लिबरलों को सैफई महोत्सव में बॉलीवुड सितारों के फूहड़ प्रदर्शनों से कोई दिक्कत नहीं था

दीपोत्सव

PC: One India

26 अक्टूबर को दीपावली से पहले राम नगरी अयोध्या में सरयू नदी के किनारे दीपोत्सव मनाया गया। जिसके बाद कई न्यूज़ चैनलों एवं मीडिया पोर्टल्स ने दीपोत्सव के बारे में भ्रामक खबरें फैलाना शुरू कर दिया। भले ही वे सैफई महोत्सव पर कुछ न बोले हों लेकिन दीपोत्सव का मजाक उड़ाना इनका परम कर्तव्य बन जाता है।

वे ये भूल रहे हैं कि इस दीपोत्सव के कारण राज्य, विशेषकर अयोध्या के पर्यटन में काफी वृद्धि आई है। दीपोत्सव में करीब 5.5 लाख से ज़्यादा दीपों का उपयोग किया गया था, जिसमें मिट्टी के बने दीपों का ही उपयोग हुआ था। कल्पना कीजिये कि कितने कुम्हारों को इस कार्यक्रम से लाभ मिला होगा? कितने लोगों को इस उत्सव से रोजगार मिला होगा? क्या उनकी दीपावली बढ़िया नहीं मनी होगी? इसके साथ साथ एक फोटो का दुरुपयोग कर हमारे लेफ्ट लिबरल बुद्धिजीवियों ने दीपोत्सव एवं दीपावली के त्योहार का मज़ाक उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

हमारे मीडिया का एक धड़ा विशेष रूप से किसी भी हिंदू त्योहार के महिमामंडन पर आँखें तरेरने और उसका उपहास उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। परंतु जब एक महोत्सव में सरकारी तंत्र के दुरुपयोग और राजकोष की बरबादी का उल्लेख किया जाता है, तो इन्हीं मीडिया वालों को मानो साँप सूंघ जाता है। दीपोत्सव पर फेक न्यूज़ फैलाने से बाज़ न आने वाले लेफ्ट लिबरल ब्रिगेड सैफई महोत्सव का नाम सुनते ही मौन व्रत धारण कर लेते हैं।

परंतु सैफई महोत्सव क्या था? इसके आयोजन पर मौन रहने के लिए आखिर मीडिया और बुद्धिजीवियों को निशाने पर क्यों लिया जाता है। दरअसल, यह कार्यक्रम सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के जन्मदिन के उपलक्ष्य में उनके पैतृक ग्राम सैफई में मनाया जाता था, जो इटावा जिले में स्थित है। 1997 में प्रारम्भ हुआ यह कार्यक्रम अखिलेश यादव के 2012 में मुख्यमंत्री बनने के बाद एक अलग ही स्तर पर आयोजित कराया जाने लगा। सैफई महोत्सव सरकारी धन पर आयोजित होता था, और इसके लिए उत्तर प्रदेश के राजकोष में से काफी धन खर्च किया जाता था।

हिंदू धर्म में भगवान राम के आगमन की ख़ुशी में मनाया जाने वाला दीपोत्सव हो या हो जन्माष्टमी या महाशिवरात्रि, या फिर तुलसी विवाह ही क्यों न हो, सभी के पीछे का उद्देश्य उस समय की घटना को याद करने और उसे जीवित रखने के लिए मनाया जाता है। और इन त्योहारों के पीछे का सन्देश लोगों का सही मार्गदर्शन करना होता है। ऐसे में अब प्रश्न ये उठता है कि सैफई महोत्सव को मनाये जाने का मूल उद्देश्य क्या है? एक ऐसे नेता के जन्मदिन को धूम-धाम से त्यौहार की तरह मनाने का क्या तात्पर्य है, जिसने छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर निर्दोष कारसेवकों पर गोलियां चलवायी थीं? जिस उत्सव में भारी मात्रा में शराब और अश्लील डांस होते हैं, बड़े-बड़े सितारे आकर एक छोटे से गाँव में जाकर परफॉर्म करते हैं, वो उत्सव किस तरह का सन्देश देता है?

2015 में जब अखिलेश यादव की सरकार की चारो ओर से आलोचना हो रही थी, तब भी वे सैफई महोत्सव आयोजित कराने में व्यस्त थे। उस समय शीत लहर एवं निमोनिया के कारण 30 से ज़्यादा बच्चों की मृत्यु हो गयी थी, एवं राज्य एक वित्तीय आपदा से जूझ रहा था। परंतु न अखिलेश यादव को राज्य की सुध थी, और न ही हमारे लिबरल मीडिया को। अखिलेश यादव ने तो सैफई महोत्सव में हिस्सा लेने के लिए प्रधानमंत्री मोदी द्वारा 9वें प्रवासी भारतीय दिवस का निमंत्रण भी ठुकरा दिया था। कहा जाता है कि लगभग 334 करोड़ रुपये उस वर्ष सैफई महोत्सव पर खर्च हुए थे।

यहाँ तक कि 2016 में जब देश पठानकोट हमले एवं मथुरा में हुए दंगों की दोहरी मार से जूझ रहा था, तब भी सपा को सैफई महोत्सव आयोजित कराने की धुन सवार थी। हालांकि, इस बार अखिलेश यादव ने मुलायम से चुनाव संबंधी विवादों के बाद इस महोत्सव में हिस्सा लेने से मना कर दिया, और 2017 में पनपे पारिवारिक विवाद के बाद सैफई महोत्सव पर ग्रहण लग गया।

आज जो लेफ्ट लिबरल मीडिया अयोध्या में आयोजित दीपोत्सव का उपहास उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही, वही सैफई महोत्सव में सरकारी धन और संसाधनों के दुरुपयोग पर चुप्पी साध लेती है। कभी उत्तर प्रदेश अपने कुशासन और सैफई महोत्सव जैसे अनावश्यक कार्यक्रमों पर होने वाले खर्चों के लिए बदनाम था। आज वहाँ प्रभु राम के अयोध्या आगमन के उपलक्ष्य में पुनः आरंभ किए गए दीपोत्सव के लिए एक बार फिर चर्चा में है, और यही अंतर बना रहना चाहिए।

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