आंकड़े बयां करते हैं महिलाओं से अधिक पुरुष होते हैं मानसिक तनाव के शिकार

भारत में 1,33,623 लोगों ने की आत्महत्या जिसमें से 68 फीसदी केवल पुरुष थे

पुरुषों

PC: newsdustak

भाई, पिता, चाचा, मामा, दोस्त न जाने कितने स्वरूपों में पुरुष इस धरती पर विद्यमान है। शुरू से ही पुरुषों के शारीरिक बनावट के कारण यह समझा जाता रहा है कि पुरुष समाज में रक्षा का भार संभाले। इसी कारण धीरे-धीरे समाज पितृसत्तात्मक बनता गया। पश्चिम के देशों में तो यह चलन शताब्दियों से ही चलता आ रहा है। जैसे-जैसे यह समाज आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे पुरुषों पर कर्तव्यों का बोझ बढ़ता गया। विश्व महिलाओं को अधिकार देने में इतना आगे निकल गया कि पुरुषों की भावनाओं का किसी को ख्याल ही नहीं रहा। वर्ष दर वर्ष पुरुषों की भावनाओं को विश्व के नए उत्थान प्रक्रिया में अति नारीवादियों ने अपने हील के नीचे रौंदते हुए दोहरे मानदंड के नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए।

नारीवाद के नाम पर नाजिजम करने वाले महिलाओं को अधिकार दिलाने के नाम पर पुरुषों को ही कई अधिकार से वंचित कर खुद उस स्थान को पाने की लालसा रखते हैं।

आज अंतराष्ट्रीय पुरुष दिवस है। और आज के दिन हम आपको बताने जा रहे हैं कि हमें पुरुषों के लिए भी उतनी ही संवेदना रखनी चाहिए जितनी महिलाओं के साथ।

पुरुषों से यही अपेक्षा की जाती है, कि उसकी बनावट माचो वाली हो, सभी को संभाले, लड़की को बचाए लेकिन कभी रोये ना और न ही कमजोर पड़े चाहे वह कोई भी परिस्थिति में क्यों न हो। टीवी हो या फिल्म सभी जगह यही दिखाया जाता है कि पुरुष केवल लड़कियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए परफ्यूम का इस्तेमाल करते हैं और एक अन्य एड में वो परफ्यूम का इस्तेमाल कर लड़की को बचाते हैं और वो उसपर मोहित हो जाती है।

इस तरह के विज्ञापनों के कारण ही पुरुष समाज में बदनाम होते चले गए। कोई भी दूध का धुला नहीं होता है। पुरुष अपराध में लिप्त रहते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। उन्हें सजा देना भी आवश्यक है। ऐसे ही महिलाओं के खिलाफ भी अपराध होते हैं, इस केस में भी अपराधी को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए लेकिन समाज के सभी पुरुष को आतंकित करना कहां का न्याय है?

न्यायिक तंत्र का एक मूल सिद्धान्त होता है कि जब तक किसी आरोपी पर दोष साबित नहीं होते हैं, तो उसे पूरी तरह बेकसूर माना जाता है। ऐसे में जब यौन उत्पीड़न के मामले में पुरुष अपराधी होता है तो उसकी पहचान से लेकर उसकी जीवनी को जनता के सामने रख दिया जाता है। हद तो तब हो जाती है जब टीआरपी की भूखी देश की एजेंडावादी मीडिया अपने हित के लिए इसका इस्तेमाल करती है, लेकिन जब उस पुरुष की बजाय आरोप लगाने वाली महिला ही दोषी साबित होती है, तब सभी के मुंह पर ताला लग जाता है। यहां तक कि हमारा कानून भी महिला की पहचान को छुपाता है ताकि महिला के सम्मान पर कोई आंच न आये। अब सवाल ये है कि क्या पुरुषों का कोई आत्म सम्मान नहीं होता? क्या उन्हें समाज के ताने सुनने को नहीं मिलते? जब तक आरोप साबित न हो तब तक क्यों किसी पुरुष की पहचान को सभी के सामने खोलकर रख दिया जाता है, लेकिन अगर कोई महिला दोषी हो तो उसकी पहचान को छुपा दिया जाता है? अभिनेता करण ओबेरॉय पर लगे कथित ‘रेप’ के मामले में भी हमें कुछ ऐसा ही देखने को मिला था।

आईपीसी की धारा 228ए के मुताबिक अगर कोई महिला किसी व्यक्ति पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाती है तो उसकी पहचान को उजागर नहीं किया जाएगा। यही कारण है कि महिलाएं पुरूषों पर बेबुनियाद आरोप लगा देती हैं और अगर आरोप झूठे सिद्ध भी हो जाए, तो भी महिलाओं को आज़ादी से घूमने की आज़ादी रहती है लेकिन पुरुषों को सारी उम्र समाज की घृणा का शिकार होना पड़ता है। वर्ष 2014 में दिल्ली महिला आयोग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में यौन उत्पीड़न के फ़ाइल होने वाले 53 प्रतिशत केस झूठे होते हैं। वर्ष 2012 के निर्भया रेप केस के बाद देश की संसद पर यौन शोषण और रेप के खिलाफ कड़े कानून बनाने का दबाव बना और तब आईपीसी, एविडेंस एक्ट, दण्ड प्रक्रिया संहिता जैसे कानूनों में बड़े बदलाव किए गए। उस समय कानून की धारा 354 IPC में बदलाव करके 4 भाग बनाये गये जोकि IPC की धारा 354-ए, 354-बी, 354-सी और 354-डी है। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ के कानून में बदलाव के बाद महिलाओं के लिए पुरुषों के खिलाफ यौन उत्पीड़न का मामला दर्ज करना आसान हो गया। चूंकि इस नियम के तहत महिलाओं की पहचान को उजागर नहीं किया जाता है। वास्तव में इन बदलावों में ‘बलात्कार’ की परिभाषा को विस्तृत रूप देना और रेप के मामलों में न्यायाधीशों को असहमति की धारणा बनाने की शक्ति देना शामिल था।

सिर्फ यौन उत्पीड़न ही नहीं और इनसे जुड़ी कानून की धाराओं 376 (बलात्कार) व 498A (दहेज़ उत्पीड़न) को कुछ महिलाएं हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही हैं।

एक अध्ययन के अनुसार, 52.4% पुरुषों ने लिंग आधारित हिंसा का अनुभव किया। 1000 में से, 51.5% पुरुषों ने अपनी पत्नी या साथी के हाथों अपने जीवनकाल में कम से कम एक बार हिंसा का अनुभव किया और पिछले 12 महीनों में 10.5%। शारीरिक हिंसा (6%) के बाद सबसे आम भावनात्मक हिंसा (51.6%) थी।

2005 में एक निर्णय देते समय माननीय सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 498A यानि दहेज प्रताड़ना के दुरुपयोग के बारे में कहा था, “इसका उद्देश्य दहेज प्रथा पर एक कड़ा प्रहार है। पर इसके दुरुपयोग से एक नए प्रकार का वैधानिक आतंकवाद जन्म ले सकता है। इस कानून का इस्तेमाल एक ढाल के तौर पर होना चाहिए, हत्या के लिए अस्त्र के तौर पर नहीं”। 2014 में एक दूसरी पीठ ने ये कहा था कि, ‘यह तथ्य की धारा 498A एक गैर ज़मानती अपराध है, एक तरह से कुपित पत्नियों को एक अस्त्र प्रदान करता है अपनी झूठी शान को बनाए रखने के लिए। आईपीसी की धारा 498A के तहत दोष सिद्ध करने का दर काफी निराशाजनक रहा।

सच कहूं तो आज समाज में कानून का गलत इस्तेमाल कुछ महिलाएं और लड़कियां व्यक्तिगत दुश्मनी या सबक सिखाने के लिए कर रही हैं। इसकी वजह से बेगुनाहों को बिना किसी गुनाह की सजा काटनी पड़ रही है। भारतीय दंड संहिता यानि IPC की धारा 375 में केवल पुरुष द्वारा महिलाओं के साथ बलात्कार करने की घटनाओं के बारे में बताया गया है, इसमें पुरुष पीड़ितों, के लिए कोई जगह नहीं है। हालांकि, दोनों लिंगों के बच्चों को यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम 2012 द्वारा कवर किया गया है। इसका तो यही मतलब है कि पुरुष और महिलाओं के लिए बनाये गये कानून समान नहीं है बल्कि लिंगभेदी हैं।

ऐसे पक्षपाती व्यवहार को देश में बदलने की जरूरत है। ऐसे मामलों को लेकर बनाये गये कानून में संशोधन करने की आवश्यकता है। ताकि भविष्य में इस क़ानूनों से समाज में लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा न मिले और लोगों का न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास बना रहे जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।

महिलाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति पुरुषों के मुकाबले सात गुना अधिक होती है। उनमें तनाव, अवसाद, बाइपोलर डिस्ऑर्डर समेत सभी मानसिक बीमारियों के होने की आशंका हमेशा बनी रहती है, इसलिए उन्हें पॉजिटिव मेंटल हेल्थ की जरूरत होती है। लेकिन एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, 2015 में भारत में 1,33,623 लोगों ने आत्महत्या की थी जिसमें से 91,528 (68 फीसदी) पुरुष थे जबकि 42,088 महिलाएं थीं। एनसीआरबी के मुताबिक, 2015 में 86,808 शादीशुदा लोगों ने खुदकुशी की थी जिनमें से 64,534 (74 प्रतिशत) पुरुष थे।

इससे यह स्पष्ट पता चलता है कि पुरुष कितने मानसिक दबाव में रहते है। हमें, समाज को, सरकार को, न्यायपालिका को,  विधायिका को सभी को यह समझने की आवश्यकता है कि अपराध सिर्फ शारीरिक नहीं होते मानसिक भी होते हैं, अपराध सिर्फ पुरुष ही नहीं करते है बल्कि महिलाएं भी करती हैं। इसलिय कानून में बदलाव कर इसे लिंग रहित बनाने की आवश्यकता है जिससे सही एक समान न्याय हो सके।

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