जेएनयू के फीस में वृद्धि पर रविश कुमार के विचार उनके स्वभाव की तरह हास्यास्पद हैं!

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अपनी विचारधारा के लिए अक्सर विवादों के केंद्र में रहने वाला जेएनयू एक बार फिर सुर्खियों में है, और इस बार भी गलत कारणों से। हाल ही में प्रशासन द्वारा हॉस्टल फीस एवं विश्वविद्यालय की अन्य सुविधाओं के मूल्य में बढ़ोत्तरी के विरोध में जेएनयू के वामपंथी छात्रों ने एक बार फिर कैम्पस में हुड़दंग मचाया हुआ है। इन छात्रों के उग्र प्रदर्शन के कारण हाल ही में सम्पन्न विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में काफी अड़चनें आई। छात्रों के प्रदर्शन के बाद कॉलेज प्रशासन ने फीस बढ़ोतरी के फैसले को वापस ले लिया है। हालांकि, इस विषय पर रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित पत्रकार रवीश कुमार ने अपने विचार सबके सामने रखे।

प्राइम टाइम पर इनका मुंह खुला नहीं कि इन्होंने इस स्थिति के लिए भी मोदी सरकार को दोषी ठहरा दिया और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए एकदम ऊटपटाँग तर्क सामने रखे। सबसे पहले तो रवीश कुमार ने फीस की बढ़ोत्तरी के लिए देश की आर्थिक स्थिति को प्रमुख कारण बताते हुए कहा, ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ही नहीं, आईआईटी के एमटेक और पीएचडी के छात्र भी फीस वृद्धि को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। उत्तराखंड के 16 आयुर्वेदिक कालेजों के छात्र भी फीस वृद्धि के खिलाफ 43 दिनों से आंदोलन कर रहे हैं। यह बताता है कि खराब आर्थिक स्थिति का असर आम परिवारों पर पड़ा है।  जहां नौकरियां जा रही हों, सैलरी न बढ़ रही हो, मजदूरी घट रही हो, वहां फीस बढ़े यह अजीब है। अगर सरकारी संस्थान महंगे होंगे तो सबको शिक्षा नहीं मिलेगी”।

इसके तुरंत 360 डिग्री का यू टर्न लेते हुए रवीश कुमार की लड़ाई फीस वृद्धि से हटकर जेएनयू के पुस्तकालय को 24 घंटे खुला रखने पर चली गयी। स्वयं रवीश महोदय के शब्दों में, ‘जेएनयू की लाइब्रेरी की तस्वीर यहां से पास होने वाले छात्रों के दिलों में हमेशा के लिए रह जाती है। रात अंधेरे किसी रास्ते से किताब लिए आता कोई छात्र पढ़ाकू दिखने के लिए नहीं बल्कि किताबों के बीच जीने मरने के लिए लाइब्रेरी में वक्त बिताता है। इस लाइब्रेरी ने न जाने कितने छात्रों की ज़िंदगी बदल दी। पहले लाइब्रेरी के कई रीडिंग रूम पूरी रात खुले रहते थे, अब छात्रों का कहना है कि एक भी रीडिंग रूम रात भर खुला नहीं रहेगा”। मूल मुद्दे से ऐसे भटकना तो कोई रवीश कुमार से ही सीखे।

ठहरिए, बात यहीं पर खत्म नहीं होती। रवीश बाबू ने तो यहाँ तक कह दिया कि जेएनयू में जो अपनी फीस नहीं देते हैं, उन डिफॉल्टरों की स्थिति के लिए भी सरकार और उनकी आर्थिक नीतियाँ दोषी है। रवीश कुमार के अनुसार, ‘यह इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि डिफॉल्टर बढ़ गए हैं, ये यूनिवर्सिटी का कहना है। तो डिफॉल्टर क्यों बढ़े? क्योंकि भारत की आर्थिक स्थिति खराब है? दस साल बाद फीस बढ़ाई जा रही है। अभी आपने सुना कि जो छात्र 800 रुपया नहीं दे सकता उससे अगर 12000 रुपये लिए जाएंगे तो वह कहां से देगा? परिमल ने ऐसे कुछ छात्रों से बात की है. जो ऐसे परिवारों से आते हैं जिनके लिए 1000 रुपये की बढ़ोत्तरी भी लाख के समान है”।

अब ऐसा है रवीश कुमार जी, पहले तो ज़रा फैक्ट चेकिंग पर ध्यान दें हॉस्टल फीस 300 रुपए हुआ है, 3 लाख नहीं जो आप इतना घबराए गये। यह भी आजकल के प्रतिष्ठित भारतीय संस्थानों के हॉस्टल फीस के मुकाबले काफी सस्ता है। यदि ना समझे हो, तो बी एच यू को ही देख लीजिए। वहां का फीस स्ट्रक्चर भी गरीब छात्रों के लिए अनुकूल है। यदि यहां पर बढ़ोत्तरी हुई भी है, तो भी यहां के छात्रों ने इतना हंगामा नहीं मचाया जितना जेएनयू के वामपंथी गुटों ने फीस की बढ़ोत्तरी पर मचाया है। अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना गलत नहीं है, पर जो आप करते हैं ना रवीश कुमार, उसे अन्याय के विरुद्ध विरोध नहीं, ज़बरदस्ती अपना एजेंडा चलाना कहते हैं।

खैर, यदि आप रवीश कुमार की छवि को हटा दे, तो आपको ऐसा लगेगा जैसे कोई निष्पक्ष पत्रकार नहीं, बल्कि जेएनयू के उसी उग्रवादी छात्र समूह का कोई सदस्य ऐसी बातें कर रहा है। लगता है लोकसभा 2019 के चुनावी परिणाम, कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने और अब अयोध्या मामले में मंदिर के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने का काफी घातक असर रवीश बाबू के मन मस्तिष्क पर पड़ा है। इसके अलावा और कोई कारण नहीं हो सकता कि जेएनयू में फीस वृद्धि के मुद्दे पर रवीश कुमार लाइव टेलिविजन पर ऐसे बेतुके और ऊटपटाँग बयान देते फिरे। अब जब कॉलेज प्रशासन ने फीस वृद्धि का फैसला वापस लेने की बात कही है तो ये मुद्दा अभी के लिए तो शांत हो जायेगा।

परंतु यह पहला ऐसा मामला नहीं है। इससे पहले भी रवीश कुमार अपने ऊटपटाँग तर्कों के लिए सोशल मीडिया पर हंसी का पात्र बने हैं। इसी वर्ष की शुरुआत में उन्होंने रक्षा बजट के बारे में ये फेक न्यूज़ फैलानी शुरू कर दी की तथाकथित रक्षा बजट 1962 के स्तर से भी कम हो चुका है। विश्वास नहीं होता तो इसे ही देख लीजिये –

रवीश कुमार कितने निष्पक्ष हैं, इसका अंदाज़ा इसी से पता चलता है कि लोकसभा चुनाव के दौरान वे महागठबंधन की एक रैली में किस प्रकार से अखिलेश यादव और मायावती की चाटुकारिता करते हुए दिखाई दिए थे। इसके बाद भी उनकी हिम्मत तो देखिये कि वे अपने समकालीन पत्रकारों को बिना किसी ठोस आधार के मोदी सरकार का चाटुकार घोषित कर देते हैं।

उदाहरण के लिए रवीश कुमार ने कुछ एंकर्स और न्यूज़ चैनल के मालिकों पर निशाना साधते हुए कहा था कि उन्होंने भाजपा के लिए इतनी शिद्दत से मेहनत की है कि उन्हें मोदी सरकार की कैबिनेट में शामिल कर लेना चाहिए। रवीश कुमार ने अपनी इस टिप्पणी के माध्यम से मेनस्ट्रीम मीडिया पर तंज कसने की कोशिश की थी, लेकिन उनका यह तंज़ उनपर तब भारी पड़ गया जब रोहित सरदाना ने उनको उन्हीं की भाषा में करारा जवाब दिया –

ऐसा लगता है कि रवीश कुमार अब अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं। तर्कसंगत बने रहने के लिए अब वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं, चाहे इसके लिए कॉमन सेंस की ही बलि क्यों न चढ़ानी पड़े। पर जेएनयू के मामले में जिस तरह से रवीश कुमार ने अपने तर्क पेश किए हैं, उसे देखकर हमारे मुंह से बरबस यही निकल पड़ता है, ‘बेटा, तुमसे न हो पाएगा। हमें तुम्हारे लक्षण बिलकुल ठीक नहीं लग रहे तुमसे न हो पाएगा’।

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