मध्य एशिया में न मसाले होते थे न चावल की खेती, फिर कैसे मुगलों ने मसालेदार मुगलई खाने का इजाद किया?

मुगल

जब ‘तान्हाजी’ का ट्रेलर रिलीज़ हुआ, तो कई लोग ट्रेलर में मुगलों के वास्तविक चित्रण को देख इतने बौखला गए कि उन्होंने ‘थैंक्स मुगल्स’ ट्विटर पर ट्रेंड करना शुरू कर दिया। इसमें उन्होंने विशेष रूप से बताया कि कैसे मुगलों ने मुगलई शैली के भोजन से भारत को समृद्ध कराया, और क्यों भारतीयों को हर स्थिति में मुग़लों का आभार प्रकट करना चाहिए।

उदाहरण के लिए द इंडियन एक्सप्रेस की पूर्व पत्रकार इरेना अकबर ने अपने ट्विटर अकाउंट के जरिये मुगलों की वाह-वाही करते हुए बताया कि कैसे मुगलई भोजन ने भारतीय व्यंजन की शैली में परिवर्तन किया, और कैसे मुगलई भोजन के कारण भारतीय भोजन विश्व प्रसिद्ध हुआ। कई लोगों के ट्वीट शेयर करते हुए उन्होंने यह जताने का प्रयास किया कि कैसे मुगलों के कारण बिरयानी आई, कैसे मुगलों के कारण मुगलई पराठा, कबाब, सीख कबाब इत्यादि आया। एक ट्वीट शेयर करते हुए उन्होंने कहा कि आज दिल्ली के अस्तित्व के पीछे मुगलों जैसे मुसलमान शासकों का ही हाथ है, क्योंकि मुगलों ने दिल्ली का निर्माण किया।

इरेना अकबर के विचारों का मानो अनुमोदन करते हुए द इंडियन एक्सप्रेस ने एक लेख छापा, जिसका शीर्षक था, “बाबर से जहाँगीर तक, कैसे भारतीय व्यंजन को मुगलों ने समृद्ध बनाया।” इसे लिखने वाले कौशिक दासगुप्ता कहते हैं, “जब बाबर के पुत्र हुमायूँ को शेर शाह ने भारत से बाहर निकाल दिया, तो उसने फारस में शरण ली। अपने पिता के ठीक उलट मुगल सम्राट हुमायूँ ने भारतीय रसोइयों को नियुक्त किया।

उनके बेटे अकबर के शासन के लेखाजोखा बताने वाले ‘आइन-ए-अकबरी’ उन व्यंजनों को सूचीबद्ध करता है, जो बड़ी मात्रा में केसर और एसोफेटिडा (हिंग) का उपयोग करते थे। मुगलों ने एक सुनियोजित आपूर्ति के अंतर्गत अपने रसोइयों को ऐसे मसाले उपलब्ध कराने के लिए इन पौधों की खेती की। कोलिंगहैम लिखते हैं, “हींग देश में शाकाहारियों के साथ लोकप्रिय हो गया। जब इसे तेल में पकाया जाता था, तो इससे एक गरिष्ठ स्वाद उत्पन्न होता था, जिससे यह प्याज और लहसुन के लिए एक अच्छा विकल्प बन जाता था, जो कि शुद्ध हिंदुओं के लिए वर्जित था।

हुमायूँ के बेटे, अकबर ने अपने दादा के विपरीत, देश के शिष्टाचार और रीति-रिवाजों के लिए एक आत्मीयता विकसित की। इसी तरह जहांगीर अपने संस्मरण तुज़ुक ए जहांगीरी में लिखते हैं, ‘जब कई दिनों तक बिना , मांस के रहना पड़ता था, तो खिचड़ी एक ऐसी चीज थी, जिसे खाकर मैं गुज़ारा करता था’। शराब के विरुद्ध अपनी लड़ाई के दौरान भी खिचड़ी उनका सहारा था। औरंगज़ेब वास्तव में खिचड़ी का इतना शौकीन था कि उसने इस व्यंजन को अपना नाम ‘आलमगिरी खिचड़ी’ दिया।

मुगलई भोजन के बिना भारतीय व्यंजन काफी बेकार और निर्धन होता। ऐसे ही नहीं “मुगलई” देश में विभिन्न प्रकार के भोजनालयों के मेनू में एक खंड है – यह एक और कहानी है कि ज्यादातर लोग उस जादू के साथ न्याय नहीं करते हैं जो मुगल रसोई में हुआ था”।

जोसफ गोएबल्स ने बड़ी सही बात काही थी, ‘एक झूठ का इतना प्रचार करो, उसे इतना फैलाओ कि लोग उसे सच समझने लगे’। ठीक यही बात मुगलई भोजन के प्रति लागू होती है। जो भोजन शैली बिना भारतीय मसालों के अधूरी लगे, उसे एक अनोखा व्यंजन कहना अपने आप में हास्यास्पद है। सच कहें तो मुगलई भोजन अपने आप में एक विरोधाभासी शब्द है, क्योंकि भारतीय सामग्री के बिना यह शैली अस्तित्व में ही नहीं आ पाती।

पहले बात करते हैं इंडियन एक्सप्रेस के लेख की। धार्मिक एकता को बनाए रखने की जुगत में लेखक ने कहीं न कहीं अपने खुद की विचारधारा के साथ-साथ इस बात को भी उजागर किया है कि कैसे मुगलई भोजन का आधार भारतीय भोज्य पदार्थ ही हैं। अगर वास्तविकता की बात करें तो बाबर को भारतीय संस्कृति और भारतीय व्यंजन से काफी घृणा थी। उन्हें समरकन्द की शैली में बना भोजन ही प्रिय लगता था, और कहते हैं कि अपने पैतृक स्थान में मिलने वाले खरबूजों की उसे बड़ी याद आती थी।

बाबरनामा में स्वयं बाबर ने भारतीय संस्कृति का उपहास उड़ाते हुए लिखा है, “हिन्दुस्तान में आकर्षण बहुत कम है। यहाँ के लोग अच्छे नहीं है, सामाजिक आदान प्रदान, भुगतान और प्राप्त करने के लिए वहाँ कोई नहीं है, यहाँ कोई प्रतिभा और क्षमता नहीं है, कोई शिष्टाचार नहीं, हस्तकला और कार्य में कोई रूप या समरूपता, विधि या गुणवत्ता नहीं है; कोई अच्छा घोड़ा, कोई अच्छा कुत्ता, कोई अंगूर, कस्तूरी या पहले दर्जे का फल, बर्फ या ठंडा पानी, कोई अच्छी रोटी या बाजरे में पका हुआ भोजन, कोई गर्म-स्नान, कोई मदरसा, कोई मोमबत्ती, मशाल या मोमबत्ती उपलब्ध नहीं है”।

रही बात मुगलों द्वारा बिरयानी को लाने कि, तो बिरयानी का असली स्वाद उसके मसालों के प्रचुर मिश्रण में है, और उसके मूल सामाग्री चावल में है, जो मुगलों के मूल स्थान यानि उज्बेकिस्तान में पाया जाना लगभग न के बराबर है। चावल के लिए एक अनुकूल तापमान, और आर्द्रता से भरपूर वातावरण की आवश्यकता होती है, और वो दक्षिण एशिया और पूर्वी दक्षिण एशिया में ज़्यादा पाया जाता है। ऐसे में यह बोलना कि बिरयानी का अस्तित्व मुगलों के बिना अकल्पनीय है, न केवल हास्यास्पद है, बल्कि वास्तविकता से इसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है।

द इंडियन एक्सप्रेस ने जिस प्रकार से अकबर के शासन में मुगलई भोजन के प्रचार-प्रसार की बात की थी, वो ये भूल रहे हैं कि अकबर ने राजस्थानी व्यंजन से प्रभावित होकर उसे शाही भोजन में न केवल शामिल कराया, बल्कि उसी भोजन में उपयोग किए गए मसालों के अनोखे मिश्रण से मुर्ग मुसल्लम जैसे व्यंजन भी ईज़ाद किए। कल्पना कीजिये यदि भारतीय मसाले और भोज्य सामग्री न होते, तो मुगलई भोजन का क्या होता?

अब इरेना अकबर के उस बयान की बात करें, जहां उन्होंने ये सिद्ध करने का प्रयास किया कि मुस्लिम शासकों के बिना दिल्ली का कोई अस्तित्व नहीं था, तो यह पढ़कर इंद्रप्रस्थ स्थापित करने वाले पांडव, और क़िला राय पिथौड़ा और धिलिका की स्थापना करने वाले राजा अनंग पाल तोमर और सम्राट पृथ्वीराज चौहान की आत्माएं ठहाके मारकर हंस रही होगीं।

सच तो यह है कि जो इतिहास का भाग हमसे इरेना अकबर जैसे वामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवियों ने छुपाने का प्रयास किया था, वो अब धीरे-धीरे खुलकर सामने आ रहा है। अब चाहे ये कुछ भी कर ले, पर झूठ को इतिहास बनाकर परोसने की कला को हमने स्वीकारना बंद कर दिया है। मुगलई भोजन का अस्तित्व भारतीय भोज्य पदार्थों के बिना असंभव है, चाहे आप जितना प्रोपगैंडा फैलाना हो फैला लें।

Exit mobile version