श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए रविवार को मतदानों की गिनती शुरू हो गई है। यूं तो उच्च पद के लिए 35 दावेदार हैं, परंतु असली लड़ाई है यूनाइटेड नेशनल पार्टी के सजीत प्रेमदासा और श्रीलंका पोडुजना पेरामुना पार्टी के गोताबाया राजपक्षे के बीच। बता दें कि गोताबाया राजपक्षे श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई होने के साथ-साथ श्रीलंका के पूर्व डिफेंस सेक्रेटरी भी रह चुके हैं। उन्हें 2009 में 37 वर्ष लंबे लिट्टे (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम) द्वारा फैलाये गए अलगाववाद को खत्म करने में एक अहम भूमिका निभाने के लिए जाना जाता है।
यूं तो संभावित मतदाताओं का कोई ओपिनियन पोल नहीं किया गया, पर मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इतना तो स्पष्ट है कि इस चुनाव में गोताबाया राजपक्षे जीत रहे हैं। इस साल अप्रैल माह में श्रीलंका में ईस्टर के दौरान हुए आतंकी हमलों के बाद विशेष रूप से गोतबया राजपक्षे की लोकप्रियता बढ़ी है। इन दिनों श्रीलंका में राष्ट्रीय सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। राजपक्षे भाइयों को पारंपरिक रूप से तमिल विद्रोहियों की हार और श्रीलंका को गृहयुद्ध से बाहर निकालने का श्रेय दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में, श्रीलंकाई राष्ट्रवाद को गोताबाया राजपक्षे ने चुनाव में अच्छे से भुना दिया है, जिसके कारण वे अपने प्रतिद्वंदी प्रेमदासा से अधिक मजबूत और लोकप्रिय माने जा रहे हैं।
प्रारंभिक चुनाव परिणाम के रुझान भी अपेक्षित तर्ज पर है। राजपक्षे को उनके और प्रेमदासा के बीच मुकाबले में संभावित विजेता के रूप में देखा जा रहा है। वर्तमान खबरों के मुताबिक, राजपक्षे 52.87 फीसदी मतों के साथ आगे चल रहे हैं, जबकि साजिथ प्रेमदासा के पास गिने गए कुल 5 लाख वोटों में से 39.67 फीसदी थे। इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि गोतबाया राजपक्षे श्रीलंका का नेतृत्व कर सकते हैं। मौजूदा गिनती के आधार पर गोतबाया जीत का ऐलान भी कर चुके हैं।
जहां गोताबाया राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति बनने के लिए बिल्कुल तैयार हैं, वहीं उनके बड़े भाई महिंदा राजपक्षे को अगले साल संसदीय चुनावों के बाद प्रधानमंत्री का पद मिलने की आशा है। वह वर्तमान संसद में विपक्ष के नेता हैं और उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए एक स्पष्ट विकल्प के रूप में देखा जा रहा हैं। सच कहें तो पिछले वर्ष महिंद्रा राजपक्षे ने कुछ समय के लिए श्रीलंका के प्रधानमंत्री के पद पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि उन्होंने श्रीलंका में अस्थायी तख्तापलट किया था। सिरीसेना और विक्रमसिंघे के बीच संबंध टूटने के बाद सिरीसेना ने उन्हें श्रीलंका के प्रधानमंत्री के रूप में स्थापित किया था और पीएम रानिल विक्रमसिंघे की कुर्सी चली गई थी। हालांकि, राजपक्षे ने बाद में एक अदालती लड़ाई के दौरान इस्तीफा दे दिया, जिसके कारण उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करने से भी रोक दिया गया था।
चूंकि गोतबाया राजपक्षे राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए वास्तव में सहज दिख रहे हैं, इसलिए ये व्यापक रूप से प्रचारित किया जा रहा है कि श्रीलंका में चीन समर्थक शासन लौटने वाला है। ये आशंकाएं काफी हद तक 2005 से 2015 तक महिंद्रा राजपक्षे के दस साल के शासन पर आधारित हैं, जिस दौरान चीन ने श्रीलंका में पैर पसार लिए थे। यह उनके कार्यकाल के दौरान विवादित हंबनटोटा बंदरगाह परियोजना थी, जिसे अब दुनिया भर में चीन के ‘ऋण जाल कूटनीति’ (Debt trap) के एक जीवित उदाहरण के रूप में देखा जाता है।
प्रतिकूल व्यवहार रिपोर्ट के बावजूद चीन द्वारा वित्तपोषित और भारत द्वारा मना करने के बाद ये पोर्ट कार्यकुशलता में पूरी तरह विफल सिद्ध हुआ। दुनिया के सबसे व्यस्त शिपिंग लेन से कई हज़ार जहाज गुजरते हैं, लेकिन 2012 से अब तक हंबनटोटा बंदरगाह से मात्र 34 जहाज ही गुजरे हैं। राजपक्षे शासन को इन्ही कारणों से 2015 में निष्कासित किया गया था, लेकिन नई सरकार को राजपक्षे शासन द्वारा लिए गए कर्जों को भरने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। अंत में, श्रीलंका को बंदरगाह और एक 15000 एकड़ की विशाल भूमि को चीन को सौंपनी पड़ी। यह चीन के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे भारत के तटों से दूरी काफी कम हो गयी थी।
हिंद महासागर क्षेत्र में श्रीलंका भारत और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा का एक बिंदु माना जाता है। यही कारण है कि भारत की घरेलू श्रीलंकाई राजनीति में भी काफी गहरी दिलचस्पी रही है। ऐसे समय में जब पूरा कवरेज इस बात को लेकर है कि कैसे एक राजपक्षे का शासन फिर से श्रीलंका को चीन की ओर ढकेल सकता है, तो हमें ये जानना चाहिए कि आखिर क्यों राजपक्षे परिवार वास्तव में भारत के प्रति विरोधी नहीं है।
पिछले कुछ समय से श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति ने कुछ ऐसे कदम उठाए हैं, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि भारत उनके लिए एक प्रतिकूल देश नहीं है। पिछले वर्ष उन्होंने भारत का दौरा किया, जिससे ये स्पष्ट संदेश गया था कि वे न भारत के लिए विरोधी हैं, और न ही उनकी सत्ता वापसी के बाद भारत उनके खिलाफ होगा। महिंदा राजपक्षे राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए योग्य नहीं थे, उनके भाई ने उनकी जगह ले ली है। हाल ही में एक इंटरव्यू में, महिंदा राजपक्षे ने एक बार फिर भारत के प्रति अपनी मित्रता व्यक्त करने की कोशिश की थी। उन्होंने कहा था- ‘’हम पर चीन समर्थक होने का आरोप बिल्कुल निराधार है, श्रीलंका हमेशा से भारत का अच्छा दोस्त रहा है।‘’
जबकि राजपक्षे शासन को “चीन समर्थक” करार दिया गया था, तो इस मुद्दे को सही संदर्भ में देखना महत्वपूर्ण है। यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अमेरिका ने 2007 में श्रीलंका को सैन्य सहायता समाप्त कर दी थी। उस समय श्रीलंका तमिल विद्रोहियों से लड़ रहा था। चीन ने इस स्थिति का फायदा उठाया और श्रीलंका का सबसे बड़ा दानदाता बन गया। चीन ने इस अवसर का उपयोग हंबनटोटा बंदरगाह परियोजना को आगे बढ़ाने के लिए भी किया। ऋण जाल कूटनीति के बीजिंग की रणनीति अभी भी विश्व को अच्छी तरह से पता नहीं थी और कोलंबो जल्द ही चीन के जाल में फंस गया। इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि श्रीलंका में राजपक्षे शासन भारत के हितों के विरोधी थे। भारत को द्वीपीय देश में चीनी उपस्थिति के मुकाबले के लिए एक रणनीति तैयार करनी चाहिए थी।
यहां यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि श्रीलंका के अंदर यह धारणा थी कि भारत की नीति तमिलनाडु से बहुत प्रभावित है। यूपीए के दौर में डीएमके जब सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा थी, तो इस गलत धारणा को और भी मजबूती मिली। 2013 में, तत्कालीन पीएम मनमोहन सिंह ने कॉमनवेल्थ हेड्स ऑफ गवर्नमेंट मीटिंग (CHOGM) को छोड़ने का फैसला किया था। इससे यह स्पष्ट हुआ कि घरेलू राजनीति रणनीतिक संबंधों में हस्तक्षेप कर रही थी।
Had an extensive meeting with the Leader of Opposition, Mr. Mahinda Rajapaksa.
We discussed the need for close collaboration between India and Sri Lanka in the fields of counter terrorism, security and economic development. @PresRajapaksa pic.twitter.com/uOs7BSTBuH
— Narendra Modi (@narendramodi) June 9, 2019
परंतु जब 2014 में भाजपा सत्ता में आई थी, तो श्रीलंकाई मीडिया में टिप्पणीकारों के एक वर्ग ने राहत की सांस ली। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत-श्रीलंका संबंध अब सही दिशा में जाने के लिए तैयार हैं। अब पिछली बातों को भूलकर आगे बढ़ने और निकट संबंधों को बनाने का दायित्व दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व पर है। भारत के पास अच्छा मौका है क्योंकि चीन के कर्ज का मारा श्रीलंका अब कोई दूसरा हाथ खोज रहा है, ऐसे में बिछड़े यार से मिलने का सबसे सही वक्त हमारे सामने है।