वर्ष 2024: महाराष्ट्र में त्रिकोणीय मुकाबला, क्योंकि कभी राज्य में बड़ी पार्टी रही शिवसेना कमजोर होगी

PC: News18

19 जून 1966। 53 वर्ष पहले बॉम्बे [अब मुंबई] में एक ऐसी पार्टी का उदय हुआ था जिसका मुख्य उद्देश्य था मराठी मान को सर्वोपरि रखना। इसके बाद धीरे धीरे उनका उद्देश्य हुआ कम्यूनिस्टों को महाराष्ट्र से बाहर खदेड़ना और अस्सी का दशक खत्म होते होते इनका प्रमुख उद्देश्य बना समूचे भारत में हिन्दुत्व की विचारधारा का पुनरुत्थान करना। इस पार्टी का नाम है शिवसेना और इसके संस्थापक थे प्रखर कार्टूनिस्ट एवं राष्ट्रवादी बालासाहेब केशव ठाकरे।

एलके आडवाणी की रथ यात्रा को समर्थन देना हो, या फिर अयोध्या अभियान के लिए अपने कार्यकर्ताओं को भेजना हो, या फिर कश्मीर के मुद्दे पर अपनी बेबाक राय रखनी हो, बालासाहेब ठाकरे के नेतृत्व में शिव सेना ने कट्टर हिन्दुत्व की छवि पेश की थी। परंतु आज जब बालासाहेब हमारे बीच में नहीं है, तो अब शिवसेना का प्रमुख ध्येय हिन्दुत्व की विचारधारा बढ़ावा देने की बजाय सत्ता में किसी भी तरह आसीन होना हो गया है। कभी जिस काँग्रेस और एनसीपी को महाराष्ट्र से बाहर खदेड़ने की घोषणा करते शिवसेना नहीं थकती थी, आज उन्हीं दोनों पार्टियों के साथ गठबंधन कर शिवसेना महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए आतुर है।

परंतु ये पहली बार नहीं जब शिवसेना ने काँग्रेस के साथ संधि करेगी। बाल ठाकरे ने 1971 में कांग्रेस O (कांग्रेस का इंदिरा गांधी विरोधी गुट जो 1969 में कांग्रेस से अलग हुआ था) के साथ गठबंधन किया। ठाकरे ने शिव सेना के टिकट पर लोक सभा चुनावों में 3 प्रत्याशियों को उतारा था जिनमें से कोई भी नहीं जीता। जब 1960 के दशक में मुंबई में कम्यूनिस्टों का बोलबाला था, उस समय उनसे निपटने के लिए वसन्त राव नाईक ने बालासाहेब ठाकरे और उनकी शिवसेना को कथित रूप से समर्थन दिया था।

इसके अलावा जब 1975 में  जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, तो बाल ठाकरे ने इसे सही ठहराया और 1977 के चुनावों में कांग्रेस को समर्थन दिया। परंतु आपातकाल में काँग्रेस को समर्थन देना शिव सेना को भारी पड़ गया था। 1978 के विधानसभा चुनाव और बीएमसी चुनाव में शिवसेना को मुंह की खानी पड़ी। शिवसेना को इतना बड़ा धक्का लगा कि बालासाहेब ने शिवाजी पार्क की एक रैली में अपना इस्तीफा तक ऑफर कर दिया था। हालांकि शिवसैनिकों के अपील के बाद ये इस्तीफा उन्होंने वापस ले लिया।

यही नहीं, शिवसेना को उस समय विरोधी वसंत सेना भी कहते थे। 1980 में शिव सेना ने कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में समर्थन किया था। बालासाहेब ने कांग्रेस के खिलाफ शिव सेना के प्रत्याशी नहीं उतारे थे। इसकी बड़ी वजह बताई गई तत्कालीन मुख्यमंत्री एआर अंतुले के साथ बालासाहेब के निजी रिश्ते। यही नहीं बालासाहेब की शिवसेना ने प्रतिभा पाटिल और प्रणव मुखर्जी दो कांग्रेसी उम्मीदवारों का राष्ट्रपति चुनाव के लिए समर्थन किया था।

इसके बाद 1980 में भी महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में शिव सेना ने कांग्रेस को समर्थन दिया। कहा जाता है कि बाल ठाकरे के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जैसे शंकर राव चव्हाण, वसन्त राव नायक एवं ए आर अंतुले के साथ मधुर संबंध भी थे। ऐसे में यदि शिवसेना काँग्रेस का दामन थामे, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

परंतु इतनी बार काँग्रेस के हाथ धोखा खाने के बाद भी शिवसेना का काँग्रेस एवं एनसीपी के पीछे भागना समझ से बिलकुल परे हैं। कभी इन्हीं दोनों पार्टियों के विरुद्ध पार्टी के मुखपत्र ‘सामना’ में फ्रंट पेज पर लेख छापे जाते थे। 2014 की शुरुआत में एक एडिशन के फ्रंट पेज पर लिखा हुआ था, ‘देश विरोधी काँग्रेस को उखाड़ फेंको’। क्या काँग्रेस के विरुद्ध वो उग्र स्वभाव, एनसीपी के विरुद्ध शिव सेना के नेताओं के बयान सब छलावा था?

शिवसेना अपने वर्तमान स्थिति के लिए तर्क दे रही है कि भाजपा ने चूंकि उनके बताए 50-50 फॉर्मूले से इनकार किया है, इसलिए उन्होंने यह गठबंधन तोड़ा था। जबकि सच्चाई तो यह है कि महाराष्ट्र की जनता ने महायुति यानि शिव सेना और भाजपा के गठबंधन के लिए अपना जनादेश दिया था। परंतु सत्ता की लालच में अधीर हो अब शिवसेना सब कुछ केवल अपने लिए ही चाहती है।

कभी राष्ट्रहित में बालासाहेब ठाकरे शिव सेना प्रमुख के पद को त्यागने के लिए तैयार हो जाते थे, आज सत्ता के लिए उद्धव ठाकरे जैसे लोग अपनी ही विचारधारा से विमुख अपने वैचारिक विरोधियों के साथ गठबंधन करने को भी तैयार हैं। आज शिवसेना के इस रुख पर हम सभी काफी दुखी है। आशा करते हैं कि शिव सेना को जल्द समझ आ जाये और जनता का आक्रोश न झेलना पड़े, अन्यथा आने वाले समय मे लोग यही कहेंगे एक थी शिवसेना।

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