एक बेहद अप्रत्याशित दांव में सभी को चौंकाते हुए भाजपा ने एक बार फिर महाराष्ट्र में सत्ता की कमान संभाल ली। भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस ने एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली है, और उनके साथ एनसीपी के नेता अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। इतना ही नहीं, अजित पवार ने शरद पवार से दूरी बनाते हुए ये कदम उठाया है। जहां एक ओर कई राजनीतिक विश्लेषक इस कदम से भौचक्के हुए हैं, तो वहीं शिव सेना की स्थिति ऐसी हो गयी है, कि अब उनसे न निगलते बन रहा है, और न ही उगलते। इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिवसेना की वर्तमान स्थिति के लिए एक ही व्यक्ति जिम्मेदार है और वो है शिवसेना के प्रमुख सलाहकारों में से एक संजय राउत। उनके नियमित शायरियों से भले ही राज्य का मनोरंजन होता रहा हो, पर उनके सुझावों के कारण आज शिवसेना ने एक कहावत को चरितार्थ किया है, “चौबे जी चले छब्बे जी बनने, दूबे जी बनके लौटे!”
संजय राउत अमित शाह की तर्ज पर शिवसेना के संकटमोचक बनना चाहते थे। सेना में एक गलत धारणा भरने के साथ-साथ उन्होंने उद्धव ठाकरे को यह विश्वास भी दिलाया कि संजय के निर्देशानुसार चलने पर शिवसेना की ही सरकार बनेगी। परंतु राउत के बड़बोलेपन के कारण सेना को ही नुकसान झेलना पड़ा। उनके बयान जैसे ‘देवराज इंद्रा का मणि भी भाजपा दे दे तो भी भाजपा के साथ शिवसेना गठबंधन नहीं करेगी’ ने शिवसेना को उस मुहाने पर खड़ा कर दिया, जहां से वो चाहकर भी वापिस नहीं लौट सकते।
संजय राउत उद्धव ठाकरे के विश्वसनीय सलाहकारों में से एक माने जाते हैं, जिन्हें बालासाहेब ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना में ज़्यादा ऊंचा कद मिला। अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद संजय राउत [जो शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना’के संपादक भी हैं] ने सवाल किया था कि क्या अटल जी की मृत्यु की देर से घोषणा की गई थी ताकि पीएम मोदी 15 अगस्त को बिना किसी व्यवधान के अपना भाषण दे सकें। उन्होंने मराठी में एक लेख में यह सवाल पूछा था: “स्वराज्य क्या है?”। संजय राउत ने लिखा, संजय राउत ने लिखा, “हमारे लोगों के बजाए हमारे शासकों को पहले ये समझना चाहिए कि स्वराज्य क्या है। 16 अगस्त को अटल जी का निधन हो गया था। स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्रीय शोक और झंडा आधा ना झुके, इसके लिए अटल जी की मृत्यु शायद 15 को ना होकर 16 अगस्त को हुई, या फिर इसकी घोषणा 16 को हुई”।
इस तरह के निकृष्ट बयान सिद्ध करते हैं कि कैसे राउत मात्र एक बड़बोले व्यक्ति है, जिनके पास लेशमात्र भी राजनीतिक कुशलता उपलब्ध नहीं है। यहां तक कि महायुति के टूटने के बाद, अमित शाह ने शिवसेना के सम्मान के संकेत के रूप में गठबंधन क्यों तोड़ा, इसका विवरण देने से इनकार कर दिया। जबकि चंद सेकंड के फेम का भूखे राउत तुरंत दावा करने लगे कि, ‘यह बालासाहेब (ठाकरे) का कमरा था, जहां उद्धव और अमित शाह ने फैसला किया था। यह हमारे लिए एक मंदिर है और उस मंदिर में बातचीत हुई थी। अगर वे कहते हैं कि उन्होंने कभी ऐसी बातों (50:50 सूत्र) पर चर्चा नहीं की, तो यह बालासाहेब का अपमान है। हम उनकी कसम खाते हैं और अगर उन्होंने कुछ और कहा है, तो उन्हें इसका बेहतर खुलासा करना चाहिए। उस मंदिर में जो भी चर्चा हुई, उसे हम कभी नहीं भूल सकते।”
परंतु संजय राउत यहीं पर नहीं रुके। उन्होंने अपने बड़बोले शब्दों में चार कदम आगे बढ़ते हुए आरोप लगाया कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पीएम मोदी को 50:50 के फार्मूले का कभी खुलासा नहीं किया। उन्होंने कहा, “हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सम्मान करते हैं। हालांकि, अमित शाह और उद्धव ठाकरे के बीच बैठक में क्या हुआ, इसकी जानकारी उन्हें नहीं दी गई।” शायद इसीलिए हमारे बुजुर्गों ने सही कहा था, ‘एक बुद्धिमान शत्रु से ज़्यादा खतरनाक होता है एक मूर्ख सलाहकार का साथ’।
फडणवीस के शपथ ग्रहण के बाद राउत ने तुरंत ट्वीट किया, ‘पाप के सौदागर’। यदि शिवसेना को राजनीतिक हाशिये की ओर नहीं बढ़ना है, तो उसे अविलंब संजय राउत का साथ छोड़ देना चाहिए। राउत इतने अक्षम हैं कि वह मानते हैं शरद पवार एनसीपी के अंदर की गतिविधियों से पूरी तरह अनजान थे, इसलिए उन्होने वर्तमान स्थिति के लिए पूरी तरह से अजित पवार को दोषी ठहराया। कांग्रेस ने राकांपा और शिवसेना के संयुक्त संवाददाता सम्मेलन का हिस्सा बनने से इंकार कर दिया, लेकिन राउत ने उद्धव सहित पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को प्रेस कॉन्फ्रेंस का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित किया। इसी को कहते हैं, ‘विनाश काले विपरीते बुद्धि। ’