भारत में लेफ्ट लिबरल गैंग हिपोक्रिसी का दूसरा नाम है। यह गैंग कैमरे के सामने ‘हाई मॉरल ग्राउंड’ लेने में विश्वास रखता है, और अपने आप को सच का पुरोधा कहता है, लेकिन असल ज़िंदगी में इनसे ज़्यादा पक्षपात शायद ही कोई करता हो। राम मंदिर के मुद्दे पर भी हमें यही देखने को मिला। सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार के अपने फैसले में यह स्पष्ट कर दिया कि विवादित ज़मीन पर रामलला का अधिकार रहेगा और यह सारी ज़मीन हिंदुओं को दी जाएगी। कोर्ट के इस फैसले के साथ ही देश के वामपंथी इतिहासकारों के सालों की मेहनत से तैयार किया गया झूठ का महल एक पल में ढह गया।
देश के कुछ तथाकथित इतिहासकारों ने जहां एक तरफ कोर्ट में कई और तथ्य पेश किए, तो वहीं मीडिया में इन्होंने कुछ और ही कहा। उदाहरण के तौर पर, रामजन्म भूमि की खुदाई के दौरान सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से मौजूद JNU की प्रोफेसर सुप्रिया वर्मा ने अपने अलग-अलग इंटर्व्यूज़ में कहा था कि खुदाई में ऐसा कुछ भी नहीं मिला है जो यह साबित करता हो कि विवादित ज़मीन पर कभी मंदिर हुआ करता था। इसके अलावा एक लेख में तो वर्मा ने यह तक दावा किया था कि विवादित स्थल के नीचे पुरानी मस्जिदें ही रही होंगी।
"There is no archeological evidence that there was a temple under the #BabriMasjid Masjid," said Supriya Varma, one of the archeologists who challenged the ASI's 2003 findings of there being evidence of a temple under the mosque. https://t.co/gTR8mbWlfk
— HuffPost India (@HuffPostIndia) November 9, 2019
हालांकि, एक किताब में सुप्रिया लिखती हैं ‘बड़ी स्पष्टता से यह कहना मुश्किल है कि ASI की खुदाई में मिले कुछ ढांचे हिन्दू धर्म से जुड़े हैं, क्योंकि ये धार्मिक ढांचे कुछ महलों, बुद्ध, जैन या इस्लामिक ढांचों से जुड़े हो सकते हैं’। ऐसा कहना गलत होगा कि यक्ष या यक्षी सिर्फ हिन्दू धर्म तक सीमित होते हैं’। यहाँ तक कि कोर्ट में भी उन्होंने इन्हीं बातों को दोहराया।
बता दें कि मीनाक्षी जैन, जो कि एक राजनीतिज्ञ और इतिहासकर हैं, इन्होंने वर्ष 2013 में एक किताब लिखी थी जिसमें उन्होंने तथाकथित इतिहासकारों के कोर्ट में दिये बयानों और मीडिया में लिखी बातों के अंतर का उल्लेख किया था। उन्होंने वर्ष 2010 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश को पढ़ा था और पाया था कि इतिहासकारों ने जहां मीडिया में किसी मंदिर के ना होने की बात कही थी, तो वहीं कोर्ट में उन्होंने इस बारे में कुछ बोलने से ही मना कर दिया था।
Now, from ^this judgement 9 surreal testimonies from Left Historians on RJB in court under oath that are surreal, scary and sad.
— Yellow (@PeeliHaldi) March 5, 2017
चार प्रख्यात इतिहासकार- आरएस शर्मा, डीएन झा, सूरजभान और अतहर अली, जिन्हें अदालत ने ‘लापरवाह और गैर-जिम्मेदाराना बयान’, ‘उचित जांच की कमी’ और ‘आत्मविश्वास को प्रेरित करने में विफलता’ जैसे कारणों को आधार बनाकर विशेषज्ञ के तौर पर मान्यता देने से मना कर दिया था। इन सभी को दिल्ली स्थित देश की लिबरल मीडिया ने सालों तक महिमामंडित किया, और उनके दावों को खूब रिपोर्ट किया।
Indiafacts के लिए लिखते हुए रीतिका शर्मा ने अपने कुछ लेखों में लेफ्ट लिबरल इतिहासकारों की पोल खोलते हुए जाने-माने इतिहासकारों की प्रशंसा की है।
कल, द वायर के साथ एक साक्षात्कार में, डीएन झा ने कहा कि “अयोध्या विवाद विश्वास और तर्कसंगतता के बीच एक लड़ाई है।” उन्होंने दावा किया कि “हमने सभी शाब्दिक और पुरातात्विक साक्ष्यों की जांच की और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मस्जिद के नीचे कोई हिंदू मंदिर नहीं था।”
दिल्ली के लेफ्ट लिबरल पत्रकारों ने सालों तक लेफ्ट बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर लेफ्ट की विचारधारा को बढ़ावा दिया। राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त और करण थापर जैसे पत्रकारों ने इनके दावों का समर्थन किया और उनके विचारों को बल दिया। हालांकि, अब कोर्ट ने अपने फैसले से इन सबके एजेंडे को चुटकी में धराशायी कर दिया है ।