भाजपा का बहुलवादी सीएम न बनाने का फॉर्मूला बैकफायर कर रहा है, अब डेप्युटी कार्ड संभल कर खेलना पड़ेगा

भाजपा

भाजपा हाल ही में झारखंड हार चुकी है। 2014 के पश्चात अनवरत चल रहे इस विजयरथ को मानो ग्रहण लग गया है।  अब ये  पार्टी गढ़ भी नहीं बचा पा रही है। 2018 में वे मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ गँवा बैठे। फिर वे महाराष्ट्र को भी हार गयी और हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की जेजेपी पार्टी से गठबंधन कर किसी तरह अपनी सरकार बचाने में सफल रही। हालांकि, इस बीच भाजपा ने लोकसभा में 303 सीटों की अप्रत्याशित बहुमत प्राप्त किया।

एक आम आदमी की दृष्टि से देखें तो अधिकांश जगह भाजपा राज्य में सत्ता-विरोधी लहर के कारण हारी है, परंतु हमें 2014 की भाजपा की चुनावी राजनीति का विस्तृत रूप से विश्लेषण करना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि बहुसंख्यक प्रधान राजनीति से बीजेपी का मुंह मोड़ना उनके वर्तमान पराजयों के प्रमुख कारणों में से एक है। पारंपरिक भारतीय राजनीति में बहुसंख्यक प्रधान राजनीति, वोट-बैंक, जाति प्रमुख कारक माने जाते हैं। भाजपा ने निश्चित ही एक नेक सोच के अंतर्गत राजनीति के इन स्तंभों को त्यागने का निर्णय किया। परंतु ये निर्णय संभवतः बहुत जल्दी और बिना परिपक्वता से विचार विर्मश के लिया गया था। यदि भारतीय राजनीति में अपनी ’क्रांति’ को सफलतापूर्वक लागू करना है, तो भाजपा का राज्यों में एक शक्तिशाली आधार अत्यंत आवश्यक है। स्थानीय नेतृत्व को अनदेखा करना और गैर पारंपरिक मुख्यमंत्री बनाना भाजपा को झारखंड में काफी महंगा पड़ा है। यदि आपको विश्वास नहीं होता तो कुछ राज्यों का आपको उदाहरण देते हैं।

हरियाणा में 2014 में विजयी होने के बाद भाजपा ने जाट समुदाय का विश्वास प्राप्त करने का प्रयास मात्र भी नहीं किया। उन्होंने अन्य समुदायों पर अपना ध्यान ज़्यादा केन्द्रित किया, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण सीएम के लिए हुए चुनाव में देखने को मिला। मनोहर लाल खट्टर हरियाणा के प्रथम गैर-जाट सीएम थे। जाट समुदाय हरियाणा की जनसंख्या में लगभग 29 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखते हैं और ऐसे में पार्टी के पास कुछ नहीं तो एक शक्तिशाली जाट नेता अवश्य होना चाहिए थे, जिसे बाद में डेप्युटी सीएम का पद दिया जा सकता था। जैसे अभिमन्यु पायलट इस पद के लिए एक बेहतरीन विकल्प होते और शायद चुनावों में इसका प्रभाव भी नजर आता। परंतु, ऐसा न कर हरियाणा भाजपा पूर्णतया मनोहर लाल खट्टर और नरेंद्र मोदी पर निर्भर रही। इसी कारण भाजपा पूर्ण बहुमत नहीं अर्जित कर पायी और उन्हे दुष्यंत चौटाला की पार्टी के साथ गठबंधन करना पड़ा।

महाराष्ट्र में भी कुछ ऐसा ही हुआ। जिस राज्य में मराठा समुदाय बहुसंख्यक हैं, वहाँ भी भाजपा ने बहुमत को खुश करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। देवेंद्र फडणवीस (एक ब्राह्मण) को सीधे मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि, फडणवीस ने राज्य में अविश्वसनीय काम किया है और यहां तक कि जाति से परे दिखने वाले एक विशाल वोटबैंक को भी अपना समर्थक बनाया है , परंतु भारतीय लोकतंत्र अभी केवल विकास के संदर्भ में वोट देने के लिए परिपक्व नहीं हुआ है।

इसके ठीक एनसीपी के शरद पवार ने अपनी पूरी क्षमता के लिए क्षेत्रीय पहचान का खेल खेला। यहां भी, भाजपा ने अपने राज्य नेतृत्व में एक क्षेत्रीय पहचान के साथ एक शक्तिशाली नेता को जन्म दिए बिना अकेले फडणवीस पर निर्भर रही, ताकि मराठा कार्ड खेलने वाले दलों को एक कठिन चुनौती दी जा सके परन्तु ऐसा नहीं हो सका। यदि भाजपा के पास एक शक्तिशाली मराठा नेता होता, तो वे निस्संदेह ये चुनाव शिवसेना से गठबंधन किए बिना जीत सकती थी।

अब यदि झारखंड की बात करें, तो भाजपा ने यहाँ भी महाराष्ट्र और हरियाणा की भांति बहुसंख्यक समुदाय को प्राथमिकता न देने की गलती की। उन्होंने आदिवासी वोट को पूर्णतया दरकिनार किया, जो राज्य की जनसंख्या का लगभग 26.3 प्रतिशत है। रघुबर दास जैसे एक गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री के साथ एक आदिवासी नेता को सामने न लाकर भाजपा ने आदिवासियों को विपक्ष की ओर मुड़ने पर विवश कर दिया।

हालांकि, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने इस तरह की समस्या उत्पन्न नहीं होने दी थी। एक राजपूत होने के नाते योगी आदित्यनाथ के दो उप मुख्यमंत्री हैं। सभी प्रमुख समुदायों और वर्गों का उनकी सरकार में उचित प्रतिनिधित्व है, जिससे किसी भी वर्ग के असंतुष्ट होने और पर्याप्त रूप से चुनावों को प्रभावित करने के लिए कोई स्थान नहीं बचा है।

अब भाजपा को यह समझने की आवश्यकता है कि वे राष्ट्रीय मुद्दों पर केन्द्रित होकर हर राज्य का चुनाव नहीं जीत सकते। स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दों के प्रभाव को कम करना, और पीएम मोदी कार्ड को ओवरप्ले करना अब भाजपा की चुनाव संभावनाओं के लिए हानिकारक साबित हो रहा है। पीएम मोदी अभी भी एक बड़े पैमाने पर वोट जुटा सकते हैं। हालांकि, यह सोचने के लिए कि वह सभी राज्य चुनाव जीत सकते हैं, भाजपा के अहित में रहेगा। भगवा पार्टी  को इन चुनावों से कई सबक सीखने की जरूरत है, क्योंकि अब  दिल्ली और पश्चिम बंगाल के आगामी चुनाव काफी महत्वपूर्ण हैं।

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