गुमनामी में दुनिया को अलविदा कहने वाले वशिष्ठजी इससे अधिक के हकदार थे

वशिष्ठ नारायण

बिहार मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान, हाईयर सेकेंड्री की परीक्षा में भी सर्वोच्च स्थान, पटना विश्वविद्यायल के BSC आनर्स की परीक्षा में भी सर्वोच्च स्थान, वर्ष 1965 में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से आमंत्रण, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी, वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर, नासा के लिए नौकरी! किसी व्यक्ति को सफल कहने के लिए और कितने तमगे चाहिये? क्या इतना काफी नहीं? इतने में तो किसी दूसरे देश ने अपने यहाँ के नागरिक को सिर आंखो पर बैठा लिया होता और उन्हें आने वाली पीढ़ी के लिए आदर्श के रूप में पेश करता लेकिन हमारे देश में क्या हुआ? इतने तमगे पाने वाले गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह की मृत्यु के बाद 2 घंटे तक एम्बुलेंस तक नहीं मिला। यही नहीं इससे पहले के वर्षों में उनके साथ जो हुआ था वह दृश्य और भी अधिक हृदय विदारक है। कभी NASA में काम करने वाले इस महान गणितज्ञ को कचरे के ढेर से खाना बिन कर खाने के लिए भी मजबूर होना पड़ा था। आखिर कब तक भारत में इस तरह से विद्वानों को गुमनामी में खोते रहेंगे? अगर इसी तरह से तिरस्कार होता रहा तो क्या आगे कोई प्रतिभा होने के बाद भारत में रहना चाहेगा?

यह कहानी है नासा के लिए 1969 में चाँद मिशन के दौरान 31 कंप्यूटर बंद होने के बाद सही कैलकुलेशन करने वाले बिहार के लाल डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह का जिनका जन्म आर्यभट जैसे महान गणितज्ञों की धरती, बिहार पर हुआ था। वह बचपने से ही असीम प्रतिभा के धनी थे। किताब, कॉपी, कलम और पेंसिल ही उनके साथी थे। कभी अख़बार, कभी कॉपी, कभी दीवार, कभी घर की रेलिंग, जहां भी उनका मन करता, वहां कुछ लिखते, कुछ बुदबुदाते इस महान गणितज्ञ ने महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को चुनौती दे डाली थी। वशिष्ठ नारायण ने नासा में भी काम किया, लेकिन वह 1971 में  भारत लौट आए। जिसके बाद उन्होंने पहले IIT कानपुर, बॉम्बे, और फिर ISI कोलकाता में नौकरी की। लेकिन कहा जाता है कि किस्मत हमेशा आपके साथ नहीं होती और यही  डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह के साथ भी हुआ। वर्ष 1973 में उनका मन न होने बावजूद उनकी शादी वंदना रानी सिंह से हो गई। घरवाले बताते हैं कि यही वह वक्त था जब वशिष्ठ जी के असामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चला। वह मानसिक बीमारी सिज़ोफ्रेनिया से ग्रसित थे। उनकी भाभी प्रभावती बताती हैं, “छोटी-छोटी बातों पर बहुत ग़ुस्सा हो जाना, कमरा बंद करके दिन-दिन भर पढ़ते रहना, रात भर जागना उनके व्यवहार में शामिल था। वह कुछ दवाइयां भी खाते थे लेकिन वे किस बीमीरी की थीं, इस सवाल को टाल दिया करते थे।”

इस असामान्य व्यवहार के कारण उनकी पत्नी वंदना ने उनसे तलाक़ ले लिया। यह वशिष्ठ नारायण के लिए बड़ा झटका था। यही वक्त था जब वह आईएसआई कोलकाता में अपने सहयोगियों के बर्ताव से भी परेशान थे। उनके भाई अयोध्या सिंह के अनुसार, “भैया (वशिष्ठ जी) बताते थे कि कई प्रोफ़ेसर्स ने उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया और यह बात उनको बहुत परेशान करती थी।” वर्ष 1974 में उन्हें पहला दौरा पड़ा, जिसके बाद शुरू हुआ उनका इलाज। जब बात नहीं बनी तो 1976 में उन्हें रांची में भर्ती कराया गया। घरवालों के मुताबिक़ इलाज अगर ठीक से चलता तो उनके ठीक होने की संभावना थी। लेकिन परिवार ग़रीब था और सरकार की तरफ़ से मदद नहीं मिली। जून 1980 में उन्हें सरकार द्वारा इलाज के लिए पैसा मिलना बंद हो गया। वर्ष 1982 में उन्हें एक अस्पताल में बंधक बनाया गया। उस समय बिहार के मुख्यमंत्री जगनाथ मिश्रा थे। 1989 में वो गढवारा रेलवे स्टेशन से लापता हो गए। इसके बाद फरवरी 1993 में छपरा के डोरीगंज में एक होटल के बाहर वो लोगों द्वारा फेंकी गई झूठन में खाना तलाशते दिखे। जिस महान प्रतिभा की तुलना कभी गणित में रामानुजम से की जाती रही, वो सड़कों पर भिखारी के तौर पर भटकता रहा, राजसत्ता ने उसकी परवाह नहीं की। 1993 में वशिष्ठ बाबू जब मिल गये थे तो उनके इलाज के लिए भी समाचार पत्रों द्वारा सरकारों को जागरुक करने की कोशिश की गयी और वशिष्ठ नारायण सिंह की उस वक्त की भिखारी जैसी तस्वीर को छापते हुए सरकार और समाज को झकझोकरने की कोशिश की गयी थी। लेकिन उस दौर में लालू प्रसाद सत्ता के नशे में चूर थे। संबंधित सरकारों की नींद खुल नहीं पाई और वशिष्ठ बाबू खराब सेहत के साथ गुमनामी में खोते चले गये।

पत्रकार ब्रजेश कुमार सिंह के अनुसार, “शासनतंत्र जिस वशिष्ठ बाबू को पागल मान चुका था उसने 1993 से 1997 के बीच बेंगलुरु के मानसिक आरोग्य अस्पताल में इलाज करवाने वाले वशिष्ठ बाबू की न तो कोई चिंता की और न ही बिहारी बाबू शत्रुघ्न सिन्हा ने जो अटल बिहारी वाजपेयी की तत्कालीन सरकार में स्वास्थ्य राज्य मंत्री थे।”

तब से अब तक उन्हें सरकारी इलाज के नाम पर कभी कभी सहायता मिली। अब डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह पिछले दो दिनों से पटना के PMCH के ICU में भर्ती थे लेकिन गुरुवार को पीएमसीएच में निधन हो गया था। उनके छोटे भाई अयोध्या प्रसाद सिंह और भतीजे राकेश कुमार के अनुसार सुबह साढ़े आठ बजे मौत के बाद पीएमसीएच ने उनकी मृत्यु के बाद शव वाहन उपलब्ध नहीं कराया था। इसके कारण शव के साथ दो घंटे तक अस्पताल परिसर में ही इंतजार करना पड़ा। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा देखिए- अस्पताल प्रशासन ने कहा कि उनका घर पास ही था। बिहार की धरती से हीरे निकलते हैं। अफसोस यह है कि इन हीरों को हम नहीं पहचानते हैं अगर पहचानते भी है तो सिस्टम उन्हें धोखा दे देती है। सिस्टम में न ही उनकी कद्र होती है और न ही उनकी देखभाल की जाती है। कद्र होती भी है तो मौत के बाद। अगर सोशल मीडिया नहीं होता और ब्रजेश कुमार सिंह जैसे लोगों ने ट्वीट नहीं किया होता तो शायद आज की पीढ़ी को  डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह के बारे में खबर भी नहीं होती।

 

अब श्रद्धांजलियों की बाढ़ आ रही है। संवेदानाएं शून्य हो जाती हैं। ऐसा ही कुछ पिछले कई सालों से वशिष्ठ बाबू के साथ हो रहा था। आखिर अब इस तरह की श्रद्धांजलियों का क्या मतलब जब उनके जीवित रहते किसी ने यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि वह कहाँ है और कैसे है? अब तो वह देवलोक में है और वहाँ तो जरूर इस महान हस्ती को वह सम्मान मिलेगा जिससे वह यहाँ वंचित रह गए। उनकी इस हालत का जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि सिस्टम है जहां सभी कुछ सिर्फ औपचरिकता के लिए की जाती है, वास्तव में कोई भी कुछ करना ही नहीं चाहता। इसी प्रकार बिहार सरकार ने भी राजकीय शोक घोषित कर दिया, यह दिखाने के लिए कि उनका कितना सम्मान किया जा रहा है और सरकार ने कुछ किया है। लेकिन क्या इस तरह के औपचारिकता से फिर से कोई दूसरा डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह नहीं होगा? जिस सिस्टम में भाई-भतीजावाद और प्लेगरिज्म अपने चरम पर हो, सरकारें सिर्फ मंत्रियों की चिंता करती हो, वहाँ डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह जैसा प्रतिभा अवश्य ही गुमनाम हो जाएगा। अगर हमे डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह को श्रद्धांजलि देनी ही है तो हम सभी को यह यह प्रण लेना होगा कि एक समय नोबल के दावेदार माने जाने वाले वशिष्ठ नारायण सिंह जैसी अपेक्षा किसी भी प्रतिभा की ना हो। यहीं उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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