पत्थरबाजों के लिए आंसू और पुलिस के लिए कुछ नहीं? वास्तव में पुलिस होना सबसे सबसे कठिन काम है

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जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हुए हिंसक प्रोटेस्ट के बाद मैं ट्विटर स्क्रॉल कर रहा था। तभी अचानक से एक तस्वीर सामने आई। एक खाकी वर्दी पहने व्यक्ति को दो और खाकी वाले ही ले जा रहे थे। सिर से रक्त की धारा बह रही थी जिसकी छींटें उसे सहारा देने वालों पर भी पड़ रहा था। सिर्फ सिर ही नहीं बल्कि हाथ और घुटने दोनों बुरी तरह से घायल थे।

आखिर कौन हैं ये लोग जो खाकी वर्दी में एक डंडा लिए अक्सर ही दिख जाते हैं। और ये इस तरह से घायल क्यों हैं? इन सवालों के जवाब तो हमें पता ही है कि ये पुलिस वाले हैं और ये अपनी ड्यूटी पर हैं और प्रोटेस्ट के दौरान हुई पत्थरबाजी के कारण घायल हैं। परंतु हमें ये नहीं पता कि जब हम हिंसा के डर से अपने ऑफिस या घर पर सुरक्षित होकर बैठे हैं और अपने जानने वालों का हाल-चाल पूछ रहे हैं तब उन पर क्या बित रही थी। तब वे निहत्थे ही पत्थरबाजों के पत्थरों को सह रहे थे। पत्थर तो छोड़िए उन पर जामिया में बिना सुबूत के ही योन शोषण का आरोप भी लगा दिया गया।

दरअसल, जब से नागरिकता संशोधन कानून आया है तब से ही एक तबका इसके विरोध में है जो पत्थर के साथ रोड पर उतरा हुआ है तो वहीं दूसरा तबका जो समर्थन में है, वे अधिकतर घर के अंदर से ही समर्थन दे रहा है। इन दोनों के बीच एक और तबका है जो विरोध करने वालों के साथ है लेकिन उसे प्रदर्शनकारियों के पत्थर का शिकार होना पड़ा है।

हिंसक प्रदर्शन की शुरूआत असम से हुई जिसके बाद राजनीतिक नेताओं ने अपनी अप्रासंगिकता से तंग आकार इस प्रदर्शन को अफवाहों के सहारे इसे व्यापक बनाने की साजिश रची और  धीरे-धीरे इसे दिल्ली और फिर सलीमपुर, लखनऊ से होता हुआ यह हिंसक प्रदर्शन अहमदाबाद तक पहुंच चुका है। तब से लेकर कई ऐसे तस्वीरें आ चुकी हैं जिसमें वर्दी में पुलिस वाले खून से लथपथ दिख रहे हैं। पुलिस असहाय दिख रही है।

कई ऐसे वीडियो भी सामने आए हैं जिसमें पुलिस पर लगातार पत्थर फेंके जा रहे हैं। परंतु आज भी मीडिया में उल्टा सवाल पुलिस से ही किया जा रहा है कि क्यों इन्होंने लाठीचार्ज की। क्यों छात्रों को पीटा आदि। कई लोग तो जामिया जाकर छात्राओं से इंटरव्यू लेने लगे और यह सवाल उठा दिया कि इन पुलिस वालों ने molest किया सुबूत नहीं है लेकिन हो सकता है।

आखिर ये वर्दी वाले कोई हैं जो दोनों ही तरफ से बदनाम हो रहे हैं। ड्यूटी न करे तब सरकार से, ड्यूटी करे तो जनता से। अगर हिंसा हुआ तो भी सवाल उन्हीं से पूछे जाते हैं कि कंट्रोल क्यों नहीं किया और जब वे कंट्रोल करने जाते हैं तो यह सवाल किया जाता है कि मानवाधिकार का उल्लंघन किया। आखिर ये पुलिस वाले जो रोज ऐसे हिंसक प्रदर्शनों में अपनी जान हथेली पर रख कर जाते हैं, उनकी कौन सुनेगा?

राज्य सरकार जिसकी ये सेवा करते हैं, इन सभी को एक डंडा के अलावा उपयोग में लाने वाली कौन सी वस्तु दी जाती है? हथियार दी भी जाती है तो वह उसे चलाने से पहले 100 बार सोचता है। अगर मार दिया तो मीडिया और मानवाधिकार वाले कोसेंगे और जब नहीं मारा तब भी मीडिया वाले ही यह सवाल करेंगे कि क्यों नहीं मारा।

सबकी छुट्टियां होती हैं, हमारी नहीं

सबके “work hours” होते हैं, हमारे नहीं

सब त्योहार मनाते हैं, हम बंदोबस्त करते हैं

अगर कोई तोड़-फोड़ हो, तो हम दोषी

अगर किसी दंगाई की पिटाई की, तो हम दोषी

कोई नयी सरकार आई तो हमारा तबादला

सोशल मीडिया की कोर्ट में हम दोषी

मीडिया की कोर्ट में हम दोषी

हमें ये खाकी दी क्यों?

हाथ में डंडे और बंदूक दिए क्यों?

तुम्हें उनके जख्म दिखे, उनकी चोटें दिखीं

और जो हम लहूलुहान होकर भी लड़ते रहे वो क्यों नहीं दिखे?

इन सभी सवालों के साथ एक खाकी वर्दी वाला जीता है और अपनी ड्यूटी पर जाता है। इन हिंसक प्रदर्शन के कारण न जाने कितने पुलिस वाले घायल हो चुके हैं। दो पुलिसकर्मी तो ICU में जिंदगी और मौत के बीच की लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकार को चाहिए कि वे इन पुलिस वालों को अधिक सशक्त करे और नागरिकों के अलावा उन्हें भी थोड़े अधिकार दे जिससे वे इन परिस्थितियों से निपट सकें।

हम TFI की तरफ से सभी पुलिसवालों को सैल्यूट करते हैं। धन्यवाद! पत्थर से मौत का तांडव करने वालों से हमें सुरक्षित रखने के लिए!!

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