AMU, जामिया और सेंट स्टीफंस जैसे संस्थान जो केंद्र के आरक्षण मानदंडों का पालन नहीं करते

पिछले कुछ दिनों से नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरुद्ध मुस्लिम समुदाय अनगिनत विरोध प्रदर्शन कर रहा है। जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे अल्पसंख्यक संस्थानों में इसका असर सबसे ज्यादा देखा गया है।

एएमयू, जामिया मिलिया, सेंट स्टीफेंस जैसे अल्पसंख्यक संस्थानों में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा सीट अल्पसंख्यकों के लिए रिजर्व्ड हैं। इन्हें अपनी अधिकांश फंडिंग राज्य या केंद्र सरकार से मिलती है, इसके बावजूद वे ना तो पिछड़े समुदाय को अपने कॉलेज में जगह देते हैं , और ना आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए केंद्र सरकार द्वारा घोषित किए गए आरक्षण को लागू करते हैं। ऐसे ना जाने कितने अल्पसंख्यक संस्थान हैं जहां का प्रशासन केंद्र सरकार के कई प्रावधानों को लागू करने से मना कर देता है।

Dr. T.M.A Pai Foundation v. State Of Karnataka  केस में न्यायालय के अनुसार जो भी संस्थान सार्वजनिक फंड्स का वहन करती है, उसे सरकारी नियमों का पालन करना होगा। वहीं संविधान के अनुच्छेद 30  के अनुसार भाषाई और धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों को अपने अनुसार शैक्षणिक संस्थान खोलने की अनुमति और अन्य वित्तीय सहायता लेने का प्रावधान है, जबकि इस अधिकार से बहुसंख्यक वर्ग को वंचित रखा गया है।

बता दें कि ‘हिन्दुओं के लिए समान अधिकार’ के नाम से आयोजित किए गए एक कॉन्फ्रेंस में हिन्दुओं के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों पर एक प्रकाश डाला गया था। आयोजकों ने अनुच्छेद 12, 15, 19, एवम् 25 से 30 को संशोधित कर बहुसंख्यक वर्ग के हितों की रक्षा हेतु मांग भी की ।

हाल ही में जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण को अपने संस्थानों में लागू करने से मना कर दिया।  जामिया ने अपने अल्पसंख्यक टैग का हवाला दिया, तो एएमयू ने सुप्रीम कोर्ट का उनके अल्पसंख्यक टैग पर निर्णय आने तक आरक्षण के इस प्रावधान को लागू नहीं करने का निर्णय लिया है।  .

JMI और AMU दोनों किसी भी अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालय की तरह देश के करदाताओं के फंड पर चलते हैं। इन्हें भी दलितों और आदिवासियों को आरक्षण देना चाहिए, क्योंकि यह उनका संवैधानिक अधिकार है। जेएमआई और एएमयू जैसे संस्थान केंद्र सरकार द्वारा निवेश किए गए करदाताओं के पैसे और सहायता के कारण चलते हैं, परन्तु वे भारतीय कानूनों का पालन नहीं करना चाहते हैं जैसे ईडब्ल्यूएस के लिए 10% कोटा देना और दलितों के लिए आरक्षण, आदिवासियों और ओ.बी.सी. का कोटा देना अपने लिए अपमानजनक मानते हैं।

यह सर्वविदित है कि कई ईसाई संगठन शिक्षा और चिकित्सा ट्रस्ट चलाते हैं, और अल्पसंख्यक संस्थान होने के नाते, वे अकूत पैसा कमाने के बावजूद टैक्स का भुगतान नहीं करते हैं। ये संस्थान अपने समुदायों के लोगों के लिए आरक्षित सीटें रखते हैं, और यहां तक ​​कि सेंट स्टीफेंस कॉलेज (केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित) जैसे टॉप कॉलेज भी इसका फायदा उठाते हैं।

सेंट स्टीफेंस कॉलेज Church of North India, and Supreme Council के सदस्यों द्वारा संचालित होता है, और Governing Body Chairperson जैसे  अहम पद स्वत: दिल्ली के बिशप के पास होता है। Member Secretary of Supreme Council and Governing body प्रिंसिपल होते हैं जो Church of North India के सदस्य हैं और इसलिए वो भी एक ईसाई ही हैं।

जब से  ये नागरिकता संशोधन कानून पर प्रदर्शन शुरू हुआ है तब से ही संविधान की दुहाई देने वाले सड़क पर उतरे है और ये ढूँढने में व्यस्त है कि पुलिस कब मानवाधिकार का उल्लंघन करे तब उन्हें कलम की सूली पर चढ़ाया जाए।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ये वही व्यक्ति हैं जो इन शैक्षणिक संस्थानों की ओर कभी ध्यान नहीं देते हैं, जहां ‘संप्रदाय’ के नाम पर भेदभाव होता है। उदाहरण के लिए, जीसस एंड मैरी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध है। इस कॉलेज ने एक समाचार पत्र में प्रकाशित विज्ञापन में, प्राचार्य पद के लिए आवेदन करने के लिए योग्य उम्मीदवारों को बुलाया। जबकि कोई विशेष योग्यता की मांग नहीं की गई थी, लेकिन ‘पात्रता’ का एकमात्र मानदंड यह था कि व्यक्ति ईसाई महिला हो, अधिमानतः किसी ईसाई मंडली से जुड़ी ‘बहन’ / ‘नन’। इसके अतिरिक्त, बप्तिजम प्रमाण पत्र के साथ, पैरिश की सिफारिश के पत्र की भी मांग की गई थी।

वहीं दूसरी ओर, पूरे देश में हिंदू मंदिरों को “धर्मनिरपेक्ष” राज्य सरकारों द्वारा प्रताड़ना सहनी पड़ती है।

ये सरकारें विभिन्न Hindu Religious and Charitable Endowments (HRCE) अधिनियमों के तहत, हिंदू मंदिरों और धार्मिक संस्थानों को नियंत्रित करती हैं, और वे ऐसा इसलिए कर पाते है क्योंकि उन्हें इस तथ्य का आभास है कि संविधान हिंदू समुदायों के अधिकारों की रक्षा नहीं करता है, जैसा कि अल्पसंख्यकों के मामले में करता है। सरकार हिन्दू मंदिरों को मिले दान को सार्वजनिक धन के रूप में प्रयोग करता है जबकि अल्पसंख्यक संस्थानों के संचालन समिति में कोई अन्य धर्म का शामिल भी नहीं हो सकता।

हिंदू धार्मिक स्थल लंबे समय से राजनीतिक ताकतों द्वारा शोषण का शिकार रहे हैं, जो कट्टरपंथी इस्लामवादियों के आक्रमण से लेकर वर्तमान ’धर्मनिरपेक्ष’ सरकारों तक हैं।

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