तो इन कारणों की वजह से India ने RCEP को कहा BYE-BYE

(PC: Deccan Herald)

भारत ने RCEP यानी ‘Regional Comprehensive Economic Partnership’ में शामिल होने से इंकार कर दिया है। भारत ने कहा कि वह देश की चिंताओं को लेकर दृढ़ है और घरेलू उद्योगों के हित को लेकर कोई भी समझौता नहीं कर सकता है। बता दें कि RCEP एक ट्रेड एग्रीमेंट (व्यापारिक समझौता) है जो सदस्य देशों को एक दूसरे के साथ व्यापार में कई सहूलियत देगा। इसके तहत निर्यात पर लगने वाला टैक्स नहीं देना पड़ेगा या फिर उसकी दर बहुत कम होगी। इस समझौते में आसियान के 10 देशों के साथ 6 दूसरे देश भी शामिल हैं।

शिखर सम्मेलन में अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “आरसेप समझौते का मौजूदा स्वरूप आरसेप की बुनियादी भावना और मान्य मार्गदर्शक सिद्धांतों को पूरी तरह जाहिर नहीं करता है। यह मौजूदा परिस्थिति में भारत के दीर्घकालिक मुद्दों और चिंताओं का संतोषजनक रूप से समाधान भी पेश नहीं करता।”

पीएम मोदी ने कहा, ‘जब मैं RCEP करार को सभी भारतीयों के हितों से जोड़कर देखता हूं, तो मुझे सकारात्मक जवाब नहीं मिलता। ऐसे में न तो गांधीजी का कोई जंतर और न ही मेरी अपनी अंतरात्मा RCEP में शामिल होने की अनुमति देती है।

RCEP पर चर्चा में कई मसलों पर भारत को भरोसा नहीं मिल पाया। इनमें आयात में बढ़ोतरी से होने वाले अपर्याप्त संरक्षण,RCEP सदस्य देशों के साथ 105 बिलियन डॉलर का व्यापार घाटा, बाजार पहुंच पर भरोसे की कमी, नॉन-टैरिफ प्रतिबंधों पर असहमति और नियमों के संभावित उल्लंघन शामिल हैं। चीन इसमें सबसे बड़ी वजह है।

दरअसल, इस समझौते से बाहर होने का सबसे बड़ा कारण चीन से आयात बताया जा रहा है। अगर भारत RCEP समझौता करता तो भारतीय बाजार में सस्ते चाइनीज सामान की बाढ़ आ जाती। RCEP राष्ट्रों के साथ भारत का व्यापार घाटा 105 बिलियनडॉलर है, जिसमें से अकेले चीन का 54 बिलियन डॉलर है। मुख्य रूप से भारतीय बाजारों में चीनी वस्तुओं और न्यूज़ीलैंड के डेयरी उत्पादों पर मुख्य चिंता है,जिनसे घरेलू उत्पादकों के हितों को चोट पहुंचेगी। अगर भारत यह व्यापार समझौता कर लेता तो सरकार की मेक इन इंडिया पहल को नुकसान होना तय था।

RCEP यानी क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी में 10 आसियान देशों के अलावा 5 अन्य देश ऑस्ट्रेलिया, चीन, जापान, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया भी शामिल हैं। समझौता करने वाले देशों के बीच मुक्त व्यापार को बढ़ावा मिलता है। लिहाजा, भारत के समझौते में शामिल होने से चीन को भारतीय बाजार में पैर पसारने का अच्छा मौका मिल जाता।इस बात का अंदाजा हम चीन और ASEAN के बीच हुए ACFTA यानि आसियान-चीन मुक्त व्यापार समझौता से लगा सकते है कि किस तरह चीन अपने पैर पसारता है। आसियान में चीन का व्यापार “1995-2017 के बीच 5-6 गुना बढ़ गया। यह दर्शाता है कि आस-पास के बाजारों की तुलना में चीनी कंपनियों को आसियान बाजारों तक अधिक छूट मिली है और वह अधिक फायदा उठाता है।

जैसा कि RCEP को लेकर बातचीत कर रहे देशों के साथ भारत का निर्यात से ज्यादा आयात होता है। समझौते के तहत ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे अगर आयात बढ़ता है तो उसे नियंत्रित किया जा सके। यानी चीन या किसी दूसरे देश के सामान को भारतीय बाजार में पर्याप्त अनुपात में अनुमति देने पर स्थिति स्पष्ट नहीं थी।नई दिल्ली ने सस्ते आयात से अपने घरेलू उद्योग की सुरक्षा के लिए चीन के लिए टैरिफ रियायतों के विभिन्न स्तरों का प्रस्ताव पेश किया था।

इस समझौते में शामिल देशों को एक-दूसरे को व्यापार में टैक्स कटौती समेत तमाम आर्थिक छूट देनी होती लेकिन समझौते में नॉन-टैरिफ प्रतिबंधों को लेकर कोई भरोसेमंद वादा शामिल नहीं था।

इकोनोमिक्स टाइम्स के अनुसार पिछले UPA ने वर्ष 2007 में भारत-चीन एफटीए और 2011-12 में चीन के साथ RCEP वार्ता में शामिल होने के लिए सहमति व्यक्त की थी। इन निर्णयों के प्रभाव के कारण भारत का व्यापार घाटा RCEP राष्ट्रों के साथ 2004 में 7 बिलियन डॉलर से बढ़कर वर्ष 2014 में  78 बिलियन डॉलर हो गया था। भारत वर्तमान में अपने निर्यात का लगभग 20 प्रतिशत RCEP देशों को भेजता है, जबकि बदले में अपने कुल आयात का लगभग 35 प्रतिशत आयात करता है।

यही नहीं,भारत चाहता था कि भारतीय आईटी प्रोफेशनलों के लिए RCEP के सभी सदस्य देशों में सेवा व्यापार को खोला जाए।

भारत के RCEP में शामिल ना होने के फैसले से भारतीय किसानों, सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उपक्रमों (एमएसएमई) और डेयरी उत्पाद का हित संरक्षित होगा। इस मंच पर भारत का रुख काफी व्यावहारिक रहा है। भारत ने जहां गरीबों के हितों के संरक्षण की बात की वहीं देश के सेवा क्षेत्र को लाभ की स्थिति देने का भी प्रयास किया। भारत ने विभिन्न क्षेत्रों में वैश्विक प्रतिस्पर्धा को खोलने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। इसके साथ ही मजबूती से यह बात रखी कि इसका जो भी नतीजा आए वह सभी देशों और सभी क्षेत्रों के अनुकूल हो।इस फैसले के बाद यह कहा जा सकता है कि भारत अब अपनी शर्तों पर ही किसी भी व्यापार समझौते पर साझेदार होगा।

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