा हुए, तो हमें मानना ही पड़ेगा”। विश्वास धर्म के लिए उचित है, पर क्या इससे प्रॉपर्टी के विवादों का निस्तारण हो पाएगा?”
हालांकि यह पहला ऐसा मामला नहीं है जब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने भारत के मुद्दों पर ऐसी पक्षपाती कवरेज की हो। कश्मीर के मुद्दे पर इन्होंने भ्रामक खबरों को फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसमें अंग्रेज़ी मीडिया चैनल बीबीसी सबसे अग्रणी रही। विडम्बना की बात तो यह है कि कश्मीर पर इन भ्रामक खबरों को फैलाने में उनका साथ हमारे ही देश के कुछ मीडिया संगठनों ने दिया था, और शायद यही कारण था कि हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपने अमेरिकी दौरे में विदेशी मीडिया से कोई बातचीत नहीं की। तथ्य और पत्रकारिता गयी तेल लेने, भारत की कवरेज में विदेशी मीडिया का एक ही ध्येय है, ‘एजेंडा ऊंचा रहे हमारा।’