इतिहास में पहली बार किसी गृहमंत्री ने ‘अल्पसंख्यक संस्थानों’ को मिलने वाले विशेषाधिकार पर बोला

अमित शाह, गृहमंत्री, अल्पसंख्यक

लोकसभा में सोमवार को भारी शोर-शराबे के बीच नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 पारित हो गया। हालांकि, विधेयक पेश करने से पहले सदन में करीब एक घंटे तक तीखी नोकझोंक हुई। इस दौरान गृहमंत्री शाह ने सवाल किया-

अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकार कैसे होंगे, बताएं। समानता का कानून कहां चला जाता है? अल्पसंख्यकों को अपना शैक्षणिक संस्थान चलाने का अधिकार क्या समानता के कानून के खिलाफ है क्या? उन्होंने पूछा कि जब कोई देश कहता है कि उसके देश में आने वाले व्‍यक्ति को नागरिकता देगा तो क्या वहां समानता का संरक्षण हो पाता है? अल्पसंख्यकों के लिए विशेष अधिकार कैसे होंगे? वहां समानता का कानून कहां चला जाता है? क्या अल्पसंख्यकों को अपना शैक्षणिक संस्थान चलाने का अधिकार समानता के कानून के खिलाफ है?

यह पहली बार हो रहा था जब कोई गृहमंत्री इस तरह से अल्पसंख्यकों को मिलने वाले विशेष प्रावधान पर सवाल किया हो। बता दें कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 29-30 के अनुसार:

(1) किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्‍कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने का अधिकार है।

(2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।

लेकिन यह मूल अधिकार हिंदुओं को अपने धर्म, संस्कृति और भाषा को बचाने का अधिकार नहीं देती।

एक ईसाई संस्था के लिए इस तरह से नियुक्ति में धर्म के आधार पर भेदभाव करना उनका मूलभूत अधिकार है। इसी तरह इस्लामिक शैक्षणिक संस्था भी हैं जो मनमानी करती है। यह कहां का न्याय है और सेकुलरिज्म का नाम देकर ये बुद्धिजीवी वर्ग हिन्दू धर्म के पीछे क्यों पड़ा है?

अगर बात अल्पसंख्यक की है तो संस्कृत भाषा भी अल्पसंख्यक की ही है और संविधान के अनुच्छेद 30 (1) सभी भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना के अधिकार’ और उसे अपने हिसाब से प्रशासन का अधिकार देने का वादा करता है। इसमें अल्पसंख्यकों के दो आधार हैं, धार्मिक और भाषाई आधार पर। फिर तो देश में संस्कृत का आधार देखें तो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का संस्कृत संकाय तो पूरी तरह से इस अधिकार के दायरे में आता है। अगर नहीं आता है तो फिर देश में अल्पसंख्यक की परिभाषा बदलने की आवश्यकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 29 अपने शीर्षक में ‘अल्पसंख्यकों’ शब्द का उपयोग करता है, लेकिन आगे यह बताता है कि “भारत के क्षेत्र या देश के किसी भी हिस्से में रहने वाले नागरिकों को अपनी भाषा या लिपि या संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार होना चाहिए। जो कि पूरी तरह से भिन्न है।” इसका मतलब संविधान में भी अल्पसंख्यक की परिभाषा पूरी तरह से व्यावहारिक नहीं है।

इस परिभाषा से अल्पसंख्यक को उनके द्वारा संचालित संस्थानों पर पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त है और सरकारी अधिकारियों को उनके प्रबंधन गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, और वे अल्पसंख्यक संस्थानों के कामकाज को नियंत्रित नहीं कर सकते।

गैर-अल्पसंख्यक संस्थानों को सरकारी हस्तक्षेप और नियंत्रण का सामना करना पड़ता है और अपने संस्थानों को ठीक से बनाने और प्रबंधित करने के अपने अधिकार का उपयोग करने में सक्षम नहीं होते हैं। सरकार अल्पसंख्यक संस्थानों द्वारा किए जा रहे पक्षपात को नियंत्रित नहीं कर सकती, और ये अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक दोनों समूहों के बीच भेदभाव का मुख्य कारण है।

अनुच्छेद 30 गैर-अल्पसंख्यक समुदायों की असमानता और भेदभाव का मुख्य कारण है और यह समाज में एक सांप्रदायिक असंतुलन पैदा कर रहा है। ऐसे में इसमें अब संशोधन किया जाना चाहिए ताकि सभी के लिए नियम धर्म के मामले में एक समान हो। अमित शाह ने लोक सभा में इसका उल्लेख कर यह हिंट जरूर दिया है कि अब हो सकता है हिंदुओं के धर्म की रक्षा के लिए कदम उठाए जा सकते हैं।

Exit mobile version