अगर इतिहास को तोड़ने मरोड़ने के लिए भारतीय सिनेमा के रोमिला थापर पुरस्कार का गठन किया जाये, तो आशुतोष गोवारिकर निर्विरोध विजेता चुने जाएंगे। अकबर को एक पत्नी के विचार वाले हृष्ट पुष्ट योद्धा की भांति ‘जोधा अकबर’ में दिखाना हो, या फिर ‘खेलें हम जी जान से’ में बंगाली क्रांतिकारियों का उपहास बनाना हो, आशुतोष गोवारिकर भारतीय सिनेमा में वही है जो भारतीय इतिहास के परिप्रेक्ष्य में रोमिला थापर हैं।
ऐसे में किसी को कोई हैरानी नहीं हुई जब आशुतोष गोवारिकर ने एक बार फिर ‘पानीपत’ में तथ्यों के साथ खिलवाड़ किया। वे मराठाओं को वैचारिक रूप से बेहतर दिखाने में सफल रहे हों, परंतु उन्होंने अपनी विचारधारा थोपने का भरसक प्रयास किया। ऊटपटाँग डांस स्टेप हो, या फिर पार्वतीबाई के इतिहास को गलत तरह से पेश करना हो, आप बस बोलते जाइए और आशुतोष भाऊ ने हर प्रकार से इस फिल्म में इतिहास के साथ खिलवाड़ किया है।
परंतु वे अपनी हदें तब लांघ गए, जब उन्होंने महाराजा सूरजमल का चित्रण किया। महाराजा सूरजमल एक शक्तिशाली जाट शासक थे, जिन्होंने पानीपत के युद्ध से संबन्धित राजनीति में एक अहम भूमिका निभाई थी। सुजान सिंह के नाम से भी जाने जाने वाले महाराजा सूरजमल उत्तरी भारत में एक प्रभावशाली शासक थे, जिन्होंने न केवल मुगलों को नियंत्रण में रखा था, अपितु रोहिल्ला और अवधी शासकों के नाकों चने चबवा देते थे। ऐसे में ये स्वाभाविक था कि अहमद शाह अब्दाली का मुक़ाबला करने के लिए मराठा महाराजा सूरजमल की सहायता लें।
महाराजा सूरजमल स्वयं सहायता के लिए तत्पर थे, पर वे मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ को नहीं मना सके। सदाशिव राव को उनके बड़े चचेरे भाई रघुनाथ राव के स्थान पर मराठा सेना का नेतृत्व करने भेजा गया था। राघोबा की तुलना में सदाशिव उत्तरी भारत की जटिल राजनीति से अनभिज्ञ थे। ऐसे में केवल महाराजा सूरजमल ही उनकी सहायता कर सकते थे, जिनके पास एक विशाल सेना भी थी। यदि वे मराठाओं के साथ संधि कर लेते, तो हमारा इतिहास कुछ और ही होता।
परंतु आशुतोष गोवारिकर ने महाराजा सूरज मल को एक मोटे आदमी की तरह पेश किया है जिसकी बुद्धि भी मोटी है, जो इमाद उल मुल्क जैसे लोगों तक को शरण देने के लिए तैयार थे। जिन्हें न पता हो, तो बता दें कि इमाद उल मुल्क मुगल साम्राज्य के वज़ीर थे, जिन्होंने सत्ता की लालसा में तत्कालीन बादशाह आलमगीर द्वितीय की हत्या भी करवाई थी।
यह सत्य है कि इमाद उल मुल्क मराठाओं और जाटों के बीच विवाद का विषय बने थे, परंतु जाट कभी भी इमाद उल मुल्क को शरण देने के लिए तैयार नहीं थे। इसके अलावा पानीपत ने कभी भी इस बात का उल्लेख नहीं किया कि कैसे युद्ध हारने पर वापस भाग रहे मराठा योद्धाओं और आमजनों की सुरक्षित वापसी का प्रबंध भी महाराजा सूरजमल ने ही कराया था।
परंतु यह पहली बार नहीं है जब आशुतोष गोवारिकर ने तथ्यों की धज्जियां उड़ाते हुए अपनी विचारधारा इतिहास के नाम पर थोपी हो। ‘जोधा अकबर’ में, उन्होंने अकबर को एक लंबे, हृष्ट पुष्ट व्यक्ति के रूप में चित्रित किया, जो जीवन भर केवल जोधाबाई के लिए प्रतिबद्ध रहा।
चटगांव विद्रोह पर आधारित ‘खेलें हम जी जान से‘ में, उन्होंने न केवल तक ध्वजारोहण समारोह के दृश्य को बदल दिया, बल्कि जलालाबाद की लड़ाई में क्रांतिकारियों को हार कर भागते हुए दिखाया, जबकि क्रांतिकारियों ने इसके ठीक उलट अंग्रेजों को धूल चटाई थी। ‘मोहनजो दारो’ में सिंधु घाटी सभ्यता के चित्रण के बारे में जितना कम कहें उतना बेहतर।
आशुतोष गोवारिकर जी, किसी भी चरित्र का काल्पनिक चित्रण करना बुरी बात नहीं है। तिग्मांशु धूलिया, राम माधवानी और आदित्य धर ने ऐतिहासिक चरित्रों के चित्रण में थोड़ी काल्पनिकता का सहारा अवश्य लिया पर तथ्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया, क्योंकि तथ्यों के साथ खिलवाड़ अनुचित ही होता है। ये बात आशुतोष गोवारिकर जितनी जल्दी समझ जाएँ उतना बेहतर होगा।